hum hia jee

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Thursday, December 23, 2010

भीड़ ....

आज ज़िन्दगी के मायने बदल गए है .हर जगह भीड़ है .शुकून नहीं मिलता .कृत्रिम भीड़ ही ज्यादा दिखाई देती है वास्तविक हो तो कोई बात नहीं .सड़क पर भीड़ ...बाजार में भीड़ ...आकाश में भीड़ ...सागर में भीड़ ...मंदिर मस्जिद में भीड़ ....संसद में भीड़ ...स्कुल कालेज में भीड़ ...अस्पताल में भीड़ ... हर जगह भीड़ ही भीड़ .
भीड़ अच्छी बात हो सकती है पर इसे नियंत्रित किया जाय तो ...प्रशिक्षित किया जाय तो ,पर ऐसा  नहीं है, यह और बेतरतीब ढंग से बढती ही जा रही है .कुछ सियासी लोगों के लिए संजीवनी ही है .भीड़ में गुणवता लाने की कोशिश नहीं हो रही ,इसे बोझ बताने का चलन बढ़ रहा है . सरकार इसे अपनी नाकामी का बहाना बना रही है .
आगे भीड़ और बढ़ेगी ही ..तब बहाना बनाने वालो पर यह भारी साबित होगी . आपाधापी में जो आज कुछ चंद  लोग जो घी पी रहे है ..कल उनके मुंह से यह भीड़ घी छीन कर पी जायेगी ...तब व्यवस्था का दोष देना मुर्खता की बात होगी . आज ही चेत ले इससे सुन्दर कुछ नहीं होगा .

Tuesday, November 30, 2010

खाद्य सुरक्षा...

कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन ने खेती बाड़ी में युवाओं की भागीदारी बढ़ाने का आह्‍वान किया है और  कहा है कि कृषि क्षेत्र को आकर्षक बनाते हुए अगर युवा पीढ़ी को इससे जोड़ा गया तो यह इस क्षेत्र को नई गति देने में सहायक होगा.
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी  भारत यात्रा के दौरान इस तथ्य को रेखांकित किया कि देश की 50 प्रतिशत आबादी 30 साल से कम आयु की है.
उनके अनुसार  अगर हम खेती-बाड़ी को युवा पीढ़ी के लिए अधिक आकर्षक बनाते हुए इस जनसांख्यिकी लाभ को भुना सके तो और अच्छे परिणाम आ सकते हैं.उन्होंने कहा कि एग्री क्लिनिक तथा एग्री बिजनेस सेंटर जैसे संस्थानों में निकटवर्ती क्षेत्र  से ही लोग होने चाहिए.इस काम के लिए खेती को लाभप्रद बनाना होगा .जिससे की युवाओं को कृषि की तरफ आकर्षित किया जा सके .उन्होंने द्वितीय हरित क्रांति पर भी जोर दिया जिसके बिना खाद्य सुरक्षा को हासिल नहीं किया जा सकता है .

Sunday, September 5, 2010

मैना की कहानी हो जाएगी पुरानी !



पहाड़ी मैना अब शायद किस्से कहानियों में ही सिमटकर रह जाएगी. नक्सलवाद और सुरक्षाबलों के बीच चल रहे युद्ध में अगर कोई ख़त्म हो रहा है तो वो है मैना.

बारूदी सुरंगों के विस्फोट की आवाजें, बंदूकों की तडतड़ाहट के बीच छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग की एक बड़ी प्यारी आवाज़ ग़ायब होती जा रही है.

यह आवाज़ है बस्तर की मैना की, जो दक्षिण छत्तीसगढ़ के इलाक़े में बड़ी संख्या में पाई जाती है. लेकिन क़रीब एक दशक से इस इलाक़े में पनप रहे नक्सलवाद, माओवादी छापामारों और सुरक्षा बलों के बीच चल रहे युद्ध की वजह से यह इलाक़ा पूरी तरह अशांत हो गया है.

इस अशांति का असर बस्तर के जंगलों पर भी पड़ा है. चाहे यहाँ राष्ट्रीय उद्यान हों या फिर इस क्षेत्र में रहने वाले लोग, पशु हों या पक्षी, सभी की जीवन बेचैन हो गया है.

यहां की बदलती हुई आब-ओ-हवा के कारण इस प्यारी सी चिड़िया ने प्रजनन करना लगभग बंद ही कर दिया है. यही वजह है कि इनकी आबादी दिन ब दिन घटती ही जा रही है.

बस्तर की मैना छत्तीसगढ़ की राजकीय पक्षी है इसलिए अब सरकार ने इसे संरक्षित करने के लिए एक कार्य योजना बनाई है. हालांकि संरक्षण का काम कई सालों से चल रहा था लेकिन इसके परिणाम वैसे नहीं आए जैसी उम्मीद की जा रही थी.

बस्तर के ज़िला मुख्यालय जगदलपुर के पास स्थित वन विद्यालय में पचास फीट लंबा और उतना ही चौड़ा एक विशालकाय पिंजरा है जिसमें दो मेहमान रहते हैं. एक है पायल और दूसरी नंदी.

पायल और नंदी का सारा वक़्त उनसे मिलने आए लोगों का मनोरंजन करने में ही बीत जाता है. बस्तर की मैना कि ख़ास बात है कि थोड़े से प्रशिक्षण के बाद वो बिलकुल इंसानों की आवाज़ की हू-ब-हू नक़ल कर सकती है.

पायल और नंदी के प्रशिक्षक हेमंत बेहेरा ने पायल को ख़ूब अच्छी बातें सिखाई हैं. मसलन, जैसे ही कोई पिंजरे के पास पहुँचता है तो एक इंसानी आवाज़ आती है जो कहती है "साहब नमस्ते".

इंसान जैसी आवाज़ अचानक चिड़िया के कंठ से किसी को भी चौंका देती है. कुछ देर बाद ये मैना फिर बोलती है, इस बार शब्द होते हैं "सीता राम. सीता राम. इतना ही नहीं, एक अच्छे दोस्त की तरह पूछती है "खाना खाए?"

इन दोनों मैनाओं को जंगलों से लाकर इस बड़े से पिंजरे में रखा गया है ताकि इनका संरक्षित प्रजनन हो सके. मगर इन कोशिशों के बावजूद पिछले दस सालों में कोई सफलता हासिल नहीं हो पाई है.

क्यों हो रही हैं ग़ायब?
आख़िर इसका क्या कारण है. बस्तर के वन संरक्षक अरुण पांडे कहते हैं, " बस्तर की मैना एक शर्मीली चिड़िया है जो सिर्फ़ बहुत ऊँचे पेड़ों पर रहना पसंद करती है. यह मैना शायद ही कभी नीचे आती है."

बस्तर की मैना की दूसरी बड़ी ख़ासियत है उसकी अपने साथी के लिए वफादारी. जिस साथी से एक बार प्रजनन किया फिर वो कभी दूसरे साथी के साथ प्रजनन नहीं कर सकती. अरुण पांडे के अनुसार इनकी घटती आबादी का एक ये भी बड़ा कारण है.

पिछले 15 सालों में जगदलपुर वन विद्यालय के पिंजरे में किसी मैना ने कोई अंडा तक नहीं दिया है जबकि पायल नाम की मैना नौ साल की है और नंदी तीन साल की.

वहीं राज्य के वन मंत्री विक्रम उसेंडी का कहना है कि बस्तर कि मैना को संरक्षित करने के लिए अब थाईलैंड के राम्खन हेम यूनिवर्सिटी में जीव विज्ञान के विशेषज्ञों से मदद मांगी गई है.

संभावना है कि अगले महीने विशेषज्ञों का एक दल बस्तर आएगा और जगदलपुर के वन विद्यालय के पिंजरे में रखी पायल और नंदी पर शोध भी करेगा.

अशांत मैना
इसके अलावा उसेंडी का मानना है कि पिछले कई सालों के अनुभव के बाद ये समझ में आता है कि शहर के बीच बसा वन विद्यालय इन पक्षियों के संरक्षण की सही जगह नहीं है क्योंकि यहां या तो आते जाते वाहनों का शोर रहता है या फिर पास से गुज़रने वाली रेल गाड़ी का.

उसेंडी कहते हैं, "इसलिए मैंने अपने विभाग के अधिकारियों से कहा है कि कांकेर घाटी के जंगलों में ही पिंजरे को स्थानांतरित कर दिया जाए ताकि बस्तर की मैना को प्राकृतिक परिवेश मिल पाए और उसके प्रजनन में बाधा न पैदा हो सके. बहुत जल्द ही ऐसा हो जाएगा."

पिछले दस सालों में छत्तीसगढ़ की सरकार नें बस्तर कि मैना को संरक्षित करने के लिए काफी़ पैसा ख़र्च किया है. मगर इन सब के बावजूद अब तक यह पता नहीं चल पाया है कि जगदलपुर वन विद्यालय के पिंजरे में रह रही दो मैनाओं में से कौन सा नर है और कौन सी मादा.

बहरहाल यह उम्मीद की जा रही है कि थाईलैंड के विशेषज्ञों के शोध के बाद बस्तर की मैना को संरक्षित करने में काफी़ मदद मिल सकती है.

बंधक बनाने वालों से कैसी बातचीत?

क्या भारत सरकार को उन संगठनों से बातचीत करनी चाहिए जो लोगों को बंधक बनाकर अपनी माँगें मनवाना चाहते हैं?

बीस साल पहले तत्कालीन गृहमंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबैया सईद को विदेशी /कश्मीरी चरमपंथियों के चंगुल से छुड़वाने का मामला हो या फिर इंडियन एअरलाइंस के विमान को छुड़वाने के लिए कश्मीरी चरमपंथियों की रिहाई का मामला हो भारत सरकार के पास बंधक-संकट से निपटने के लिए कोई ठोस नीति नहीं है.

हालाँकि यासिर अराफ़ात से लेकर काँग्रेस समर्थक पाँडे बंधु तक विमान अपहरण करके अपनी माँगे मनवाने की कोशिश कर चुके हैं. और अब बिहार में माओवादियों ने चार पुलिस वालों को बंधक बनाया हुआ था जिसमे से एक की ह्त्या भी कर दी गयी है
तो क्या बंधकों को बचाने के लिए सरकार को बंधक बनाने वालों से बातचीत करनी चाहिए या नहीं?

Wednesday, September 1, 2010

मीडियाकर्मी बनाने की दुकान !

इंटरनेट पर भारत के मीडिया संस्थानों की सूची तलाश करने पर 18 लाख से ज्यादा नतीजे दिखाई देते हैं। इनमें सरकारी संस्थान कम और निजी ज्यादा दिखाई देते हैं। यह भीड़ कुछ ऐसी है कि लगता है जैसे पत्रकार बनाने वाली फैक्टरियों की भीड़ ही जमा हो गई हो। वहीं एमबीए इंस्टीट्यूट की तलाश करने पर छह लाख के करीब नतीजे दिखते हैं। मतलब यह कि मीडिया संस्थानों की पहुंच, पूछ और पहचान बढ़ रही है।

इसी साल देश के सर्वोच्चतम माने जाने वाले मीडिया इंस्टीट्यूट भारतीय जनसंचार संस्थान को डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा दे दिया गया। इसी तरह दिल्ली के पांच कॉलेजों- लेडी श्रीराम, कमला नेहरू, अग्रसेन, दिल्ली कॉलेज ऑफ आर्ट्स एंड कॉमर्स, कालिंदी कॉलेज में अंग्रेजी में पत्रकारिता को स्नातक स्तर पर पढ़ाया जा रहा है और हिंदी में चार कॉलेजों अदिति महाविद्यालय, भीमराव आंबेडकर कालेज, राम लाल आनंद, गुरुनानक देव खालसा कॉलेज में पत्रकारिता के स्नातक स्तर की पढ़ाई हो रही है।

यानी दिल्ली में मीडिया के अध्ययन का भरपूर माहौल तैयार हो चुका है और सरकारी कोशिशें भी काफी हद तक संतोषजनक ही रही हैं। इसके बावजूद दिल्ली में निजी संस्थानों भी एक के बाद एक खुलते गए हैं। दिल्ली से सटे एनसीआर क्षेत्र में पत्रकारिता की कई दुकानें खुली हैं और उनमें से ज्यादातर ने कहीं न कहीं दिल्ली विश्वविद्यालय के पत्रकारिता के पाठ्यक्रम से ही बड़े सबक उठाए हैं। सरकारी कॉलेजों की तुलना में इनमें से कुछ भले ही दर्शनीय और आकर्षक ज्यादा हों, लेकिन गुणवत्ता के मामले में ये खुद को साबित नहीं कर पाए हैं।

दरअसल, भारत में मीडिया शिक्षण मोटे तौर पर छह स्तरों पर होता है- सरकारी विश्वविद्यालयों या कॉलेजों में विश्वविद्यालयों से संबद्ध संस्थानों में, भारत सरकार के स्वायत्तता प्राप्त संस्थानों में पूरी तरह से निजी संस्थानों में, डीम्ड विश्वविद्यालयों में और किसी निजी चैनल या समाचारपत्र के खोले गए अपने मीडिया संस्थान में।

इनमें सबसे कम दावे सरकारी संस्थान करते हैं और दावों की होड़ में जीतते हैं निजी संस्थान। लेकिन विश्वसनीयता के मामले में बात एकदम उल्टी है। अब भारत में 125 डीम्ड विश्वविद्यालय खुल गए हैं। इनमें से 102 निजी स्वामित्व वाले संस्थान हैं। यहां भी शिक्षण संबंधी मूलभूत नियमों की अनदेखी की शिकायतें आती रही हैं। यही वजह है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय का कार्यभार संभालते ही कपिल सिब्बल ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा हासिल कर चुके सभी शिक्षण संस्थानों के कामकाज की समीक्षा के आदेश दे दिए।

उधर निजी चैनलों के कुछ संस्थान पहले तो चयन ही ऐसे छात्रों का करते हैं जो उनके चैनल के लिए पूरी तरह से उपयुक्त दिखते हों। इनमें ऊंची पहुंच वालों के बच्चों को तरजीह मिलती है। इनमें से कई संस्थान जो सर्टिफिकेट देते हैं, वह चैनल में तो चलता है लेकिन कहीं और नहीं। यहां किसी विश्वविद्यालय से संबद्ध डिग्री देने का प्रावधान नहीं होता है।

मसला यह भी है कि इन संस्थानों में पढ़ाता कौन है (क्या पढ़ाया जाता है, यह एक अलग मसला है)। सरकारी संस्थानों में इस साल से यूजीसी के निर्देशों का पालन अनिवार्य कर दिया गया है, यानी इन संस्थानों में अब वही शिक्षक नौकरी पा सकेंगे जो गुणवत्ता के स्तर पर कहीं से भी कम नहीं होंगे, क्योंकि नेट की परीक्षा को पार करना आसान नहीं।

ऐसे में अक्सर गेस्ट फैकल्टी को बुलाने की कोशिश होती है। ज्यादातर सरकारी कॉलेजों में आज भी अतिथि वक्ता को एक घंटे के लेक्चर के लिए 500 से 750 रुपए ही दिए जाते हैं। ऐसे में या तो लोग आते नहीं और अगर आ भी जाते हैं तो शिक्षण में अनुभवहीनता और अरुचि के चलते अपनी सफलता के किस्से सुनाकर चलते बनते हैं।

निजी संस्थानों में अब भी नेट अनिवार्य नहीं दिखती। नतीजा यह हुआ है कि या तो उनके पास वही शिक्षक रह जाते हैं जिनकी जानकारी अस्सी के दशक से आगे नहीं बढ़ी है अथवा वे जो मीडिया में हैं लेकिन पढ़ाने की कला नहीं जानते। ऐसे लोग कक्षाओं में किस्सागोई तो कर लेते हैं, लेकिन छात्रों के ज्ञान को विस्तार नहीं दे पाते।

ऐसे में मीडिया शिक्षा सिर खुजलाती दिखती है। युवा पत्रकार बनना चाहते हैं, वह भी जल्दी में। ऐसे में पत्रकारिता करना मैगी नूडल्स बनाने जैसा काम हो गई है। बाद में पता चलता है कि जल्दी में जिस फसल को रातोंरात बड़ा किया गया था, वह कीटनाशकों के अभाव में खराब निकली। क्या कुछ समय के लिए फोकस मीडिया के बढ़ते बाजार के बजाय योग्य शिक्षकों की खोज और उनके प्रशिक्षण पर किया जा सकता है? यह एक अलग बात है कि गूगल पर मीडिया शिक्षकों की तलाश करने पर नौ करोड़ से ज्यादा नतीजे मिलते हंै।

Monday, August 30, 2010

ये कैसी मानसिकता है !

भारत में स्वाधीनता के बाद भी अंग्रेजी कानून और मानसिकता जारी है। इसीलिए इस्लामी, ईसाई और वामपंथी आतंकवाद के सामने ‘भगवा आतंक’ का शिगूफा कांग्रेसी नेता छेड़ रहे हैं। इसकी आड़ में वे उन हिन्दू संगठनों को लपेटने के चक्कर में हैं, जिनकी देशभक्ति तथा सेवा भावना पर विरोधी भी संदेह नहीं करते। किसी समय इस झूठ मंडली की नेता सुभद्रा जोशी हुआ करती थीं; पर अब लगता है इसका भार चिदम्बरम और दिग्विजय सिंह ने उठा लिया है।
ये लोग हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबेल्स के चेले हैं। उसके दो सिद्धांत थे। एक – किसी भी झूठ को सौ बार बोलने से वह सच हो जाता है। दो – यदि झूठ ही बोलना है, तो सौ गुना बड़ा बोलो। इससे सबको लगेगा कि बात भले ही पूरी सच न हो; पर कुछ है जरूर। इसी सिद्धांत पर चलकर ये लोग अजमेर, हैदराबाद, मालेगांव या गोवा आदि के बम विस्फोटों के तार हिन्दू संस्थाओं से जोड़ रहे हैं। उन्हें लगता है कि दुनिया भर में फैले इस्लामी आतंकवाद के सामने इसे खड़ाकर भारत में मुसलमान वोटों की फसल काटी जा सकती है। सच्चर, रंगनाथ मिश्र और सगीर अहमद रिपोर्टों की कवायद के बाद यह उनका अगला कदम है।
सच तो यह है कि आतंकवाद का हिन्दुओं के संस्कार और व्यवहार से कोई तालमेल नहीं है। वैदिक, रामायण या महाभारत काल में ऐसे लोगों को असुर या राक्षस कहते थे। वे निरपराध लोगों को मारते और गुलाम बनाते थे। इसे ही साहित्य की भाषा में कह दिया गया कि वे लोगों को खा लेते थे; पर वर्तमान आतंकवादी उनसे भी बढ़कर हैं। ये विधर्मियों को ही नहीं, स्वधर्मियों और स्वयं को भी मार देते हैं।
हिन्दू चिंतन में ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ की भावना और भोजन से पूर्व गाय, कुत्तो और कौए के लिए भी अंश निकालने का प्रावधान है। ‘अतिथि देवो भव’ का सूत्र तो शासन ने भी अपना लिया है। अपनी रोटी खाना प्रकृति, दूसरे की रोटी खाना विकृति और अपनी रोटी दूसरे को खिला देना संस्कृति है। यह संस्कृति हर हिन्दू के स्वभाव में है। ऐसे लोग आतंकवादी नहीं हो सकते; पर मुसलमान वोटों के लिए एक-दो दुर्घटनाओं के बाद कुछ सिरफिरों को पकड़कर उसे ‘भगवा आतंक’ कहा जा रहा है।
कांग्रेस वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या विश्व हिन्दू परिषद और लश्कर, सिमी या हजारों नामों से काम करने वाले इन आतंकी गिरोहों को न जानते हों, यह भी असंभव है; पर आखों पर जब काला चश्मा लगा हो, तो फिर सब काला दिखेगा ही।
संघ को समझने के लिए बहुत दूर जाने की आवश्यकता नहीं होती। देश भर में हर दिन सुबह-शाम संघ की लगभग 50,000 शाखाएं सार्वजनिक स्थानों पर लगती हैं। इनमें से किसी में भी जाकर संघ को समझ सकते हैं। शाखा में प्रारम्भ के 40 मिनट शारीरिक कार्यक्रम होते हैं। बुजुर्ग लोग आसन करते हैं, तो नवयुवक और बालक खेल व व्यायाम। इसके बाद वे कोई देशभक्तिपूर्ण गीत बोलते हैं। किसी महामानव के जीवन का कोई प्रसंग स्मरण करते हैं और फिर भगवा ध्वज के सामने पंक्तियों में खड़े होकर भारत माता की वंदना के साथ एक घंटे की शाखा सम्पन्न हो जाती है।
मई-जून मास में देश भर में संघ के एक सप्ताह से 30 दिन तक के प्रशिक्षण वर्ग होते हैं। प्रत्येक में 100 से लेकर 1,000 तक शिक्षार्थी भाग लेते हैं। इनके समापन कार्यक्रमों में बड़ी संख्या में जनता तथा पत्रकार आते हैं। प्रतिदिन समाज के प्रबुध्द एवं प्रभावी लोगों को भी बुलाया जाता है। आज तक किसी शिक्षार्थी, शिक्षक या नागरिक ने नहीं कहा कि उसे इन शिविरों में हिंसक गतिविधि दिखाई दी है।
संघ के स्वयंसेवक देश में हजारों संगठन तथा संस्थाएं चलाते हैं। इनके प्रशिक्षण वर्ग भी वर्ष भर चलते रहते हैं। इनमें भी लाखों लोग भाग ले चुके हैं। विश्व हिन्दू परिषद वाले सत्संग और सेवा कार्यों का प्रशिक्षण देते हैं। बजरंग दल और दुर्गा वाहिनी वाले नियुद्ध ि(जूडो, कराटे) तथा एयर गन से निशानेबाजी भी सिखाते हैं। इससे मन में साहस का संचार होकर आत्मविश्वास बढ़ता है। इन शिविरों के समापन कार्यक्रम भी सार्वजनिक होते हैं। संघ और संघ प्रेरित संगठनों का व्यापक साहित्य प्राय: हर बड़े नगर के कार्यालय पर उपलब्ध है। अब तक हजारों पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं तथा करोड़ों पुस्तकें बिकी होंगी। किसी पाठक ने यह नहीं कहा कि उसे इस पुस्तक में से हिंसा की गंध आती है।
सच तो यह है कि जिस व्यक्ति, संस्था या संगठन का व्यापक उद्देश्य हो, जिसे हर जाति, वर्ग, नगर और ग्राम के लाखों लोगों को अपने साथ जोड़ना हो, वह हिंसक हो ही नहीं सकता। हिंसावादी होने के लिए गुप्तता अनिवार्य है और संघ का सारा काम खुला, सार्वजनिक और संविधान की मर्यादा में होता है। संघ पर 1947 के बाद तीन बार प्रतिबंध लग चुका है। उस समय कार्यालय पुलिस के कब्जे में थे। तब भी उन्हें वहां से कोई आपत्तिजनक सामग्री नहीं मिली।
दूसरी ओर आतंकी गिरोह गुप्त रूप से काम करते हैं। वे इस्लामी हों या ईसाई, नक्सली हों या माओवादी कम्यूनिस्ट; सब भूमिगत रहकर काम करते हैं। उनके पर्चे किसी बम विस्फोट या नरसंहार के बाद ही मिलते हैं। उनके प्रशिक्षण शिविर पुलिस, प्रशासन या जनता की नजरों से दूर घने जंगलों में होते हैं। ये गिरोह जनता, व्यापारी तथा सरकारी अधिकारियों से जबरन धन वसूली करते हैं। न देने वाले की हत्या इनके बायें हाथ का खेल है। ऐसे सब गिरोहों को बड़ी मात्रा में विदेशों से भी धन तथा हथियार मिलते हैं।
हिन्दू संगठनों की प्रेरणा हिन्दू धर्मग्रन्थ ही होते हैं; और किसी धर्मग्रन्थ में निरपराध लोगों की हत्या करने को नहीं कहा गया हैं। हां, अत्याचारी का वध जरूर होना चाहिए। श्रीमद्भगवद्गीता का तो यही संदेश है; लेकिन दूसरी ओर इस्लाम, ईसाई या कम्युनिस्टों के मजहबी ग्रन्थों में अपने विरोधी को किसी भी तरह से मारना उचित कहा गया है। विश्व भर में फैली मजहबी हिंसा का कारण यही किताबें हैं। अधिकांश लोग इन्हें गलती से धर्मग्रन्थ कह देते हैं, जबकि ये मजहबी किताबें हैं।
संघ और वि.हि.परिषद का जन्म हिन्दू समाज को संगठित करने के लिए हुआ है; और हिंसा से विघटन पैदा होता है, संगठन नहीं। संघ मुस्लिम और ईसाई तुष्टीकरण का विरोधी है। वह उस मनोवृति का भी विरोधी है, जिसने देश को बांटा और अब अगले बंटवारे के षडयन्त्र रच रहे हैं। इसके बाद भी संघ का हिंसा में विश्वास नहीं है। वह मुसलमान तथा ईसाइयों में से भी अच्छे लोगों को खोज रहा है। संघ किसी को अछूत नहीं मानता। उसे सबके बीच काम करना है और सबको जोड़ना है। ऐसे में वह किसी वर्ग, मजहब या पंथ के सब लोगों के प्रति विद्वेष रखकर नहीं चल सकता।
इसलिए भगवा आतंक का शिगूफा केवल और केवल एक षड्यंत्र है। यह खिसियानी बिल्ली के खंभा नोचने का प्रयास मात्र है। दिग्विजय सिंह हों या उनकी महारानी, वे आज तक किसी इस्लामी आतंकवादी को फांसी नहीं चढ़ा सके हैं। अब भगवा आतंक का नाम लेकर वे इस तराजू को बराबर करना चाहते हैं। उनका यह षड्यंत्र हर बार की तरह इस बार भी विफल होगा।

Sunday, August 15, 2010

जश्ने आजादी के ६३ साल .

आजादी की 63 वी वर्षगाँठ पर हार्दिक बधाई, शुभकामनाये.ये दिन है आजादी का जश्न मनाने का, उन शहीदों और वीर पुरुष, महिलाओ को नमन करने का जिन्होंने हमें ये आजादी सौपी है, उन बहादुर सैनिको की याद में आँखे नम करने का जिन्होंने आजाद भारत के लिए अपनी शहादत दी है, उन लाखो सैनिको और जागरूक नागरिको को सलाम करने का जो देश को बुलंदियों की ओर जा रहे हैं.
कोई बात है इस देश की मिटटी में जिसकी खुशबु ही मर मिटने का जज्बा पैदा कर देती है, देश के लिए प्राण देने के वालो की फसल तैयार करती रहती है.हालाँकि वक़्त बदला है क्योंकि भारत मां अब बलिदान नहीं योगदान मांगती है. इसकी 1 अरब 20 करोड़ संताने ही इसकी ताकत हैं.कुछ बच्चे बिगड़ गए हैं लेकिन फिर भी इस भीड़ में लाखो भगत और बिस्मिल घूम रहे हैं जिनका एक ही धर्म है "भारतीय",एक ही जाति "भारतीय" एक ही मकसद है "स्वाबलंबी और मजबूत भारत"
भारतीय - एक शब्द जिसके आगे हर सम्मान, हर उपाधि, हर पुरुस्कार छोटा लगता है,
मुझे गर्व है कि मैं इस देश में पैदा हुआ जहाँ देवता भी जन्म लेने को तरसते हैं, मुझे गर्व है कि मैं भारतीय हूँ. आइये अपने इतिहास से प्रेरणा लेकर एक सुनहरा वर्तमान रचते हैं. जय हिंद

Sunday, July 18, 2010

बिहार में मीडिया का असली चेहरा क्या है ?

किसका मीडिया, कैसा मीडिया। जवाब सीधा है, पूंजीपतियों का मीडिया। सामंतों का मीडिया। दलालों का मीडिया। समरथ को नहीं दोष गोषाईं… आदि-आदि का मीडिया। जी हां, मीडिया की परिभाषा आज बदल चुकी है। मीडिया यानी खबरों, विचारों और मनोरंजन को लोगों तक पहुंचाना अब गाली लगती है। खबरें, साबुन, सर्फ, पेस्ट की तरह इस्तेमाल होने लगी हैं। सवाल है कि इस्तेमाल आखिर कौन कर रहा है। पत्रकार या मालिक। जाहिर है लाखों-करोड़ों पैसा लगाने वाला मीडिया हाउस का मालिक। फिर मीडिया किसका मीडिया हुआ? खबर खबर नहीं, विचार विचार नहीं, मनोरंजन मनोरंजन नहीं। वह बन जाता है उपभोक्ता वस्तु। फिर खबर हो या साबुन क्या फर्क पड़ता है, जब दोनों को बेचना ही है। खबरें भी ‘प्रोडक्ट’ की तरह बेची जा रही हैं। कहा जा सकता है कि बाजार तैयार हो चुका है। बल्कि मीडिया में बाजार घुस चुका है।

मीडिया के माध्यम से खबरों को बेचने का कारोबार फल-फूल रहा है। घटनाएं कई हैं, जो किसका मीडिया और कैसा मीडिया को नंगा करने के लिए काफी है। मीडिया के लिए उर्वर जमीन माने जाने वाले बिहार के मीडिया पर नजर डालते हैं। घटना है, बिहार की राजधानी पटना में राष्ट्रमंडल खेल के लिए देश भ्रमण पर निकले क्विंस बैटन रिले की। गत 14 जुलाई को क्विंस बैटन रिले पटना में आयोजित की गयी। ताम-झाम, धूम-धड़ाम के साथ रिले निकला। इसमें राजनेता, अधिकारी, हीरो-हिरोइन, खिलाड़ी, संस्कृतिकर्मी, पत्रकार, लेखक सहित आमजनों की भागीदारी रही। राजभवन से राज्यपाल ने बैटन को कला और संस्कृति विभाग के सचिव को सौंपा। उसके बाद बैटन रिले की यात्रा शहर के पैंतीस पड़ावों पर होते हुए श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल पर जाकर समाप्त हुआ। पैंतीस पड़ावों पर बैटन को लेकर आगे बढ़ने वालों में राजनेता से लेकर पदाधिकारी, हीरो होंडा के पदाधिकारी और बिहार के राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के कई खिलाड़ी और एक अभिनेत्री शामिल थी। क्विंस बैटन रिले को कवर करने वालों में प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया का हुजूम भी पूरी तन्मयता से मौजूद रहा। बिहार के मीडिया ने क्विंस बैटन रिले के कवरेज को प्राथमिकता से जगह दी। मामला राष्ट्र हित का था और होना भी चाहिए था।

बिहार से प्रकाशित सभी अखबारों ने पहले पेज पर जगह दी। लेकिन बिहार के मीडिया का चेहरा एक बार फिर साफ हो गया कि आखिर उसकी सोच क्या है? यानी किसका मीडिया, कैसा मीडिया और किसके लिए? प्रश्न सामने आ ही गया। लोग भी चौंके। क्विंस बैटन रिले खबर तो बनी। अंग्रेजी, हिंदी और उर्दू समाचार पत्रों ने क्विंस बैटन रिले की खबर तस्वीर मुख्यपृष्ठ पर तस्वीर के साथ प्रकाशित की। लेकिन बैटन के साथ कोई खिलाड़ी नजर नहीं आया। नजर आयी जानी-मानी फिल्म अभिनेत्री नीतू चंद्रा। राज्यपाल के साथ बैटन थामे नीतू की तस्वीर ने मीडिया की सोच को सामने ला दिया। वहीं एक अंग्रेजी और उर्दू के अखबार ने राज्यपाल को फोटो से हटाकर नीतू चंद्रा को क्विंस बैटन के साथ की तस्वीर को मुख्यपृष्ठ पर प्रकाशित किया। आश्चर्य की बात यह है कि रिले के दौरान क्विंस बैटन को थामने वालों में कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी मौजूद थे, लेकिन उनकी तस्वीर बैटन लिये हुए मुख्यपृष्ठ पर खबर नहीं बनी? एक बार फिर मीडिया ग्लैमर सेलिब्रेटरी के आगोश में समा गया। खेल प्रेमी हताश हुए, निराश हुए।

मीडिया के इस रवैये को लेकर खेल पत्रकारों और खेल प्रेमियों के पेट में गुदगुदी भी हुई। लेकिन गुदगुदी से उठी हंसी में मीडिया के रवैये के प्रति गुस्से का इजहार था, पीड़ा थी। मीडिया के अंदर और मीडिया के बाहर सवाल यहां उठता है किसका मीडिया? जी हां, जिसका मीडिया है, मालिक का – तो वह चीजों को अपनी तरह से ही लोगों के सामने परोसेगा ही? न कि जनता से पूछकर? स्वीटीः हाई प्रोफाइलः के पेट में दर्द होता है तो मीडिया खबर को उछाल-उछाल कर बवाल मचा देती है जबकि कजरी: गरीब-गुरबाः के पेट में दर्द होता है तो उसे नोटिस तक नहीं लिया जाता। मीडियाकर्मियों का मालिक कहता है कि उसे सुंदर चेहरे दिखाना है, सेलिब्रेटरी को दिखाना है। जो बिके, उसे खबर बनानी हैं। हो यही रहा है। मटुक-जूली की प्रेम कहानी, राखी-मीका की लड़ाई, अभिषेक व धोनी की शादी, कमिश्नर के कुत्ते, बिल्ली के छज्जे पर चढ़ जाने सहित कई खबरें हैं, जिन्हें मीडिया ने जमकर बेचा। वही जनहित की खबरें आयीं भी तो महज दिखावे के लिए।

Sunday, April 11, 2010

नक्सलियों के अबतक के सबस

हम अपने ही लोगों के खिलाफ युद्व नहीं छेड़ सकते। यह बात केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम ने नक्सलियों के लिए कही थी। परंतु,आज जब नक्सलियों ने अबतक के सबसे बड़े नरसंहार को अंजाम दिया,जिसमें 73 केंद्रीय सुरक्षा बल के जवान शहीद हो गये।चिदंबरम ने इस घटना को आश्चर्यजनक और दुखद बताया।उन्होंने यह भी कहा कि नक्सलियों के इस खूनी खेल ने माओवादियों की निरदयता और उनकी बढ़ी हुई क्षमता को दरशाती है। नक्सलियों ने सरकार के ऑपरेशन ग्रीन हंट को एक नहीं दो नहीं तीन बार झटका दिया है।15 फरवरी को नक्सलियों ने बंगाल के मिदनापोर जिले में ईस्टर्न राइफल्स के 24 जवानों को मौत के घाट उतार दिया था।। अभी दो दिन पहले ही,नक्सलियों ने उड़ीसा के कोरापुट जिले में 11 सुरक्षा कर्मियों को लैंडमाइन धमाके में मार गिराया था। और आज दंतेवाड़ा जिले के मुकराना के जंगल में घात लगाकर किये गये हमले में 73 सीआरपीएफ जवानों के साथ खून की होली खेली है।यह हमला केंद्र सरकार के नक्सलियों के प्रति रवैये पर सवालिया निशान उठाते हैं। साथ ही साथ ऑपरेशन ग्रीन हंट की पोल भी खोलता है। और कितनी जानों के बाद यह सिलसिला थमेगा। बहुत हो गया। अब वक्त आ गया है कुछ कडे कदम उठाने का। वरना इस समस्या का हल निकले वाला नहीं है। जो मारे गये है वो भी हमारे अपने ही थे।देश के छह जिलों में माओवादियों ने अपनी पैठ बना ली है। आंध्र प्रदेश व महाराष्ट्र को छोड़कर अन्य जगाहों पर बिहार,झारखंड,दक्षिण बंगाल और उड़ीसा में तो उनकी समानांतर सरकार चल रही है। सिर्फ इतना कह देना ही नक्सली समस्या देश की आंतरिक सुरक्षा को खतरा है, काम नही चलेगा। सुरक्षा एजेंसियों के मुताबिक भारत के पड़ोसी देश चीन और पाकिस्तान नक्सलियों की मदद से देश में अस्थिरता पैदा करना चाहते हैं।चीन और पाकिस्तान से ही उन्हें आर्थिक मदद और आधुनिक हथियार मुहैया कराये जा रहे हैं। स्थिति और भी बिगड़ जाये, इससे पहले नक्सलियों को भी आतंकियों की तरह कुचलना होगा। इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों को एकजुट होकर कोई मजबूत कदम उठाना होगा। समय आ गया कि सरकार आर्मी को नक्सलियों का सफाया करने का जिम्मे देदे। सरकार को अब जवाब देना होगा की नक्सलियों के प्रति उसके रवैये में क्या बदलाव आयेगा। केद्र सरकार और उनके काबिल गृहमंत्री पी चिदंबरम अपने नक्सली विरोधी अभियान में फिलहाल तो पूरी तरह से असफल रहे हैं। नक्सली क्षेत्रों में तैनात सुरक्षा कर्मियों में भी डर का माहौल है। उनके हौंसले को बढ़ाने के लिए,सरकार को माओवादियों के खिलाफ युद्व की घोषणा करनी ही होगी।

Friday, March 26, 2010

हाँ कर दे !

कभी चाहते थे इतना कि हम उनके दिल-ए-अजीज़ थे ।
आज देखना भी गवारा नहीं करते ।।
हमसे क्या हुई ख़ता इतना तो बता दे ।
रहमत होगी अगर तू पास आये ।।
मैं हर मुिश्कल से लड़ लेता ।
तुम अगर साथ देते ।।
ऐ दोस्त आजा तू एक बार ।
स्ुना सुना सा है दिल मेरा ।।
बस कह दे तू हाँ मेरे यार एक बार ।
दूर ही सही कि तू मेरे पास है ।।
हवाएं ले आयेंगी तेरी खुश्बू ।

Monday, March 22, 2010

क्या मैं महिला आरक्षण विरोधी हूँ ?

आखिरकार जैसी आशंका सबको थी वही हुआ और एक बार फिर मुश्किल बाधा दौड़ पार करने के बाद आम सहमति के नाम पर कांग्रेस ने महिला आरक्षण बिल की आसान बाधा दौड़ पूरी करने से इनकार कर दिया। ज्यादातर लोग यही कहेंगे कि ये तो होना ही था। लेकिन, क्यों। इसका जवाब ज्यादातर लोग यही देंगे कि कांग्रेस यही चाहती थी। लेकिन, क्या कांग्रेस और देश की सबसे ताकतवर महिला सोनिया गांधी भी यही चाहती थीं। जवाब कड़े तौर पर ना में हैं। वैसे तो, ज्यादातर टीवी चैनलों और अखबारों ने बिल के राज्यसभा में पास होने को सोनिया गांधी का निजी संकल्प बताया ही लेकिन, मुझे एक सांसद ने जब ये बताया कि प्रणव बाबू तो, बिल के खिलाफ थे। उन्होंने कहाकि सरकार चली जाएगी, बावजूद इसके सोनिया ने कहा- सरकार जाती है तो, जाए- बिल पास कराइए। फिर कौन क्या कहता और बिल राज्यसभा में पास हो गया। फिर बिल में अड़ंगा क्यों लग रहा है। सरकार को इस मसले पर बीजेपी, लेफ्ट का पूरा समर्थन है। लेकिन, दरअसल इसी में महिला आरक्षण के अंटकने की असली वजह छिपी है।

कांग्रेस और बीजेपी भले ही व्हिप जारी करके अपने सांसदों को महिला आरक्षण पर वोट डालने के लिए राजी कर लें, सच्चाई ये है कि कांग्रेस-बीजेपी दोनों के बहुतायत सांसद महिला आरक्षण के विरोधी हैं। इसीलिए लालू प्रसाद यादव के ये कहने पर कि 90 प्रतिशत कांग्रेसी सांसद कह रहे हैं कि महिला आरक्षण डेथ वारंट है, इससे बचा लीजिए तो, भी कांग्रेस की ओर से इसका कोई कड़ा प्रतिकार नहीं आय़ा। ये तो हुई महिला आरक्षण के अंटकने की बात लेकिन, क्या महिला आरक्षण मिल जाए तो, लोकतंत्र सुधर जाएगा। संसद की 33 प्रतिशत सीटों के जरिए उनको उनका हक मिल जाएगा। जवाब ईमानदारी से खोजेंगे तो, साफ पता चलेगा कि जवाब ना में है।

महिला आरक्षण कांग्रेस और बीजेपी दोनों के लिए उबले आलू की तरह है जो, न तो उगलते बन रहा है न निगलते। लेकिन, ये राष्ट्रीय पार्टियां हैं और इनके बड़े नेताओं को भरोसा है कि किसी न किसी सीट से वो तो, जीतकर संसद में पहुंच जाएंगे। डरे छोटे नेता जो, टिकट के लिए संघर्ष करते और अपनी जमीन बताने निपट जाते हैं उन्हें ये आरक्षण अपनी गर्दन पर रखी छुरी की तरह लग रहा है। और, सच्चाई भी यही है कि ये आरक्षण देश में लोकतंत्र का इतिहास बदलेगा लेकिन, साथ में लोकतंत्र का मखौल बनाने का जरिया भी बन जाएगा।

अब सोचिए जरा महिला आरक्षण मतलब 100 में से 33 सीटों पर सिर्फ महिलाएं लड़ेंगी, पुरुषों को लड़ने का हक ही नहीं होगा। यानी प्रतिस्पर्द्धा से नेतृत्व निखरने की लोकतंत्र की पहली शर्त पर ही महिला आरक्षण चोट करेगा। जाहिर है महिलाओं के लिए आरक्षित लोकसभा सीट पर कोई पुरुष नेता नहीं बनना चाहेगा और वो, क्षेत्र के लिए चिंता बिल्कुल ही छोड़ देगा। और, चूंकि ये आरक्षण रोटेशनल आधार पर यानी एक बार ये लोकसभा तो, दूसरी बार बगल वाली लोकसभा को महिलाओं के लिए आरक्षित कर दिया जाएगा। तो, जाहिर है जाने-अनजाने इन क्षेत्रों से स्वाभाविक नेतृत्व ही खत्म होता जाएगा। इस आरक्षण का फायदा उन सामंती परिवारों को आसानी से मिल जाएगा जो, राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक-अपराधिक तौर पर पहले से बेहद बलशाली भूमिका में हैं। होगा ये कि अपराधियों को खत्म करने की संभावना दिखाने वाला ये महिला आरक्षण, महिलाओं की आड़ में अपराध रक्षण का बड़ा हथियार बन जाएगा। ये दलिता, पिछड़े आरक्षण की तरह नहीं है। जरा सोचकर बताइए ना किस बाहुबली सवर्ण या फिर बाहुबली दलित-पिछड़े के घर की महिलाओं को उनका अधिकार न देने की ताकत सामान्य लोगों में होती है। किसी राजनीतिक तौर पर प्रभावशाली परिवार चाहे वो, जिस जाति का हो, उस परिवार की महिलाओं का हक भला कौन मार रहा है या मार सकता है।

मुझे चक दे इंडिया फिल्म का वो, दृश्य याद आ रहा है जिसमें महिला हॉकी टीम कड़े मुकाबले में पुरुषों से हार जाती है लेकिन, ऐसा जज्बा उनके दिलो दिमाग में घर कर जाता है कि वो, वर्ल्ड कप हासिल करके लौटती हैं। मेरा तर्क ये है कि अगर महिलाओं को सही मायनों में पुरुषों के बराबर हक देने की बात हो रही है तो, महिलाओं के लिए अलग कोना खोजकर उन्हें कमजोर ही बनाए रखने की और देश में नेतृत्व खत्म करने वाला ये बिल क्यों लाया जा रहा है।

तर्क ये आता है कि महिलाओं को आरक्षण मिलेगा तो, कम से कम 33 प्रतिशत सीटों पर महिलाएं तो, आएंगी। और, इससे लोकसभा का माहौल सुधरेगा। ये आरक्षण के बूते संसद में पहुंची महिलाएं कैसे माहौल सुधार पाएंगी। वो, भी ज्यादातर ऐसी होंगी जो, बमुश्किल ही अपनी ही पार्टी में मौजूद नेता पति की आज्ञा की अवहेलना कर सकेंगी। और, अगर महिलाओं को आरक्षण दिए बिना उनका हक नहीं मिलेगा ऐसी सोच है तो, पुरुषों के साथ मैदान में ताल ठोंककर सबको चित करने वाली भारतीय राजनीति में सबसे ताकतवर (महिला या पुरुष) सोनिया गांधी जैसा नेतृत्व आरक्षण से पैदा होने की उम्मीद हम कैसे पाल पाएंगे। भले ही सोनिया के नाम के आगे गांधी लगा हो लेकिन, जिस तरह विदेशी मूल की बहती विरोधी बयार के बीच इस महिला ने खुद को साबित किया है वो, दिखाता है कि नेतृत्व चाहे महिला का हो या पुरुष का बिना प्रतियोगी माहौल के बेहतर नहीं हो सकता है।

लोकसभा में भाजपा नेता सुषमा स्वराज और कम्युनिस्ट पार्टी की पहली महिला पोलित ब्यूरो सदस्य वृंदा करात ही भला किस महिला आरक्षण से इतनी प्रतिभा जुटा पातीं। किस पुरुष राजनेता में इतनी ताकत है कि वो मायावती, ममता बनर्जी, जयललिता को खारिज करने का साहस जुटा सके। महिलाएं लोकसभा-विधानसभा में चुनकर आएं समस्या इससे नहीं है। समस्या इससे है कि संसद-विधानसभा में पहुंचने का लॉलीपॉप देकर महिलाओं के लिए एक अलग कमजोर कोना तैयार कर दिया जाए। समस्या इससे है कि महिलाओं को उनका हक देने के परदे के पीछे हमेशा महिलाओं को पुरुषों से कमजोर साबित कर दिया जाए।

लालू-मुलायम के भले ही इसके विरोध में अपने दूसरे हित छिपे हों। लेकिन, मुलायम की ये बात ज्यादा दमदार लगती है कि पार्टियों को खुद से क्यों नहीं महिलाओं को टिकट देना चाहिए। चुनाव आयोग उनकी मान्यता समाप्त करने का डर भी उन्हें दिखा सकता है। टिकट के दंद फंद में महिलाएं न फंसें ये तो, फिर भी जायज माना जा सकता है चुनावी दौड़ में आधी आबादी पुरुषों को लड़ाई से ही बाहर कर दिया जाए ये तो, एक नई विसंगति पैदा करने की कोशिश है।

राजनीति में ही नहीं कॉरपोरेट और दूसरे क्षेत्रों में जिन महिलाओं ने बिना आरक्षण के अपना मुकाम बनाया है उनकी ताकत सब मानते हैं वरना तो, ज्यादातर बॉसेज की सेक्रेटरी का पद महिलाओं के लिए ही आरक्षित होता है। लेकिन, क्या वो महिला को उसका हक दिला पाता है। क्या वो, महिला सशक्तिकरण के दावे को मजबूत करता है। बिल्कुल नहीं। महिला सशक्तिकरण का दावा मजबूत होता है। पेप्सिको चेयरमैन इंदिरा नूई के कामों से, ICICI बैंक की CEO चंदा कोचर से, HSBC की नैना लाल किदवई से, पहली महिला IPS अधिकारी किरण बेदी को देखकर महिलाओं को मजबूती मिलती है। ये लिस्ट इतनी लंबी है कि किसी के लिए उसे एक जगह संजोना मुश्किल है।

इसलिए भारतीय राजनीति में महिला आरक्षण के लिए जरिए सामंती परंपरा को और मजबूत करने की कोशिश का विरोध होना चाहिए। भारतीय नेतृत्व को कमजोर करने की इस कोशिश का विरोध होना चाहिए। महिलाओं को पुरुषों की प्रतियोगिता से बचाकर उन्हें पुराने जमाने में ठेलने की इस कोशिश का विरोध होना चाहिए। राजनीति में महिलाओं को उनका हक देना ही है तो, कांग्रेस-बीजेपी अगले किसी भी चुनाव में 33 प्रतिशत क्या पचास प्रतिशत महिलाओं को टिकट देकर महिला सशक्तिकरण पर अपना भरोसा दिखा सकती हैं। किसी अपराधी, बाहुबली, धनपशु के खिलाफ किसी भी महिला को शायद ज्यादा लोगों का समर्थन मिल जाएगा। सोचिए क्या महिला आरक्षण देश में एक अजीब विसंगति की जमीन नहीं तैयार कर रहा है। इसलिए महिलाओं के हक के लिए महिला आरक्षण का विरोध कीजिए। क्योंकि, सच्चाई यही है कि अगर महिलाओं की सीट आरक्षित हुई तो, ये प्रभावशाली लोगों (राजनैतिक-आर्थिक-अपराधिक) के पूरे परिवार को आसानी से संसद और विधानसभा में पहुंचने में मदद करेगा।

ये विकास है या पतन ?......

किसी भी समाज की पहचान वहां के साहित्य और आसपास के माध्यमों की रंगत देखकर पहचाना जा सकता है। अकसर हम इस बात की चर्चा तो करते रहते हैं कि देश में हर क्षेत्र में गिरावट आ रही है। क्या नेता, क्या पत्रकार, क्या न्यायपालिका, क्या प्रशासन, व्यापारी और क्या .. कोई भी, सबका स्तर दिनोंदिन गिरता जा रहा है। अब सवाल ये है कि जिसे हम समाज की गिरावट मानकर चल रहे हैं कि उसे क्या सचमुच समाज गिरावट मान रहा है या ये पुराने-नए का ऐसा फर्क हो गया है कि नए के जीने के तरीके को पुराने लोग समाज की गिरावट मानकर खारिज कर रहे हों। पता नहीं हम तो पीढ़ी के लिहाज से न तो अतिआधुनिक में हैं न पुरातनपंथी। तो, सबसे ज्यादा भ्रमित भारत हम जैसे लोग ही हैं।

UTV Bindass चैनल पर एक शो आजकल आ रहा है इमोशनल अत्याचार। ये फिल्म DEV D के गाने कैसा तेरा जलवा ... कैसा तेरा प्यार .. तेरा इमोशनल अत्याचार। फिल्म में अभिनेता के इमोशनल अत्याचार में ढेर सारी लड़कियों के साथ संबंध थे तो, बिंदास के शो में लड़की या लड़का अपने प्रेमी की परीक्षा लेता है जिसमें अकसर लड़की का प्रेमी चैनल की हीरोइन के चक्कर में फंस ही जाता है। ये एक नमूना है। इसी चैनल की नई प्रोमो लाइन में एक लड़की कहती है कि बिंदास हूं इसका मतलब ये तो नहीं कि मैं सबके साथ सोने के लिए तैयार हूं। ऐसी ही लड़का कहता है कि मैं बिंदास हूं इसका मतलब ये नहीं कि मैं ड्रग्स लेता हूं।

सबसे ज्यादा सुना जाने वाले रेडियो स्टेशन का दावा करने वाला RED FM का स्लोगन है ये आप के जमाने का रेडियो स्टेशन है, बाप के जमाने का नहीं। आप के जमाने का रेडियो स्टेशन साबित करने के लिए गाने के बीच-बीच में रेडियो जॉकी सवाल पूछता रहता है कि क्या आपको लगता है कि रियलिटी शोज हमारी संस्कृति भ्रष्ट कर रहे हैं या फिर क्या आपको बड़े होकर डॉक्टर, इंजीनियर या वकील बनना है तो, काइंडली कट लीजिए क्योंकि, ये आज के जमाने का रेडियो स्टेशन है बाप के जमाने का नहीं। वैसे तो, ये सुनते वक्त बस बिंदास रेडियो जॉकी की चुहलबाजी या रेडियो स्टेशन की मस्ती भर लगती है लेकिन, थोड़ा ध्यान से सुनें तो, समझ में आता है कि ये सचमुच कैसे हंसते-गाते हमारी संस्कृति का बैंड बजा देते हैं।

RED FM पर गाने सुनते हुए मैं वैलेंटाइन डे के आसपास सफर कर रहा था। रास्ते में एक रेडियो डॉकी का नाम सुना तो, दंग रह गया। उसने चहकते हुए बताया मैं हूं हरामखोर अविनाश। वो, पूरे कार्यक्रम के दौरान लड़के-लड़कियों से अपनी हरामखोरी साबित करने को कह रहा था। और, हरामखोरी मैसेज करने के लिए नंबर भी बता रहा था साथ ही ये प्रलोभन भी कि अगर हरामखोरी जंची तो, वैलेंटइन डे पर वो, बेहतरीन हरामखोरी भेजने वाले लड़के या लड़की को स्टूडियो बुलाएगा। वैलेंटाइन डे के शो का नाम भी था लगी लव की। लव की लगती भी है ये पहली बार सुना।

विज्ञापन भी कुछ इसी तरह से बदलते जमाने के लड़के-लड़कियां तैयार कर रहे हैं। सुरीले जिंगल और प्रति सेकेंड प्लान के साथ मोबाइल बाजार में उतरा टाटा डोकोमो का विज्ञापन में एक लड़का-लड़की साथ बैठे हैं। लड़के की नजर एक दूसरी लड़की पर पड़ती है और वो, लड़की को बातों में फंसाकर दूसरी लड़की के साथ जरा मस्ती के चक्कर में उठता है जाते समय देखता है कि उसकी गर्लफ्रेंड ने दूसरा ब्वॉयफ्रेंड पकड़ लिया। थोड़ा सा वो, हतप्रभ दिखता है फिर मुस्कुराता है और नई गर्लफ्रेंड के साथ चल देता है। पीछे से टाटा डोकोमो का संदेश सुनाई देता है when everyday there is new plan then why take fix mobile plan. Tata docomo daily plan. ये नए जमाने का दर्शन हम जैसे लोगों को डरा रहा है। शायद हम पुरातनपंथी हो रहे हैं क्या पता नहीं।

Friday, March 12, 2010

होली खेलना मना है .................
पिछले दिनों कालेज परिसर में होली खेलने के जुर्म में कुछ विद्यार्थियों के पहचान पत्र ले लिए गए.....क्यों हिल गए न कि भारत में भी ऐसा हो सकता है ....जी हाँ जामिया मिल्लिया इस्लामिया में होली के पहले कुछ विद्यार्थियों ने एक दुसरे को रंग गुलाल लगाने शुरू किये ।कुछ देर बाद ही गार्ड ने आ कर उन सभी विद्यार्थियों को पहचान पत्र देने को कहा , इससे पहले कि वो लोग कुछ समझ पाते उन्हें प्रोक्टर के पास ले जाया गया । विद्यार्थियों ने बताया भी कि उन्हें नहीं पता कि जामिया में होली खेलना मन है ,नाहीं कही नोटिस लगे गई थी,लेकिन उन्हें तुरंत घर चले जाने को कहा गया। छात्रों के सामने ही एक गार्ड ने वारलेस से सभी गार्डों को सुचना दी कि कैम्पस में घूमते रहो अगर कोई होली खेलता दिखे तो पकर के ले आओ । खैर ..छात्र बिना आई कार्ड के ही वापस आ गए ।
होली के बाद उनके आई कार्ड डिपार्टमेंट में ये कह कर भेज दिया गया कि ये लोग शोर मचा रहे थे जिससे दूसरी class disturb हो रही थी जबकि वहां एक ही क्लास हो रही थी वो भी दूर ...... मामले पर लिपा-पोती करने के लिए झूट का सहारा लिया जा रहा है। बेचारे विद्यार्थी सोच-सोच के परेशान हो रहे हैं कि जब उसी परिसर में ईद पर गले मिल सकते हैं ,इफ्तार कर सकते हैं, यहाँ तक कि डिपार्टमेंट कि तरफ से इफ्तार पार्टी का आयोजन किया जाता है .........तो फिर होली खेलने पे उनके साथ ऐसा क्यूँ हुआ? जबकि जामिया को गंगा-जमुनी तहज़ीब के लिए जाना जाता है । इस घटना के बाद गंगा-जमुनी तहज़ीब कि पोल खुलती नज़र आ रही है। आपकी क्या राय है हमे ज़रूर बताएं.......

Friday, March 5, 2010

उठो ,जागो और आगे बढ़ो ........

मित्रो, मार्च आते ही परीक्षा का दौर शुरू होता है. बोर्ड की परीक्षाएं शुरू हो चुकी हैं. सभी विद्यार्थियों और उनके माता-पिता के लिए ये एक महत्वपूर्ण दिन होते हैं. मैं, देश के भविष्य, अपने उन सभी युवा मित्रों को जो कि कक्षा X और XII की परीक्षा में बैठेंगे उन्हें शुभकामनाएं देता हूँ. सभी उपलब्धियों की जड़ों में अथक परिश्रम, लगन और समर्पण होते है. जीवन की इस यात्रा में हमें मिली सभी सीखों का परीक्षण होता रहता है. इस मायने से हम सभी विद्यार्थी हैं. यहाँ मैं स्वामी विवेकानंद की कुछ पंक्ति quote करना चाहता हूँ: "उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्ति तक मत रुको." परीक्षाएं तो जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है. अपनी चिंताओं को पीछे छोड़; ज्ञान के लिए जुट जाओ परिणाम अपने आप आयेंगे. मैं success का अपना मूल मंत्र आपसे share करना चाहता हूँ: "Desire + stability = Resolution. Resolution + Hard work = Success". मुझे पूरा विश्वास है की आप सभी देश के उज्वल भविष्य के लिए अपना योगदान देने में सक्षम है. पुनः मेरी ओर से शुभकामनाएं.
शिवेन्दु राय

Thursday, March 4, 2010

आदिवासी लड़कियों के साथ रोज़ एक शाइनी

छत्तीसगढ़ की नाबालिग लड़कियों को महानगरों में घरेलू नौकरानी का काम देने के झांसे से ले जाने के बाद उन्हें अंधेरी कोठरी में ढ़केल देने का खेल सालों से चल रहा है लेकिन शाइनी आहूजा प्रकरण से यह सवाल फिर खड़ा हो गया है. अगर जशपुर, सरगुजा और कोरबा के गांवों में आप जाएं तो आपको इन इलाकों से गायब आदिवासी लड़कियों के साथ हर रोज़ एक शाइनी के किस्से मिल जाएंगे.
इसे संयोग ही कहा जाएगा कि जिस समय शाइनी आहूजा प्रकरण चर्चा में था, उसी समय लड़कियों की मंडी के कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ के जशपुर में मुंबई पुलिस का एक दल बंधक बनाई गई लड़की को छोड़ने के लिए आया हुआ था.कुछ उत्साही पत्रकारों ने अपनी कल्पना शक्ति का सहारा लिया और छत्तीसगढ़ के अख़बारों में 19 मार्च को सुर्खियां रही कि मुम्बई के फिल्म स्टार शाइनी आहूजा ने जिस लड़की से बलात्कार किया, वह छत्तीसगढ के जशपुर जिसे के अंतर्गत आने वाले डूमरटोली गांव की रहने वाली है. जैसा कि जशपुर के पुलिस अधीक्षक अक़बर राम कोर्राम बताते हैं- “ शाइनी आहूजा प्रकरण के बाद मुम्बई से पुलिस की एक टीम डूमरटोली आई थी, लेकिन इसका शाइनी प्रकरण से कोई सम्बन्ध नहीं है. वह एक लड़की को मुम्बई से यहां छोड़ने पहुंची थी, जो पिछले 9 मार्च से गायब थी. इस लड़की का नाम गायत्री है और वह अपनी एक सहेली अनीमा के बहकावे में आकर मुम्बई चली गई थी.” अनीमा के कुछ परिचितों के ज़रिये गायत्री का पता चला और उसे डूमरटोली लाकर उनके परिजनों को सौंप दिया गया. लड़कियों को ट्रैफेकिंग से बचाने और उन्हें सीमित साधनों के बीच दिल्ली, मुम्बई, गोवा जैसे महानगरों से छुड़ाकर लाने वाली जशपुर की सामाजिक कार्यकर्ता एस्थेर खेस का कहना है कि शाइनी प्रकरण के बीच मुम्बई की पुलिस का जशपुर पहुंचने से यह फिर साफ़ हो गया है कि वहां बड़ी तादात में घरेलू नौकरानियों के रूप में काम करने वाली लड़कियां छत्तीसगढ़ से गई हुई हैं. हज़ारों शिकार सुश्री खेस कहती हैं कि शाइनी ने जिस लड़की को शिकार बनाया वह गायत्री तो नहीं है, लेकिन हमारे पास दर्जनों ऐसे मामले हैं जिनमें सबूत है कि जशपुर की लड़कियों को घरेलू काम कराने के बहाने से न केवल देश के भीतर बल्कि कुवैत और जापान तक ले जाए गए.
दिल्ली और गोवा जा पहुंची कई लड़कियों का सालों से पता नहीं है और उनके मां-बाप दलालों के दिए फोन नम्बर और पतों पर सम्पर्क नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि इनमें से ज़्यादातर फर्ज़ी हैं. लड़कियों को ले जाने के बाद प्लेसमेंट एंजेंसियों के दफ्तरों में फिर कोठियों में इन लड़कियों को 24 घंटे रखा जाता है. जब घर में पुरूष सदस्य अकेले होते है तो उनके साथ बलात्कार किया जाता है. इनको ठीक से भोजन, कपड़ा तक नहीं मिलता, इन्हें कोई छुट्टी नहीं मिलती. इनका वेतन दलालों के पास जमा कराया जाता है. लड़कियों को अपने घर लौटने का रास्ता पता नहीं होता इसलिये वे सारा ज़ुल्म चुपचाप सहती हैं. सुश्री खेस का यह भी कहना है कि दिल्ली में 150 से ज्यादा प्लेसमेंट एजेंसियां काम कर रही हैं जो झारखंड, पश्चिम बंगाल और उत्तर छत्तीसगढ़ से लड़कियों को बुलाते हैं. इनके एजेंट का काम इन लड़कियों के वे रिश्तेदार करते हैं, जो कई साल पहले से ही इन महानगरों में काम कर रहे होते हैं. नया ट्रैफेकिंग कानूनछत्तीसगढ़ महिला आयोग की अध्यक्ष विभा राव राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष गिरिजा व्यास के इस बयान से सहमत हैं कि गरीब नाबालिग लड़कियों को शोषण का शिकार होने से बचाया जाए. श्रीमती राव को यक़ीन है कि अब देशभर में घरेलू नौकरानियों की सुरक्षा को लेकर नई बहस छिड़ेगी. उनका कहना है कि इस समस्या से छत्तीसगढ़ सर्वाधिक प्रभावित राज्यों में से एक है, इसलिय़े वे चाहती हैं कि ट्रैफेकिंग को लेकर भी मौजूदा कानूनों की समीक्षा की जाए और इसे रोकने के लिए प्रावधान कड़े किए जाएं. श्रीमती राव ने शाइनी आहूजा प्रकरण में छ्त्तीसगढ़ की लड़की के शिकार होने की अफवाह के बाद जशपुर कलेक्टर और एस पी को पत्र लिखकर पूरे मामले का प्रतिवेदन देने के लिए भी कहा है. वास्तव में घरेलू नौकरानियों की सुरक्षा व ट्रैफेंकिंग रोकने के ख़िलाफ एक कानून पिछली सरकार में ही बन जाना था. तत्कालीन केन्द्रीय महिला बाल विका मंत्री रेणुका चौधरी ने जून 2007 तक इस कानून का ख़ाका तैयार करने के लिए देशभर में सक्रिय महिला संगठनों से सुझाव मांगा था. लेकिन प्रस्ताव भेजने के बाद क्या हुआ यह किसी को नहीं मालूम. ट्रैफेंकिंग के ख़िलाफ ही काम कर रहीं कुनकुरी की अधिवक्ता सिस्टर सेवती पन्ना का कहना है कि उनसे भी सुझाव मंगाए गए थे लेकिन उसका क्या हुआ उन्हें पता नहीं. इसमें उन्होंने महानगरों से छुड़ा कर लाई जाने वाली लड़कियों के पुनर्वास के लिए भी पुख़्ता उपाय सुझाए थे, क्योंकि देखा गया है कि महानगरों में रहकर लौटने वाली लड़कियां गांवों में व्यस्त न होने के चलते विचलित रहती हैं. वे यहां दुबारा घुल-मिल नहीं पाती और दुबारा महानगरों की तरफ भागने का रास्ता तलाश करती हैं.बहरहाल, शाइनी आहूजा प्रकरण ने एक मौका और दिया है कि छत्तीसगढ़, झारखंड, पश्चिम बंगाल से तस्करी कर महानगरों में भेजी जा रही लड़कियों की सुरक्षा के लिए ज़रूरी कदम उठाएं जाएं.

Wednesday, February 17, 2010

Ii दलित साहित्य आन्दोलन का औचित्य ii

शिवेन्दु राय
यूं तो हिन्दी में दलित साहित्य की बुनियाद के तौर पर कबीर, दादू, रैदास, पीपा, सेन, रविदास आदि का नाम चिन्हित किया जा चुका है और दलित साहित्य के प्रणेता दलित साहित्य के संदर्भ में उन पर दलित दृष्टिकोण से अनुसंधान में लगे हुए हैं किन्तु आधुनिक दलित साहित्य की शुरुआत मराठी भाषा में रचित साहित्य से मानी जा रही है जिसकी प्रेरणा की पृष्ठभूमि में संतकवि नामदेव, चोखामिला, ज्ञानेश्वर, समर्थ रामदास, तुकाराम, एकनाथ आदि हैं।

आधुनिक दलित साहित्य आंदोलन ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले और डा. अम्बेडकर द्वारा चलाए गए सशक्त सामाजिक आंदोलन के परिणामस्वरूप उभरा है। ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले ने पहले पहल दलितों की खासतौर से दलित स्त्रियों की शिक्षा का आंदोलन चलाया। उन्होंने दलितों के उत्थान और सामाजिक सम्मान के लिए स्वयं पर अनेकानेक अत्याचार सहकर भी जागृति की एक लहर पैदा की। डा. अम्बेडकर ने उनके द्वारा तैयार जमीन पर व्यापक दलित चेतना के बीज बोये और परिणामस्वरूप, उनके जीवन काल में ही सशक्त सामाजिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक दलित आंदोलन अस्तित्व में आया। इस आंदोलन की जबरदस्त अभिव्यक्ति के रूप में भारतीय साहित्य के दृश्य पटल पर दलित साहित्य उपस्थित हुआ और सतह पर दिखाई पड़ने लगा। जल्द ही इसका प्रभाव हिंदी भाषा पर भी पड़ा। आज वर्तमान हिंदी साहित्य में दलित लेखन के उभार और उसके निरंतर विकास से इंकार नहीं किया जा सकता है। दलित साहित्य के इस जबरदस्त उभार ने भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों और आलोचकों में एक हलचल पैदा कर दी है जिससे उनका ध्यान इस ओर आकर्षित हुआ है। किन्तु इसके साथ ही यह भी सच है कि स्वयं दलित साहित्य आंदोलन और दलित रचनाकारों को वैचारिक स्तर पर अनेक अन्तरनिहित अन्तर्विरोधों का सामना भी करना पड़ रहा है।

जाति से दलित ही दलित साहित्यकार है

इस प्रस्थापना के अनुसार किसी साहित्यकार को दलित साहित्यकार होने के लिए यह अनिवार्य है कि वह दलित जाति में पैदा हुआ हो। किन्तु अभी भी यह मसला काफी बहस की गुंजाईश रखता है कि आखिर दलित कौन है? दलित साहित्य की मुख्यधारा के चिंतकों का मानना है कि दलित साहित्यकार वही है जो जाति से दलित है। वे दलित साहित्य को व्यापक अर्थों में न देखकर दलित जाति के संदर्भ में ही देखते हैं किन्तु वहां भी ‘दलित’ शब्द की व्याख्या को लेकर अस्पष्टता है। वे दलितों में उभर रहे अभिजातीय व शोषक वर्ग के उभार को दरकिनार ही करते आ रहे हैं किन्तु दलित साहित्य के चिंतकों की दूसरी धारा दलित शब्द के व्यापक अर्थ लगाती है। उनका मानना है कि किसी भी जाति या धर्म से संबंध रखने वाला व्यक्ति अगर सामाजिक और आर्थिक रूप से शोषित है तो उसे भी दलितों की एक श्रेणी के रूप में ही रेखांकित किया जाना चाहिए। आज दलितों में, खासतौर से कस्बों, नगरों और महानगरों में एक ऐसा वर्ग पैदा हो गया है जिसने गुणात्मक रूप से अच्छी सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों में जन्म लेने के कारण जातीय उत्पीड़न को बिल्कुल नहीं झेला है। इस प्रकार का दलित अन्य अमीर तबकों की तरह न सिर्फ दलितों का दुश्मन साबित हो रहा है अपितु स्वयं दलितों में ही शोषकों की एक श्रेणी को संभव बना रहा है। वह वास्तव में सत्ता का दलाल है। ऐसा दलित अगर सभी दलितों की पीड़ा को जानने, समझने और महसूस करने का दावा करता है तो इसे दलित विमर्शकार ही तय करें कि यह कितना उचित है।

अगर इस अभिजातीय और शोषक दलित को दलित साहित्य का प्रणेता माना जा सकता है तो किसी अन्य जाति में पैदा हुआ दलितवादी जनवादी लेखक को क्यों नहीं? क्या उसे दलितों का समर्थक केवल इसलिए नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि उसने दलित जाति में जन्म नहीं लिया है। यही आधार गौतम बुद्ध के संदर्भ में भी इस्तेमाल किया जाना चाहिए। गौतम बुद्ध ने राजघराने में जन्म लिया और दलित जाति से उनका दूर-दूर तक नाता नहीं था। लेकिन अपने त्याग और दलितवादी चिंतन के आधार पर वे दलितों के मसीहा बने। गौतम बुद्ध ने सभी पीड़ितों को अपने दामन में पनाह दी और उनके विहारों में अन्य जातियों के गरीबों को भी बराबरी का दर्ज़ा मिला। इसके अतिरिक्त इन्हीं विहारों में राजा, सामंत और व्यापारी लोग भी आते रहे। दलितों के जीवन की विसंगतियों पर व्यापक चिंतन और सृजन करने वाले महान साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद को भी इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए किंतु उनके प्रति दलित विचारकों का नज़रिया काफी तंग है।

जाति के आधार के संदर्भ में उन दलितों का सवाल भी उठाया जा सकता है जो धर्मान्तरण करके अन्य धर्मों में जा चुके हैं। उन धर्मों में हिंदू धर्म के विपरीत वहां उन्हें सैद्धांतिक तौर पर जाति के आधार पर छुआछात या भेदभाव नहीं झेलना पड़ा है। जातीय उत्पीड़न से मुक्ति के दलितों ने अनेक मार्ग खोजे हैं जिनमें दूसरे धर्मों में धर्मातरण भी एक प्रचलित तरीका रहा है। बुद्ध धर्म के साम्यवादी स्वरूप ने पहले पहल दलितों को अपनी ओर आकर्षित किया और हजारों दलित बौद्ध बने। इसी प्रकार जैन, इस्लाम, ईसाई, सिख व आर्य समाज आदि धर्मों में दलित धर्मातरण करके जाते रहे हैं। ऐसे लोग जिस साहित्य का सृजन करेंगे उसे किस आधार पर दलित साहित्य माना जाएगा। क्योंकि न तो वहां मनुवादी वर्ण व्यवस्था है न जाति के आधार पर दलित उत्पीड़न।

इसके अतिरिक्त यहां एक सवाल और जरूरी लगता है भले ही उसकी संभावनाएं कम हों। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि हर प्रकार का साहित्य कर्म अपने बुनियादी रूप में शोषण विरोधी और व्यापक अर्थों में सत्ता विरोधी होता है। वह समाज में व्याप्त बुराइयों की आलोचना करता है और सुखद~ मानवीय परिस्थितियों वाले समाज के निर्माण के लिए लोगों में जागृति और चेतना का प्रसार करता है। इसे विपरीत समाज में जन विरोधी या प्रगतिशील मूल्य विरोधी और सत्तापक्षी साहित्य भी खूब रचा जाता है। मान लीजिए कोई दलित साहित्यकार सत्ता के समर्थन और दलितों के विरोध में रचना करे तब क्या ऐसे साहित्य को भी दलित साहित्य केवल इसलिए माना जाना चाहिए कि उसकी रचना एक दलित साहित्यकार ने की है।

इस संदर्भ में कहना यही है कि किसी दलित साहित्यकार के लिए दलित होने की शर्त तो ठीक है किंतु ऐसे मानदंडों का होना भी जरूरी है जिनसे यह तय किया जा सके कि उसकी कौन-सी रचना दलित साहित्य मानी जाएगी और कौन-सी नहीं?
दलितों द्वारा दलितों पर रचा गया साहित्य ही दलित साहित्य

एक पत्रिका ने अपने आगामी अंक में ‘दलित साहित्य’ विशेषांक निकालने की घोषणा की थी पिछले साल। मैंने उसमें अपनी एक कहानी भेज दी और जल्दी ही वह वापस भी आ गई क्योंकि न तो उस कहानी के पात्र दलित हैं और न उसकी विषय वस्तु दलित जीवन की विसंगतियों पर प्रकाश डालती है। अधिकांश दलित विमर्शकारों द्वारा यह बात उठाई जा रही है कि केवल दलितों द्वारा दलितों की जीवन परिस्थितियों पर लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य है। यह एक संकीर्ण और अन्तर्विरोधी प्रस्थापना है। दलितों द्वारा लिखे जाने की बात तो ठीक है मगर उनका केवल दलित जीवन पर लिखने की शर्त दलित साहित्य को केवल दलित समाज और दलित उत्पीड़न के चित्रण के दायरे में कैद करने की भूल है। इससे दलित साहित्य न सिर्फ वैचारिक न सृजनात्मक स्तर पर सीमित होगा बल्कि उसका विकास भी कुंद होगा।

इस संदर्भ में संत कबीर, नामदेव, पीपा, रैदास, ज्ञानदेव, तुकाराम और एकानाथ आदि का साहित्य देखा जा सकता है। उनके जमाने में सामंतवादी व्यवस्था काफी मजबूत थी और वर्ण व्यवस्था भी। ये लोग केवल इसलिए महान कवि नहीं माने जाएंगे कि उन्होंने दलित जीवन का अपने काव्य में व्यापक चित्रण किया बल्कि वे इसलिए बड़े और महान कवि हैं कि उन्होंने पूरे समाज में व्याप्त बुराइयों और शोषणकारी व्यवस्था के विरोध में जीवन भर सशक्त सृजनकर्म किया। दलित वर्ग में जन्म लेने के बावजूद कबीर साहित्य में इक्का-दुक्का प्रसंगों के अलावा न तो दलित पात्र आते हैं और न दलित जीवन की विडम्बनाओं का ज़िक्र आता है बल्कि पूरे समाज में व्याप्त धार्मिक कटटरता, अंधविश्वास व रुढ़ियां ही उन्हें ज्यादा परेशान करती हैं। अपने संपूर्ण काव्य में वे उन्हीं पर क्रांतिकारी ढंग से प्रहार करते नजर आते हैं। फिर उपरोक्त प्रस्थापना के आधार पर उन्हें दलित साहित्य की बुनियाद कैसे माना जा सकता है?

इसके विपरीत दलित वर्ग में जन्म न लेने के बावजूद प्रेमचंद ने अपने निजी अनुभव और मानवीय संवेदना के आधार पर अपने साहित्य में न सिर्फ दलित पीड़ा का गहन चित्रण किया है बल्कि उन पर सदियों से जुल्मों-सितम की बरसात करने वाली ब्राह्मणवादी-सामंतवादी शक्तियों का न सिर्फ भंडाफोड़ किया है बल्कि उन्हें जनविरोधी साबित करते हुए उन पर निर्ममता से प्रहार भी किए हैं। याद कीजिए उनके दलितवादी होने के कारण ही हिंदी साहित्य सम्मेलन ने उन पर तमाम आरोप लगाए थे। केवल ‘कफन’ कहानी (उसको भी संकीर्ण दृष्टिकोण से परखकर) को लेकर हो हल्ला मचाने वाले दलित आलोचकों को दलित पात्रों को लेकर रची गई उनकी अन्य रचनाएं भी पढ़नी चाहिए और उन पर यथार्थवादी ढंग से विचार करना चाहिए। यह कोई सार्वभौमिक सत्य नहीं है कि दलित की पीड़ा को दलित ही जानता है और वही इसकी सही अभिव्यक्ति कर सकता है। भले ही वह दलित साहित्य हो। किसी भी उत्कृष्ट रचना के लिए केवल अनुभव ही काफी नहीं होता उसके लिए अपने समय और समाज की परिपक्व समझ, व्यापक दृष्टि, गहन मानवीय संवेदना और विलक्षण रचना शक्ति की भी आवश्यकता होती है।

फिर सवाल ये उठता है कि दलित साहित्यकार अपने रचनाकर्म को केवल जातीय शोषण तक ही क्यों सीमित करे। आज समाज में जाति के अलावा भी ऐसी सैंकड़ों समस्याएं हैं जिनसे दलितों को भी दो-चार होना पड़ रहा है। क्यों गरीबी, भुखमरी, बेकारी, भ्रष्टाचार और मंहगाई किसी दलित रचनाकार के रचनाकर्म का विषय नहीं हो सकते। क्या इन समस्याओं के चलते दलित समाज के अन्य उत्पीड़ितों से नहीं जुड़ते? क्यों एक दलित साहित्यकार अन्य उपेक्षितों की पीड़ा का चित्रण अपनी रचनाओं में नहीं कर सकता? क्यों एक दलित साहित्यकार बिना जातिगत संदर्भ दिए जो लिखे वह दलित साहित्य नहीं माना जाना चाहिए? दलित साहित्यकार क्यों समूचे आकाश पर नहीं लिख सकता है? उसके लेखन और दृष्टि को केवल जाति की सीमाओं में कैद करने वाले क्या वास्तव में दलित साहित्य के आंदोलन को आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं।

दलितों द्वारा दलितों के जीवन पर दलितों के लिए रचा गया साहित्य

दलितों में साहित्य का व्यापक प्रचार-प्रसार होने से उनमें सांस्कृतिक रूझान पैदा होगा और चेतना बुद्धि का विकास होगा। किन्तु यह कहना जितना आसान है, इसे कार्यरूप देना उतना ही कठिन है। इस समस्या का सामना जनवादी सांस्कृतिक कर्मियों को भी करना पड़ रहा है। दलित भी इससे अछूते नहीं है। उन्हें सांस्कृतिक क्षेत्र में आई जड़ता को तोड़ने के लिए व्यापक पैमाने पर कदम उठाने पड़ेंगे। पहले तो इसके लिए उन्हें दलितों में शिक्षा के व्यापक प्रसार की दिशा में काम करना पड़ेगा। अपने लेखन के दलितों में शिक्षा के व्यापक प्रसार की दिशा में काम करना पड़ेगा। अपने लेखन के दलितों में प्रसार के लिए विभिन्न सृजनात्मक तरीके इस्तेमाल करते हुए लोगों के बीच जाना पड़ेगा। दलित विचार और साहित्य संबंधी पत्र-पत्रिकाएं व्यापक पैमाने पर निकालनी होंगी। मुख्यधारा से अलग दलित साहित्य प्रकाशन की अपनी व्यवस्थाएं कायम करनी होंगी।

बहरहाल, उपरोक्त प्रस्थापना में दलित साहित्य के प्रचार-प्रसार व पठन-पाठन को दलितों तक सीमित करने का अर्थ निकलता है। यह न तो दलित साहित्य के हित में है और न दलितों के। दलित वृहत्तर समाज का अंग है। सदियों से जातिगत अपमान व भेद-भाव की जो पीड़ा दलितों ने झेली है उससे समाज के अन्य वगो± को भी परिचित होना चाहिए। दलित वर्ग तो उससे एक हद तक वाकिफ है ही। ‘केवल दलितों के लिए’ की चेपी लगाकर भी किसी दलित रचना को अन्य वगो± द्वारा पढ़े जाने से नहीं रोका जा सकता है बल्कि दलित साहित्य के व्यापक आधार के निर्माण के लिए यह जरूरी भी है कि वह समाज के अन्य वगो± तक भी पहुंचे। इससे दलित आंदोलन को दूसरे वगो± में अपने सहानुभूतिक और समर्थक मिलेंगे। दूसरे तबकों में दलित साहित्य के प्रचार-प्रसार से उसकी विवेकशीलता व गzहणशीलता बढ़ेगी व समाज के अन्य उत्पीड़ित वगो± से एकता का रास्ता खुलेगा।

दोस्त और दुश्मन की पहचान

अब इस सवाल को और नहीं टाला जा सकता है। इस सवाल पर उथले-पुथले ढंग से बहसबाजी करने के बजाए ज्यादा गहराई और व्यापकता के साथ चिंतन मनन करने की जरूरत है। अभी तक हिंदी के दलित साहित्यकार दलितों के शत्रु के रूप में ब्राह्मणवादी-सामंतवादी शक्तियों के रूप में चिन्हित कर रहे हैं। दलित विमर्श और चिंतन का यह काफी कमजोर पहलू है। इस तरफ दलित विमर्शकारों की तरफ से न तो कोई खास चिंतन हुआ है और न उनकी तरफ से सशक्त अनुसंधान ही सामने आए हैं। अधिकतर भारतीय इतिहासकारों और अर्थवेत्ताओं की इस सवाल पर अब सहमति दिखाई देती है कि भारत में न तो ब्राह्मणवादी शक्तियां मजबूत रह गई हैं और न सामंतवादी शक्तियां। इसके विपरीत भारतीय शासक वर्ग और शासन व्यवस्था पूंजीवादी शक्तियों द्वारा संचालित है। जो पिछले पचास सालों में देश को पूंजीवादी विकास के रास्ते पर काफी आगे ले आई हैं और समाज में इसका व्यापक प्रभाव दिखाई पड़ रहा है।

इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि जाति भारतीय समाज की एक कटु सच्चाई रही है और वह अब भी भले सामंतवादी विकृत मानसिकता के रूप में समाज में उपस्थित है। इसमें भी संदेह नहीं है कि वर्णव्यवस्था के कारण ही सामाजिक-आर्थिक दासता दलितों को विरासत के रूप में मिली है। जिसे वे सदियों से झेलते आ रहे हैं और आज भी किसी न किसी रूप में झेल रहे हैं। दलितों को सामाजिक सम्मान और बराबरी की बजाय जितनी घृणा और जिल्लत मिली है उससे कोई इंकार नहीं कर सकता है। किंतु आज भारतीय समाज विकास के जिस मुकाम पर खड़ा है वहां सामंतवादी शक्तियों और दलित शोषण के उनके हथियार काफी कमजोर पड़ रहे हैं। दलित विमर्शकारों को अपने दोस्तों और दुश्मनों की पहचान इसी संदर्भ में करनी चाहिए।

आजाद भारत की बागडोर बहुमत से पूंजीवादी ताकतों के हाथ में आई। सामंतवादी शक्तियां पूंजीवादी विकास के रास्ते में रुकावट थीं क्योंकि बिना उनको कमजोर किए देश को पूंजीवादी विकास के रास्ते पर नहीं ले जाया जा सकता था। अत: पूंजीवादी शासक वर्ग ने भूमि सुधार आदि कार्यक्रमों के जरिए उन पर आक्रमण किए किन्तु उनका जड़मूल से विनाश ना करके उसे अपना सहयोगी बना लिया। अत: यदाकदा सामंतवादी शक्तियों द्वारा दलितों पर अमानवीय हमलों की जो घटनाएं सामने आती हैं वह इन्हीं सामंतवादी अवशेषों द्वारा की जाती हैं जिन्हें वो समाज में अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए सरंजाम देते हैं।

पूंजीवादी विकास की दिशा में देश को ले जाने वाले शासकों ने विभिन्न कानूनों और संस्थाओं के जरिए दलितों और पिछड़ों के अधिकारों को कायम करने और उन्हें सुरक्षित रखने के प्रयास किए हैं। भारत के जनवादी आंदोलन व मजबूत दलित आंदोलन के दबावों के चलते वे ऐसा करने के लिए मजबूर हुए हैं। दलित आंदोलन के बढ़ते प्रभाव के परिणामस्वरूप संविधान में दलितों के लिए शिक्षा, रोजगार आदि मुहैया कराने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई जिससे दलितों को सामाजिक और आर्थिक स्थिति में काफी सुधार आया है हालांकि यह अभी भी कई मायनों में नाकाफी है। चाहे जो हो, आजाद भारत में दलितों की स्थिति काफी सुधरी है।
इसमें संदेह नहीं कि वर्णव्यवस्था पर चोट करके सामाजिक सम्मान हासिल करने की ओर बढ़ा जा सकता है परन्तु इसे ही आर्थिक विषमता का निदान समझना भयानक मूर्खता है। डाW. अम्बेडकर का भी मत था कि दलितों के सामाजिक सम्मान के लिए वर्णव्यवस्था का खात्मा लाज़मी है किन्तु इसमें लड़ाई अधूरी ही रहेगी अगर दलितों में उपस्थित आर्थिक निम्नता और अभाव को समाप्त नहीं किया जाता है। इसको खत्म किए बिना न तो दलितों को सामाजिक सम्मान मिल सकता है और न सच्चे लोकतंत्र की स्थापना की जा सकती है।

आज का अधिकांश दलित जातिगत विपन्नता और आर्थिक विषमता का शिकार है। दलितों में आर्थिक अभाव इतना ज्यादा है कि कुछ सेर गेहूं या कुछ रुपयों के लालच में वे अपना स्वाभिमान तक बेच डालते हैं और जनतंत्र की स्थापना में अपनी निर्णायक भूमिका को धनिकों को सौंप देते हैं। देश में पूंजीवादी शासकवर्ग ने नित नई जनविरोधी नीतियां बनाकर दलितों, पिछड़ों और पिछड़ों की हालत बद से बदतर कर दी है। आज समाज में गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी बड़े पैमाने पर फैल रही है। सरकारें, चाहे किसी भी पार्टी की हों, वे जन स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाओं से लगातार कटौती कर रही हैं! महंगाई ने गरीबों की कमर तोड़ डाली है। चारों तरफ निजीकरण का बोलबाला है। सरकारी नौकरियां इतनी कम की जा रही हैं कि उनमें आरक्षण का कोई मतलब ही नहीं रह गया है। गरीबों को विकास के नाम पर हर जगह ठोकर मारी जा रही है। शहरों की ओर ढकेलता है जहां वे अमानवीय परिस्थितियों में जीवन गुजारने को विवश होते हैं। शहरों में नित नई तकनीकें मजदूरों को कारखानों में मिलने वाले रोजगार से बाहर कर देती हैं।

इन हालातों का सबसे ज्यादा शिकार दलित वर्ग ही है। दलितों के सामने आज जाति के अलावा गरीबी, अशिक्षा, भूमिहीनता, महंगाई और बेरोजगारी जैसी समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं जिनका भौतिक आधार इस व्यवस्था में निहित है। सो, केवल ब्राह्मणवादी शक्तियों को अपना शत्रु बताना दलितों के लिए काफी नहीं है। पूंजीवादी-नव साम्राज्यवादी व्यवस्था ताकतवर दुश्मन के रूप में उनके सामने मुंह बाये खड़ी है जिसका आकलन दलित आंदोलन के लिए एकदम अनिवार्य है। पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजी और श्रम के स्थायी अन्तविरोध के कारण उनका दोस्ताना संबंध सर्वहारा संघर्ष से बनना दलित आंदोलन को व्यापक बनाएगा। सम्पूर्ण समाज की मुक्ति के आंदोलन में ही दलित आंदोलन की सार्थकता होगी उससे अलग होकर नहीं।


विचारधारा का सवाल

विचारधारा के सवाल पर अधिकतर दलित चिंतक ये बयान देते हैं कि उनका जुड़ाव केवल अम्बेडकरवादी विचारधारा से ही हो सकता है किसी अन्य विचारधारा से नहीं। ऐसा करते वक्त वे अम्बेडकरवादी विचारधारा की सीमाओं की चर्चा नहीं करते हैं। डा. अम्बेडकर ने अपने अथक प्रयासों से दलितों में सामाजिक सम्मान का आंदोलन खड़ा किया किन्तु 1951 तक आते-आते उन्हें इस बात का अहसास हो चला था कि केवल जाति अवस्था के खात्मे से दलितों का खात्मा नहीं होगा बल्कि आर्थिक विषमता के दुर्ग को भी तोड़ना होगा। इसलिए उन्होंने आर्थिक समाजवाद का सपना देखना शुरू किया। इस दिशा में वे चिंतन मनन कर ही रहे थे कि उनकी मृत्यु हो गई। रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया की स्थापना को इसी अर्थ में देखा जाना चाहिए। किंतु बाद में आर. पी. आई उनके आर्थिक समाजवाद को साकार करने के रास्ते पर नहीं बढ़ी। बसपा आदि दलितवादी पार्टियों के अजंडे पर भी आर्थिक समाजवाद लाने का सपना नहीं है। बसपा भी आज सत्ता के जिस खेल में शामिल हो चुकी है वहां उसके लिए अम्बेडकरवादी विचारधारा केवल दिखावा है।
आजाद भारत में अम्बेडकर न सिर्फ कांग्रेसी नीतियों की आलोचना करते रहे बल्कि तत्कालीन कम्युनिस्ट पार्टी और उसके व्यवहार को दलित आंदोलन की मजबूती का आधार नहीं माना। इससे यह सिद्ध नहीं होता कि वे वामपंथी विचारों के विरोधी थे बल्कि उनकी चर्चित पुस्तक ‘स्टेट एंड माइनोरिटि’ पर वामपंथी विचारों की छाप मिलती है।

1952 के आम चुनावों में अच्छी जीत हासिल करके कम्युनिस्ट पार्टी संसदीय रास्ते से समाज बदलाव की हामी बनती गई। डा. अम्बेडकर ने उसके इस रुख को अच्छी तरह से चिन्हित किया था। उनको लगता था कि वामपंथी दलित समस्या को समाज की कोई समस्या न मानकर उससे न सिर्फ आंख मींचे है बल्कि वामपंथी दृष्टिकोण से दलित समस्या का समाधान खोजने में असमर्थ साबित हो रहे हैं।

आज ऐसे दलित चिंतकों की कमी नहीं है जो अम्बेडकर को लगातार वामपंथी विचारधारा के विरोध में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं। इसमें कुछ योगदान उन तथाकथित वामपंथियों का भी है जो न मार्क्सवाद को भारतीय संदर्भ में ढाल पाते हैं और न उसे व्यवहार में उतार पाते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि अब तक वामपंथ उन ऊंची जात वालों का खिलौना बनता रहा है जो न मार्क्सवाद को ठीक से जीवन में उतार पाए और न अपनी जातीय स्थिति का त्याग कर पाए। यह उन्हीं की दोहरी भूमिका का नतीजा है कि वामपंथ आज छ्दम वामपंथ बन गया है। लेकिन खाली छदम वामपंथ का विरोध करने भर से काम नहीं चलने वाला है। दलितों को चाहिए कि वे न सिर्फ वामपंथी विचारधारा बल्कि अन्य वैज्ञानिक विचारधाराओं का भी गहन अध्ययन करें और उसे अंबेडकरवादी विचारधारा के विकास का माध्यम बनाएं। इससे उन्हें न सिर्फ छद~म वामपंथ से मुक्ति मिलेगी बल्कि वैचारिक स्तर पर दलित आंदोलन की व्यापकता बढ़ेगी।
दलितों का उत्पीड़न समाज के अन्य शोषितों के उत्पीड़न से भिन्न अवश्य हो सकता है किंतु उससे अलग नहीं हो सकता है। जाति के अलावा उनके सामने अनेक समस्याएं हैं जिन पर संघर्ष लाजमी बनता है। इस आधार पर दलितों का संघर्ष अन्य शोषितों के संघर्ष से जुड़ता है। अस्तु, दलित साहित्य आंदोलन का संबंध जनवादी साहित्य आंदोलन से बनता है।

दलितों की पीड़ा को एक वास्तविक दलित ही समझ सकता है किंतु मानवीय संवेदना और जनवादी समझ के आधार पर अन्य वर्गों के साहित्यकार भी इसे समझ और व्यक्त कर सकते हैं। अत: दलितों द्वारा रचित साहित्य को तो दलित साहित्य माना ही जाना चाहिए किंतु जनवादी लेखकों द्वारा दलित जीवन पर रचित साहित्य को भी दलित साहित्य का एक हिस्सा माना जाना चाहिए।

दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्रा अभी निर्माण की प्रक्रिया में है लेकिन उसको परखने के आधार भी वही होने चाहिए जो दुनिया के किसी भी उत्पीड़ितों के साहित्य को समझने के होंगे। इसे केवल जातीय उत्पीड़न और दलितों तक ही सीमित नहीं करना चाहिए बल्कि समाज में व्याप्त अन्य जनसमस्याओं पर भी दलितों को सोचना और रचना चाहिए। दलित साहित्य इस प्रकार वृहत~ समाज के उत्पीड़ितों के बीच भी उपयोगी हो सकता है इसलिए उनके बीच भी इसका प्रसार होना चाहिए।

अंत में, सिर्फ इतना ही कहना है कि भारतीय संदर्भों में दलित साहित्य न केवल छदमवामपंथ, जातीय उत्पीड़न, आर्थिक उत्पीड़न से मुक्ति का वैचारिक स्रोत है बल्कि जनवादी व प्रगतिशील साहित्य के फलक की व्यापकता का आधार भी है। दलित साहित्य मुक्तिकामी साहित्य है और ये समस्त वर्गों के उत्पीड़ितों के साहित्य का हिस्सा होकर ही अपनी क्रांतिकारी भूमिका को सरंजाम दे सकता है।

Thursday, February 11, 2010

।। दलित साहित्य के बहाने कुछ टीप ।।

इस समय जब मैं ‘दलित-साहित्य’ पर कुछ बोलने जा रहा हूँ तो सबसे बड़ी चिन्ता जो मुझे सताये जा रही है जानते हैं वह क्या है ? वह यह कि कहीं आप में से कोई यह न कह बैठे कि एक ब्राह्मण की दलित साहित्य पर टीका-टिप्पणी । जबकि सवर्ण के घर जन्म लेने या नहीं लेने पर मेरा कोई वश नहीं था । न ही दलित के घर जन्म लेने पर किसी अन्य का अधिकार । जबकि दलित साहित्य की पहली और खास शर्त है कि दलितों के द्वारा लिखा गया साहित्य । ऊपर से एक दूसरे की ओर भाले की नोक किये हुए साहित्यकार और उनका साहित्य । है न मेरी चिन्ता सही । क्योंकि यह समय बहुत ही विचित्रत्राओं और विरोधाभासों का समय जो है ।

चलिए, पहले अपने समय को देखते हैं । एक ओर इंसान वैश्विक ग्राम की कल्पना को साकार करने के उद्यम में है । वह सड़ी-गली, पुरानी रूढ़ियों को तिलांजलि देते हुए और आधुनिक प्रौद्योगिकी को अपनाते हुए ज्यादा से ज्यादा तर्कशील, नित्याधुनिक और विज्ञानसम्मत बनता जा रहा है वहीं ठीक दूसरी ओर समाज में जाति, गोत्र, वर्ग के आधार ही कुटिल दृष्टि विकसित की जा रही है । विडम्बना तो यह भी कि राजनीति, प्रशासन, सामाजिक इकाइयों के साथ-साथ साहित्य भी अब जाति और लिंग के आधार पर रचा जा रहा है । जिसके लिए कहा जाता है कि वह स्वयं में प्रकाश है । अपने समय का आइना है । परिवर्तन का जरिया है । मन का संवाद तो है ही । आज कुनबे की सदस्यता की शर्त पर रातों-रात महान कवि या कहानीकार घोषित किया जा रहे हैं । शिष्यत्व की शिनाख्तगी के बाद ही रचनाकार पर संपादक की ओर से स्नेह वर्षा हो रही है । निजी की कुठाओं से नित नयी साहित्यिक संस्थाओं का महल रचा जा रहा है । दण्डवत मुद्रा या जुगाड़ू दक्षताओं के परीक्षण के बाद ही चिन्ह-चिन्ह कर अलंकरण और पुरस्कारों के लिफाफे घर पहुँचाये जा रहे हैं । अधकचरे पाठ्यक्रमों में समादृत होकर अमर हो जाने की लालसा में सत्ताधीशों की जूतों की रखवाली की जा रही है । इशारों पर इतिहास की इतिक्षी की जा रही है । शासकीय अनुदानों, परियोजनाओं, आयोजनों की ठेकेदारी के लिए रचनाकारों में मारकाट की नौबत तक आने लगी है । साहित्य में नये तरह का चारण युग विकसित हो रहा है । भाटगिरी हर प्रकार की सत्ता की विरूदावली है चाहे वह व्यक्ति विशिष के लिए हो या फिर जाति या लिंग विशेष के लिए ।

इन प्रवृत्तियों की फसल किसी एक अंचल या भूभाग में नहीं, सर्वत्र लहलहाती नज़र आ रही है । इधर बाजार, मुद्राकेंद्रित पश्चिमोन्मुखी विचारों से साहित्य को भी रोजगार या व्यापार मानने की सीख दी जा रही है । मुश्किल से कलम पकड़ने जानने वाले भी बड़े से बड़े रचनाकार को नकारने पर आमादा है । बड़े भी ऐसे कि संभावनाशील नयी पीढ़ी को पहचान कर उसे तराशने अपने दड़बे से बाहर निकलने को तैयार नहीं । अधिकांशतः रचनाकार अपने बंद कमरों में टेबिल के इर्द-गिर्द ही एक खास किस्म की गंध को महसूसते हुए आत्ममुग्ध होकर कागज पर फैंटेसी गढ़ते जा रहे हैं । समाज की गति यानी पाठकों को लेकर रचनाकार की चिन्ता तो जैसे बीते युग की बात हो चुकी है । लेखन के लिए लेखन हो रहा है उसके अनुकरण से लेखक को कोई लेना-देना नहीं । लेखन व्यक्तिगत गालीगलौज या निजी कुंठाओं का खेल होते जा रहा है । उस पर भी तुर्रा कि साहित्यकार ऐसे साहित्य से उस समाज को बदलने का भ्रम पाले हुए हैं जो पहले से ही अक्षरों से नज़रें चुरा रहा है। कुल मिलाकर आज का साहित्य वाग्जालियों की क्रीडा बन चुका है । यानी कि साहित्य अपने सभी अनुशासनों से च्युत हो चुका है । यानी कि (फिर से) साहित्य की दुनिया में भी अंधेरे की वापसी ।

क्या मेरी चिन्ता गैरवाजिब है ? क्या मेरी चिन्ता के मूल में उन सिद्धांतो के विरूद्ध कह जाने का भय निहित नहीं है जिसमें यह डिंडोरा पीटा जा रहा है कि मात्र वही दलित साहित्य होगा जो दलितों द्वारा लिखा गया होगा ? यदि यह सिद्धांत एक सत्य भी है तो कदाचित् मैं उस सत्य के ख़िलाफ़ ही बोलने जा रहा हूँ । जबकि किसी के घर में बैठकर उसी की चुगली जरा मुश्किल होता है । इसके खतरे बडे होते है । खतरे के बावजूद वहाँ सत्य होता है । खतरे वहाँ नहीं होते जहाँ हम मुँहदेखी जुगाली करते हैं । पर वहाँ सत्य नहीं हुआ करता । हम जो भी कहते हैं वह दोनों में से एक ही तो होता है । मैं और आप जिस दुनिया में रहते हैं उसके पास-पड़ोस में तो फिलहाल यही होता है । कम से कम साहित्य की चौपालों में तो यही होते देखा जा रहा है ।

मैं जब भी चिकनी-चुपड़ी बातें करने का प्रयास करता हूँ तो मुझे एक भय सताने लगता है और वह मेरे लिए सबसे बड़ा भय भी होता है । आप भी जान सकते हैं कि वह मेरी आत्मा के धिक्कार से उत्पन्न भय हुआ करता है। और जिससे मेरे जैसा हिंदी का छोटा-मोटा साहित्य रसिक ही नहीं इंसान मात्र भी बचना चाहता है । जो अपने आप को नहीं बचाना चाहता वह कदाचित् 100 प्रतिशत इंसान भी नहीं हुआ करता । तो यह जो धिक्कार का भय है वह आत्मा का सत्य है । यही सत्य मनुष्य का शिवत्व भी । और यही मनुष्य होने का सौंदर्य भी है । एक सत्वशील और सत्यवान मनुष्य इसी सौंदर्य की तलाश में जीवन पर्यंत भटकता फिरता है । प्रकारांतर से ही सही । विश्व के सभी समुदायों से उभर कर आये दर्शनों में इसी सौंदर्य को देखने-समझने की पराकाष्ठा है । सारे समुदायों का साहित्य भी घुम-फिरकर इसी सत्य, शिव और सौंदर्य पर निष्ठा प्रकट करता है । कम से कम आज तक का, अब तक का ।

मैं इस पुस्तक पर कुछ भी कहने से पहले मेरी अपनी तथाकथित समझ को आपके साथ शेयर करना चाहूँगा । और वह यह कि साहित्य किसी व्यक्ति के प्रति श्रद्धा का नाम नहीं बल्कि वह उस प्रवृति का संकीर्तन है या फिर आलोचन है । संकीर्तन इसलिए क्योंकि वह मानवीय उदात्तता की मिसाल है । आलोचन इसलिए कि वह मानवीय मूल्यों का मिथ्यात्मक पहलू है ।

चलिए लोक की सुधि लेते हैं । वहाँ हमें किसी दलित, पतित, दमित जाति या समूह या संपदाय की प्रतिष्ठा या पुनर्वास के लिए सद्-प्रयास तो नज़र आता है किन्तु उसमें या उसके बहाने वैमनस्यता की रणभेरी बजाते लोग नज़र नहीं आते । सबसे बड़ी बात यह कि लोक की दुनिया में किसी की गर्दन भी काट दी जाती है और सामने वाले को इसका भान तक नहीं होता । यह लोक की विनम्रता और अनातिक्रमण का प्रमाण है । यह सही है कि लोक साहित्य के पृष्ठों में वर्षों से सताये गये लोगों की वेदना है । संताप है । आक्रोश भी है । पर वहाँ घृणा नहीं है । वहाँ वैमनस्य नहीं है । वहाँ-वहाँ सामाजिक ताने-बाने के भीतर ही प्रगतिशील चेष्ठा है । मैं आप भी जानते हैं कि हमारे लोक में यह किसने रचा ? जाहिर है किसी एक ने नहीं रचा । किसी व्यक्ति ने नहीं किया । उसे किया समग्र लोक ने । अर्थात् लोक का जो साहित्य है वह समग्र-वाणी है । उसमें भले ही किसी जाति, गोत्र, प्रवर, वर्ग, समुदाय, या धर्म की ओर इशारा हो, व्यंग्योक्ति भी हो पर वह इनमें से किसी एक का वैयक्तिगत अवधारणा नहीं है । शायद इसीलिए वह समाज का संवाद है । संवाद है इसलिए वह साहित्य भी माना जाता है ।

लोक की दुनिया में वाद-प्रतिवाद रहा होगा किन्तु उसके साहित्य में किसी तरह का वाद तो कम से कम नहीं है । हाँ, यह दीगर बात है कि किसी को इसमें विवाद भले ही दिखाई दे जाये । और लोक साहित्य वाद विहीन होने के कारण ही वह समग्र समाज का वेद भी था, आज भी है । लोक ने कहा यानी ब्रह्मा की लकीर । दरअसल वाद में विचार तो हो सकते हैं साहित्य कहना उसे जरा सी बेईमानी होगी । वाद की सबसे बडी बुराई होती है कि उसका राजनीति से प्रेरित होना है । वाद की सबसे बड़ी अच्छाई होती है कि उसे लेकर उसका प्रणेता कभी नहीं चाहता कि वह उसके नाम से चले । वह सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक व्यक्तित्व होता है कोई राजनीतिक विचारधारा का अगुआ नहीं । तो वाद के सहारे राजनीति हो सकती है साहित्य नहीं । क्योंकि साहित्य होगा तो वह सहित होगा । कोई भी अलग नजर नहीं आयेगा । साहित्य में कोई विचार हो सकता है किन्तु विचार मात्र को साहित्य नहीं होता । क्योकि वहाँ जीवन मूल्यों को लेकर कोई न कोई सामाजिक अन्तरद्वंद जबकि साहित्य होगा तो वह सहित होगा । वहाँ हित के साथ कोई भी बात होगी । उदाहरण भी लेते हैं एक -बाह्मन, बनिया, नाऊ । जात देख गुर्राउ । इस पर मात्र निचली, पिछड़ी या दलित जातियों का विश्वास नहीं बल्कि समाज के प्रभू वर्गों का भी उतना ही विश्वास है ।

आप कबीर साहब का क्या कहेंगें दलित लेखक या संत साहित्यकार जिन्होंने यह खुलकर कहा कि
जो तू बामन ब्राह्मणी जाया, आन बाट भै क्यों नहीं आया ।

या भारतेंदू जी को जो दहाड़ते हुए अबेडेकर से पहले ही कहते है-
देखी तुमरी कासी, लोगों, देखी तुमरी कासी ।
जहाँ बिराजैं विश्वनाथ विश्वेश्वर जी अविनासी ।

आधी कासी भांट-भंडेरिया बाह्मन और सन्यासी
आधी कासी रण्डी मुण्डी रांड खानगी खासी ।

लोग निकम्मे भंगी गंजड़ लुच्चे बे-बिसवासी
महा आलसी झूठे शुहदें बे-फिकरें बदमाशी ।
और उधर जब महावीर प्रसाद द्विवेदी विचार भी देते हैं उससे सुधार और सद्भाव संबंधी मानवीय रसों को ही जगाने की कवितायी करते रहते है-

हाय हमने भी कुलीनों की तरह
जन्म पाया प्यार से पाले गए ।
जो बचे फूले-फले तो क्या हुआ
कीट से भी तुच्छतर माने गए
जो दयानिधि को तनिक आवे दया
तो अछूतों की उमड़ती आह का
यह असर होवे कि हिन्दुस्तान में
पाँव जम पावे परस्पर चाह का ।

प्रेमचंद की कहानियों में दलितों को जगाने के क्या कम प्रयास हुए हैं । जबकि वे तो दलित नहीं थे । यह दीगर बात है कि कुछ दलित साहित्यकारों ने भी उन्हें दलित विरोधी करार देने की नाकाम कोशिश करते देखे जाते हैं । साहित्यकार सच्चा होगा तो वह जाति के आधार पर नहीं बंटना चाहेगा । अक्सर प्रगतिशील यह भूल जाते हैं कि स्वयं प्रेमचंद ने प्रगतिशीलता के आधार पर साहित्य को बांटने का विरोध किया था । उनके लेख उसकी गवाही देते हैं । भारतीय साहित्य में जाति को तबज्जो लगभग नहीं दी गई है ।

हाल ही मैं कुछ सवर्ण साहित्यकार दलित साहित्य के विविध विषयों पर जो एकाग्र संपादित कर रहे हैं वे चौकातें है । खासकर इसलिए जब हमारे विश्वविद्यालय साहित्य के कब्रिस्तान बनते चले जा रहे हैं । वहाँ साहित्य पर शोध, सोच, सर्जना के अलावा सब हो रहा है । इन कृतियों को न केवल हमारे जैसे पाठक बल्कि हिंदी के प्राध्यापक, रचनाकार और शोधार्थी भी जरूर बार-बार पढना चाहेंगे । इन कृतियों में दलित विमर्श पर अब तक की सबसे बड़ी यानी कि 824 सुनहरे पृष्टों की एक किताब है - अम्बेडेकरवादी सौन्दर्य-शास्त्र और दलित आदिवासी-जनजातीय-विमर्श, जिसके संपादक हैं डॉ. विनय पाठक, जिसमें दलित साहित्य को लेकर शायद ही कोई कोण बचा हो जिसका गंभीर और बैलोस अनुशीलन और सत्यान्वेषण नहीं किया गया है । दलित साहित्य के सौंदर्य पर यह एक प्रामाणिक ग्रंथ बन चुका है । यह सिद्ध करता है कि विनय पाठक जैसे मेहनती और निष्कलुश लोग हिंदी पट्टी में रहेंगे साहित्य का गंभीर अनुशीलन होता रहेगा ।

वैसे बहुत सारे ऐसे कवियों की दलित चेतना से संपूरित कविताओं का जिक्र पाठक जी ने स्वयं इस कृति में किया है । मुझे तो कम से कम आत्मतोष है कि उन्होंने इन्हें अम्बेडेकरवाद का ही प्रभाव नहीं माना है । भले ही दलित आलोचक इनसे सहमत न हो कि वे तो दलित जाति के थे ही नहीं । यह दीगर बात है कि पृष्ठ 401 में समकालीन महत्वपूर्ण दलित कवियों की सूची में उन्होंने मात्र 22 कवियों को रखा है । इसमें वे समकालीन कवियों की उपस्थिति जरूरी जान पड़ती है जिनमें दलितों की पीड़ा का कारुणिक बयान है । वैसे पाठक जी की हिम्मत और दृष्टि को मैं दाद देना चाहूंगा कि उन्होंने तटस्थ भाव से इस महाग्रंथ में उन्हें भी समादृत किया है जो जाति से दलित नहीं है । यह चुनौती भी है और दिशा भी कि भाई मेरे जाति के आधार पर साहित्य के पंडे न बनो ।

लेखन जब पूर्व प्रेरित विषयों के प्रेमिंग में लिखने के लिए होता है तो उसमें साहित्य मानने लायक कम सत्व मिलता है पाठकों के लिए । ऐसे लेखन सामयिक तो होता है उसमें प्राणवायु इतनी नहीं होती कि वह कालजयी हो सके । उसकी सामयिकता सदैव बनी रहे । शायद इसलिए ऐसा लेखन एक निश्चित समय के बाद का सत्य भी नहीं रह जाता । यानी कि वह अपने समय का मिरर या सच तो हो सकता है किन्तु उसकी प्रांसगिकता स्थायी नहीं हुआ करती । हजारों लाखों कहानी लिखे जाने के बाद भी आज हम उसने कहा था, पुस की रात, पंच परमेश्वर या गुण्डा आदि को क्यों नही भूल पाये । शायद वह तयशुदा विषय पर लेखन नहीं था । उसमें और उनकी जैसी सैकड़ो कहानियों में किसी जाति विशेष के प्रति आक्रोश नहीं था । जबकि दलित साहित्य के मूल में सवर्णों के प्रति आक्रोश है । बदले की भावना है । और यह उसे साहित्य ने नहीं दिया । राजनीतिज्ञों ने दिया है । चेतना ने दी है । शिक्षा ने दी है । वैज्ञानिकता ने दी है । जातिगत संगठनवाद ने दिया है । साहित्य या लेखन तो इससे कहीं आगे की और शुद्धतम वस्तु है । वह इनमें व्याप्त कुंठाओं का भी निदान है । साहित्य भी यदि वही काम करे जो राजनीतिक लोग करते हैं तो फिर उस समरसता का क्या होगा जिसे सभी महान साहित्यकारों ने बचाने की कोशिश की है ।

लेखन यानी अंतःबाह्य के सत्य का एकीकरण और साध्य का गुरुत्वाकर्षण । लेखन यानी अप्राकृतिक, अमर्यादित, अपरूप, अपचेष्टा के पर्यावरण के बावजूद उनके समानांतर ही शिव-सत्ता का अवगाहन । लेखन यानी समग्र सौदर्य का प्रकाशन । लेखन का मतलब रचना है । स्वयं को रचना । युग को रचना । समय को रचना । काल को रचना । भूत और वर्तमान की पुनर्ररचना और भविष्य की संरचना । दृष्ट को रचना, अदृश्ट की भी रचना । लेखन समानांतर संसार की सर्जना है । लेखन ईश्वर के बाद सर्वोच्च सत्ता को साधने वाली कला है । लेखन वही जिसके प्रत्येक शब्द में सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की ज्योत्सना झरती हो । वहाँ डूब-डूब जाने के लिए मन बरबस खींचा चला आता रहे । लेखन सच्चा होगा तो वह क्षीणकाय न होगा, दीर्घायु होगा । वहाँ वाद न होगा, विवाद न होगा, अजस्त्र संवाद होगा । फलतः उसमें मनुष्य जाति के लिए अकूत रोशनी होगी । एक ऐसा पनघट होगा जहाँ हर कोई अपनी प्यास बुझा सके । एक सघन-सुगंधित तरूबर होगा जहाँ हर कोई श्रांत श्लथ श्रमजल जूड़ा सकेगा । एक ऐसा निर्मल दरपन होगा जहाँ वह अपने चेहरे के हर रंग को भाँप सकेगा । एक ईमानदार लेखन सामयिकता के जाल में उलझना नहीं चाहता । सामयिकता तत्क्षण का अल्प सत्य है । वह शाश्वत नहीं हुआ करती । ईमानदार लेखन सदैव शाश्वत की ओर उन्मुख होना चाहता है । इसलिए वह व्यक्ति, जाति, धर्म, देश, काल, परिवेश को लांघने के सामर्थ्य से परिपूर्ण होता है । वह अपनी वास्तविकता में व्यक्ति नहीं अपितु व्यक्तित्व की लघुता से प्रभुता की ओर संकेत है । लेखन तटस्थ-वृत्ति है । ऐसी तटस्थता जहाँ मंगलकामना का अनवरत् राग गूँजता रहता है- सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे भवन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राण पश्यंतु, मां कश्चित् दुख भाग्भवेत् ।

चलिए पल भर के लिए यह मान लेते हैं कि दलित साहित्य साहित्य की दुनिया में स्वयं को प्रतिष्ठित करने का कुछ लोगों का जरिया नहीं है । यह भी ठीक है कि दलित चेतना सवर्ण मानसिकता और दलित विरोधी गतिविधियों के प्रतिरोध का साहित्य है । और इन प्रतिरोधों से सरोकार का हक भी दलितों को बाकायदा है । और यह भी सच है कि हर दलित लेखक आक्रोश के लिए नहीं रच रहा है । मैं ओमप्रकाश वाल्मीकि के जूठन नामक आत्मकथात्मक उपन्यास का जिक्र करना चाहूँगा जिसे पढकर कोई भी सवर्ण रोये बिना नहीं बच सकता । जानते हैं मूलतः वह चमारों के प्रति करुणा से ओतप्रोत कर देने वाला हिंदी के श्रेष्ठतम उपन्यासों में से एक है । इस उपन्यास में लेखक कहीं भी सीधे सवर्णों को गाली गलौच करता हुआ खड़ा नहीं दिखाई देता परन्तु एक संवेदनशील सवर्ण पाठक भी उसे पढ़कर सवर्ण मानसिकता की कमजोरियों के प्रति आक्रोश से भर बिना नहीं रहता । उसमें दलितों के प्रति रागात्मक अनुराग उत्पन्न होने लगता है । उसे अपने पूर्वजों पर कदाचित् क्षोभ भी होता है । और यही साहित्य का उद्देश्य है । साहित्य कोई फतवा नहीं है कि फलाने को कूट दो । अमूक को समूल नष्ट कर दो । किसी से बदला लो । किसी को भगा दो ।

इस सबके बाद भी मै अपने मंतव्य में इन निहितार्थों को तलाशने की छूट नहीं दे सकता कि पददलित, शूद्र और अस्पृश्य जातियों के प्रति सवर्णों ने सदियों पहले अत्याचार नहीं किया । पर उस पीढ़ी के सम्मुख अपने मन में छिपी बर्बरता और विद्रोहात्मक बयान कहाँ तक उचित है जो आज इन दकियानुसी मानसिकता से निकलता जा रहा है । साहित्य के केंद्र में न केवल देवता, राजा-महाराजा, सामन्त या शोषक वर्ग को च्युत किया जाना चाहिए बल्कि तथाकथित पददलित व शोषित-पीड़ित किसी वर्ग को भी स्थापित किये जाने का मनुवादी संस्कार प्रसारित होना चाहिए । साहित्य के केन्द्र में सिर्फ और सिर्फ मनुष्य होना चाहिए । मनुष्य का मन होना चाहिए । मनुष्य को किसी भी कोण स वर्गीकृत करना प्रकारांतर से समाज को विभाजित करना भी होगा । जैसा कि अक्सर दलित विमर्श में कहा जाता रहा है कि दलित लेखन दलित-आदिवासी अस्मिता की स्वतंत्र पहचान के लिए है, साहित्य में अनुमति नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि यह भारत की संस्कृति की शाश्वत समन्वयात्मक चरित्र और उदारता के विरूद्ध भी है जिसका परित्याग भारतीय मन शायद ही कभी कर सके । भारत में किसी व्यक्ति या जाति की पहचान निहायत स्वतंत्र नहीं होती । वह समूचे परिवेश, समग्र जन और समूचे भूगोल में ही होती रही है । और जिसे नकारना ठीक वैसा होगा जैसा हम संयुक्त परिवार को नकार कर नितांत एकाकी, असहाय और नीरस होते जा रहे हैं । दलित साहित्य के उद्देश्यों में यह बड़ी बारीकी से पढ़ाया जाता रहा है कि यह बहुजनों के सुख की प्रतिबद्धता का औजार है । बहुजन सुनहरे अर्थों वाला भारतीय शब्द है पर यहाँ बहुजन शब्द में जब आप बहुसंख्यक लोगों का मायने देखेंगे तो कदाचित् आपको निराशा होगी । क्योंकि दलित समीक्षकों के यहाँ बहुजन का मतलब मात्र अस्पृश्य जातियों के लोग होता है । इसी तरह सुख शब्द भी है । सुख भौतिकता की ओर इंगित करता शब्द है । और भौतिकता को सदैव हिदी साहित्य में नकारा जाता रहा है । इसे ऐसा नहीं माना जा सकता है कि हिंदी साहित्य सरोकार मुक्त रहा है । उसे मनुष्य के भौतिक प्रगति से चिढ़ रही है किन्तु वहाँ सुख से कहीं ज्यादा हार्दिक समृद्धि को तवज्जो दिया जाता रहा है । लगभग हर वाद या काल में ।

यह भी कहना चाहूँगा कि आर्थिक आधार या भारतीय जातीय संरचना में निम्नतम प्रस्थिति में विवश समूह से अभिव्यक्ति की अधिक संभावनायें रहनी चाहिए । वहाँ कृष्ण पक्ष से मुक्ति के लिए जद्दोजहद ज्यादा है और तड़फ भी । उस भूगोल की स्थायी विद्रपताओं, विपदाओं के साथ-साथ कुँठाओ, तृष्णाओं और मनोविकारों को भी पर्दाफाश किया जाना प्रजातांत्रिक कदम है और समय की माँग भी । पर वहाँ से उठने वाली आवाज़ या साहित्य का स्वर कहीं अमानवीय न बन जाय इसका भी ख़याल रखना लाजिमी होगा । सच तो यह है कि वहाँ से मानवीय गरिमा को बचा ले जाने की समस्त संभावित प्रसंगों और कहानियों की अभिव्यक्ति होना अभी शेष है । जो साहित्य के लिए अपरिहार्य भी है । इसके बिना भारतीय साहित्य एकतरफा भी बना रहेगा । मेरी चिंता के परिप्रेक्ष्यों में यह भी सम्मिलित है कि अभिव्यक्ति के अधिकार से किसी को मात्र इसलिए खारिज नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि वह पहले से ही कोई ‘वादी’ है । अभिव्यक्ति का अधिकार सार्वजनिक है परन्तु उस शर्त पर जहाँ वह विभाजित करने वाले आधारों पर नहीं बल्कि “रचनाकार” के रूप में अपनी पहचान बनाये रखने का आग्रही हो।

बातें तो बहुत सारी हैं । दलित-विमर्श पर कही जाय तो घटों कही जा सकती है । सहमति के मोह या या असहमति के भ्रम से सर्वथा स्वयं को मुक्त रखते हुए यह भी कहना चाहता हूँ कि दलित-दंश की स्थायी पीड़ा को लेकर गैर दलित जाति के लेखक भी इधर सामने आने लगे हैं । चाहें तो इसे आत्ममुग्ध होकर दलित साहित्य की महत्ता या सत्ता का चमत्कार भी कह सकते हैं चाहें तो साहित्य को जातिवाद से मुक्ति दिलाने का उद्यम या फिर संवेदना जैसे पवित्रतम चीज़ की वापसी भी । अब सोचना आपको है, मुझे जो कहना था कह दिया।

शिवेन्दु राय

Wednesday, February 10, 2010

व्यंज़ल

व्यंज़ल
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पूछते हो कि क्यों मैं गरीब हूँ

तेरे राज में जानम मैं गरीब हूँ



दर्द का अहसास है न भूख का

सबब बस ये है कि मैं गरीब हूँ



मेरी तो समस्या है बड़ी अजीब

सोने के ढेर पे बैठा मैं गरीब हूँ



अमीरों के इस भीषण शहर में

मुझे तो फख्र है कि मैं गरीब हूँ



टाँग दी गई तख्ती रवि पर भी

सबने मान लिया है मैं गरीब हूँ

भारतवंशियों स्वदेश लौटो!

अंग्रेज़ों भारत छोड़ो की तर्ज पर ये गुहार है. गुहार नहीं, बल्कि एक आंदोलन है. भारत के शीर्ष पर बैठे राजनेता द्वारा छेड़ा गया आंदोलन. ऐसे में भारतवंशियों को भारत लौटना ही चाहिए. वैसे भी, भारतवंशियों को भारत से बाहर किसी सूरत जाना ही नहीं चाहिए, और यदि चले गए हैं तो बिना देरी के, तुरंत वापस आ जाना चाहिए. बिना किसी आंदोलन या गुहार के उन्हें वापस आना चाहिए. भारतवंशियों के वापस भारत लौटने के बढ़िया, कुछ टॉप के कारण ये हो सकते हैं –

#1 – भारत की धूल भरी, गड्ढेदार, भीड़ भरी, सांडों और गायों से अटी-पटी, षोडशी नारी की कमर से भी पतली, सदैव जाम युक्त सड़कों का क्या मुकाबिला? सिक्स लेन की खाली सड़क पर गाड़ी दौड़ाने में भी कोई मजा है लल्लू?

#2 – सत्यम के राजू की याद है आपको? या ताजातरीन कोडा? बोफ़ोर्स और चारा घोटाला? हजारों करोड़ रुपए देखते ही देखते बना सकने की सुविधा किसी और देश में है? फिर क्यों बुड़बक की तरह बाहर चले गए हो? जल्द लौट आओ. भारतवंशियों, आपके टैलेंट की जरूरत भारत में बहुत है.

#3 – राजा-महाराजा तो बीते जमाने की बातें हैं? हो सकता है. पर यहाँ भारत में आप अब भी ठसके से राजा-महाराजा की तरह रह सकते हैं – दो शुद्ध सपाट तरीके हैं – नेतागिरी में उतर आइए संसद की कुर्सी कब्जाइये, या फिर सिविल सेवा जॉइन कर सरकारी अफसरी की कुर्सी कबाड़ लीजिए. नेतागिरी में तो फिर भी पाँच-साला चक्कर रहता है. सिविल सेवक तो भारत में ताउम्र महाराजा स्टाइल मार सकता है. फिर क्यों आप विदेशी नौकरी बजा रहे हैं?

#4 – अगर आप ऊंची जाति के हैं तो आप वापस आएँ, क्योंकि दुनिया में कहीं भी ऊँची जाति वालों को इतनी इज्जत नहीं मिलती. ऊंची जाति वालों, अपनी बेइज्जती करवाने, अपनी जाति को खाक में मिलाने विदेश चले गए हैं? हद है! इसी प्रकार, यदि आप बैकवर्ड जाति के हैं तो आपको तो तत्काल भारत लौटना ही चाहिए. तमाम किस्म के आरक्षण जैसी सुविधाएँ विदेशों में कहीं मिलती हैं भला?

#5 – अगर आप डॉक्टर हैं तो वापस आएं, क्योंकि पान-गुटका-तम्बाकू से लेकर नकली दूध-दवाई तक और मच्छर मक्खी से लेकर भारी भरकम जनसंख्या तक सभी तरह के कारणों से यहाँ मरीजों की कमी कभी नहीं होगी और आपका धंधा चकाचक चलेगा. अगर आप इंजीनियर हैं तो सरकारी ठेके के 85 प्रतिशत (यह बात तो स्व. राजीव गांधी भी सार्वजनिक तौर पर स्वीकार कर चुके थे) कमीशन आपको बुला रहे हैं. यदि आप वकील हैं तो यहाँ जाति-धर्म-पंथ इत्यादि के कभी न खत्म होने वाले झगड़े टंटे के मुकदमों की कमी नहीं है – मुकदमों के लिए तो बीस साल का वेटिंग लिस्ट अभी ही है....

वैसे तो सैकड़ा भर और भी धांसू कारण गिनाए जा सकते हैं, जिनके बिना पर विदेश जा बसे भारतीयों को वापस भारत आना ही चाहिए. मगर फोकट में लिस्ट लंबी करने से क्या फायदा. समझ तो वो भी रहे होंगे. बस उन्हें एक बार जोर से ललकारने की जरूरत है – भारतीयों, भारतवंशियों, भारत लौटो!

शिवेन्दु राय , wz-61a/3 vashist park ,gali no-12,nd-46

Saturday, February 6, 2010

चेन खिच गई

चेन खिच गई
व्यंग्य-शिवेन्दु राय

एक बार मेरे मोबाइल का नेटवर्क किन्हीं दूसरे मोबाइलों के नेटवर्क से गुथ गया। जो चर्चा सुनाई दी वह हुबहू पेश है:-
‘‘ऐ जी, सुनो जी, आज मेरी भी खिच गई !’’
‘‘तुमसे कितनी बार कहा है कि ऊँची हिल की सैंडल मत पहना करो, सुनती ही नहीं हो!’’
‘‘ऊँची हिल की कहाँ पहनी, स्लीपर पहनी हुई थी टायलेट वाली!’’
‘‘मैंने यह भी कितनी बार कहा है कि फालतू इधर-उधर मत भटका करो!’’
‘‘मैं कहाँ इधर-उधर भटकी, अब क्या घर के सामने भी ना टहलूँ ?’’
‘‘घर के सामने ऊबड़-खाबड़ गढ्ढों में टहलोगी तो खिचेगी ही।’’
‘‘कोई नहीं, सरला भैंजी के घर के सामने बढ़िया चिकना सीमेंट कांक्रीट रोड़ है, उनकी तो उसपर भी खिच गई!’’
‘‘वो भी ऊँची हिल की सैंडल पहनती होंगी!’’
‘‘नहीं, वे तो बेचारी नंगे पॉव मंदिर जा रहीं थी तब खिच गई उनकी तो।’’
‘‘क्या ज़रूरत थी जाने की जब पता है कि मंदिर की सीढ़िया बहुत खराब और टूटी फूटी हैं!’’
‘‘उससे क्या होता है, विमला भैंजी की तो शॉपिंग मॉल की सीढ़ियों पर खिची थी!’’
‘‘तुम सब औरतों की यही आदत होती है, फालतू यहाँ-वहाँ भटकती फिरती हो फिर खिंच जाती है तो रोने बैठ जाती हो।’’
‘‘फालतू बातें मत करो, कुछ कर सकते हो तो करो।’’
‘‘अब मैं यहाँ बैठे-बैठे मोबाइल से क्या करूँ ? घर पर होता तो मूव मल देता!’’
‘‘मूव मलने से क्या चेन वापस मिल जाती ?’’
‘‘चैन मिल जाता है, हिन्दी भी ठीक से नहीं बोल सकती!’’
‘‘अरे मैं चेन की बात कर रही हूँ, चेन खिच गई मेरी!’’
‘‘क्या ? चेन खिच गई ? बता क्यों नहीं रही हो इतनी देर से! मैं समझ रहा था पॉव की नस खिच गई है तुम्हारी!’’
‘‘तुम तो यूँ ही हरकुछ-हरकुछ समझ लेते हो! अब तो कुछ करो!’’
‘‘पहले बताओ कब गई, कैसे गई, कौन सी गई.......!’’
‘‘अरे बताया तो सुबह-सुबह पपी को बाहर सुसु करा रही थी, एक छोकरे ने आपका पता पूछा और गले से आधी चेन खीच कर भाग गया!’’
‘‘आधी क्यों ? पूरी नहीं चाहिए थी क्या उसको ?’’
‘‘आधी मेरे पास रह गई!’’
‘‘कौन सी गई दस तोले वाली कि बीस तोले वाली ?’’
‘‘तौली तो थी नहीं कभी.....!’’
‘‘ऐसे कैसे नहीं तौली, फालतू बात करती हो। बिना तौले कहीं चेन मिलती है!’’
‘‘ये तो पता नहीं, तुम्ही ने लाकर दी थी!’’
‘‘बताओ कैसा था छोटा, लम्बा, ठिगना, मोटा, गोरा, काला, मोटर साइकिल कैसी थी, काली, सफेद, लाल, पीली, बताओं मुझे, अभी फोन खड़काता हूँ। पूरा प्रशासन हिलाकर रख दूँगा। मजाल है, एक पुलिस अफसर की बीवी की चेन खिच जाए!’’
‘‘भूल रहे हो, अब तुम रिटायर हो गए हो!’’
‘‘तो क्या हुआ ?’’
‘‘तुम कुछ हिला-हिलू नहीं सकते। जैसे आम आदमी की बीवी की खिचती है वैसी तुम्हारी बीवी की खिंच गई।’’
‘‘तेल लेने गया आम आदमी, तुम तो बताओ वह मोटी वाली गई कि उससे पतली वाली कि उससे पतली वाली कि एकदम पतली वाली ?’’
‘‘अरे आहां, मेरे पिछले बर्डे पर तुम खरीद कर लाए थे ना वो चपटी वाली, वही थी!’’
‘‘चपटी वाली !’’
‘‘हा वही चपटी वाली।’’
‘‘अच्छा...........वोऽऽऽऽऽह, वो चपटी वाली.........’’
‘‘हाँ वही, वो जो मुझे पटाने के लिए तुमने गिफ्ट में दी थी!’’
‘‘हाँ हाँ याद है....... आधी बच गई ना..... चलो जाने दो.....क्या करना है!’’
‘‘करना क्या है, पुलिस में रिपोर्ट डालना है और क्या! ’’
‘‘अरे छोड़ो, क्या करना है, सब बदमाश है साले वहाँ आजकल !’’
‘‘अरे वाह, करना क्यों नहीं है, हराम की थी क्या!’’
‘‘ऊँहू...... वह बात नहीं है, जाने दो......कौन पुलिस के झँझट में पड़े!’’
‘‘अरे क्यों जाने दो........! तुम तो एफ.आई.आर. लिखवाओ।’’
‘‘अरे क्या करना है, आधी ही तो गई है, जाने दो!’’
‘‘ऐसे कैसे जाने दो, चोर के बाप का माल है क्या ?’’
‘‘अरे अब छोड़ो भी तुम्हें दूसरी ला देंगे।’’
‘‘अरे दूसरी भी ले लूँगी, पर इसे भी नहीं छोडूँगी!’’
‘‘अरे जाने भी दो, ऐसी ही थी बेकार!’’
‘‘क्यों बेकार क्यों, तेइस कैरट शुद्ध सोने की चेन थी मेरी वो, मैं तो नहीं छोड़ने वाली!’’
‘‘अरे कह तो दिया बेकार थी, लगी हो जबरन फकर-फकर करने! दस रुपल्ली में हर माल वालों से खरीदी थी, सौ आने शुद्ध नकली चेन थी, हाँ नहीं तो !’’
‘‘क्या कहा ? बेईमान कहीं के, धोकेबाज़! सारे पुलिस वाले ऐसे ही होते है, धोकेबाज़। तुमने शादी भी मेरे माँ-बाप को धोका देकर की! बच्चे भी धोका देकर पैदा कर लिए। घर आओ आज तुम......बताती हूँ। नकली चेन के बदले ना तुम्हें असली जूतों का स्वाद चखाया तो मेरा नाम नहीं!’’
दोनों मोबाइल बंद हो गए। उसके बाद कौन जाने क्या हुआ।

Friday, February 5, 2010

“इश्किया” का गीत किसका गुलजार या सर्वेश्वर का

इश्किया फिल्म में गुलजार के लिखे ‘इब्नबतूता’ गीत को लेकर छिड़ा विवाद दुखी करता है। कहा जा रहा है कि इसे मूलतः हिंदी के यशस्वी कवि एवं पत्रकार स्व. सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ने लिखा है। ऐसे मामलों में नाम जब गुलजार जैसे व्यक्ति का सामने आए तो दुख और बढ़ जाता है। वे देश के सम्मानित गीतकार और संवेदनशील रचनाकार हैं। ऐसे व्यक्ति जिन्हें साहित्य और उसकी संवेदना की समझ भी है। हाल में ही चेतन भगत और आमिर खान के बीच थ्री इटियट्स को लेकर छिड़ी बहस को जाने दें तो भी मायानगरी ऐसे आरोपों की जद में निरंतर आती रही है। सहित्य के महानायकों की रचनाएं लेना और उसे क्रेडिट भी न देना कहीं से उचित नहीं कहा जा सकता। यह सिर्फ गलती नहीं है एक ऐसा अपराध है जिसके लिए कोई क्षमा भी नहीं मांगता। दिल्ली-6 में छत्तीसगढ़ के गांव-गांव में गूंजनेवाला छत्तीसगढ़ी गीत “सास गारी देवे, देवर जी समझा लेवे“ का उपयोग किया गया। सब जानते हैं इसे रायपुर की जोशी बहनों ने गाया था। किंतु क्रेडिट के नाम पर फोक लिख दिया। फोक क्या हवा में पैदा होता है। छत्तीसगढ़ी फोक लिखकर उस राज्य की संस्कृति को मान्यता देने में हर्ज क्या था पर चोरियों से ज्यादा सीनाजोरियां मुंबई की मायानगरी का चलन बन गयी हैं।

सर्वेश्वर जी हिंदी के एक बहुत सम्मानित कवि और पत्रकार होने के साथ-साथ रंगमंच के क्षेत्र में भी खास पहचान रखते थे। वे बच्चों के लिए भी लिखते रहे और अपने समय की महत्वपूर्ण बालपत्रिका पराग के संपादक रहे। उन्होंने बतूता का जूता और महंगू की टाई नाम से बच्चों के लिए कविताओं की दो पुस्तकें भी लिखी हैं। जिसमें बतूता का जूता (1971) में यह कविता है जिसपर विवाद छिड़ा हुआ है। अपने समय की महत्वपूर्ण पत्रिका दिनमान से जुड़े रहे सर्वेश्वर जी को शायद भान भी नहीं होगा कि उनकी मृत्यु के बाद उनकी रचनाएं इस तरह उपयोग की जाएंगी और उनके नामोल्लेख से भी पीढ़ियां परहेज करेंगीं। पर ऐसा हो रहा है और हमसब इसे देखने को विवश हैं।

भाव का अपहरण क्षम्य है, शब्द का अपहरण भी क्षम्य है किंतु पूरी की पंक्ति निगल जाना और क्रेडिट न देना कैसे माफ किया जा सकता है। यह रोग जिस तरह पसर रहा है वह दुखद है। फिल्मी दुनिया में नित उठते यह विवाद साबित करते हैं कि इससे किसी ने सबक नहीं लिया है। सर्वेश्वर जी ने अपनी एक कविता में लिखा था-

“और आज छीनने आए हैं वे

हमसे हमारी भाषा

यानी हमसे हमारा रूप

जिसे हमारी भाषा ने गढ़ा है

और जो इस जंगल में

इतना विकृत हो चुका है

कि जल्दी पहचान में नहीं आता।”

सर्वेश्वर कहते हैं कि वस्तुतः हमसे हमारी भाषा का छिन जाना हमारे व्यक्तित्व और अस्तित्व का मिट जाना है। चंद मामूली से शब्दों के द्वारा ही (छीनने आए हैं वे… हमसे हमारा रूप) कवि ने यह अर्थ हमें सौंप दिया है कि भाषा का छिन जाना हमारी जातीय परंपरा, संस्कृति, इतिहास और दर्शन का छिन जाना है। सर्वेश्वर हमारी सांस्कृतिक चेतन पर आए इस संकट को पहचानते हैं। वस्तुतः भाषा के सवाल पर यह संजीदगी सर्वेश्वर को एक जिम्मेदार पत्रकार बनाती है। सर्वेश्वर का पत्रकार इसी प्रेरणा के चलते पाठक में एक चेतना और अर्थवत्ता भरता नजर आता है। सर्वेश्वर की लेखनी से गुजरता पाठक, उनकी लेखनी से निकले प्रत्येक शब्द को अपनी चेतना का अंग बना लेता है। ऐसा इसलिए क्योंकि सर्वेश्वर पूरी ईमानदारी और संवेदना के साथ पाठक की चेतना को सम्प्रेषित करते हैं। सर्वेश्वर ने इसीलिए ऐसी भाषा तलाशी है जो वर्तमान परिवेश में सांस लेने वाले हरेक इन्सान की हैं, हरेक की जानी पहचानी है और हरेक का उससे गहरा और करीबी रिश्ता है। किंतु सर्वेश्वर की यही भाषा और शब्द आज मायानगरी के बाजार में सुनाए तो जा रहे हैं पर किसी और के नाम से। हालांकि इस पूरे मामले पर अभी गीतकार गुलजार की प्रतिक्रिया आना शेष है किंतु प्रथमदृष्ट्या यह मामला माफी के काबिल तो नहीं दिखता। इस तरह के विवाद साहित्य की अस्मिता पर हमला हैं और कलमकारों के लिए अपमानजनक भी किंतु क्या इस विवाद से कोई सबक लेने को तैयार है, शायद नहीं।

Tuesday, February 2, 2010

शिवेन्दु राय की मनभवन कविताओ में से एक कविता

शिवेन्दु राय की मनभवन कविताओ में से एक कविता
आओ पीछे लौट चलें……
बहुत कुछ पाने की प्रत्याशा में
हम घर से दूर हो गए !
जाने कितनी प्रतीक्षित आँखें
दीवारों से टिकी खड़ी हैं -
चलो उनकी मुरझाई आंखों की चमक लौटा दें !
सूने आँगन में धमाचौकड़ी मचा दें
- आओ पीछे लौट चलें………..
आगे बढ़ने की चाह में
हम रोबोट हो गए
दर्द समझना,स्पर्श देना भूल गए !
दर्द तुम्हे भी होता है,
दर्द हमें भी होता है,
दर्द उन्हें भी होता है
- बहुत लिया दर्द, अब पीछे लौट चलें……….
पहले की तरह,
रोटी मिल-बांटकर खाएँगे,
एक कमरे में गद्दे बिछा
इकठ्ठे सो जायेंगे …
कुछ मोहक सपने तुम देखना,
कुछ हम देखेंगे -
आओ पीछे लौट चलें…………………

वर्तमान परिवेश में पत्रकारिता का लक्ष्य

वर्तमान परिवेश में पत्रकारिता का लक्ष्य समझने के पूर्व यह जानना आवश्यक है कि पत्रकारिता क्या है? उसका लक्ष्य क्या है? पत्रकारिता का अंग्रेजी शाब्दिक अर्थ जर्नलिज्म (journalism) होता है, जो जर्नल शब्द से बनता है, जिसका मतलब दैनिक होता है। इससे स्पष्ट है कि दिन-प्रतिदिन की घटनाओं को सूचना के रूप में संकलित कर उसे पाठक के समक्ष संप्रेषित करने की कला एवं विज्ञान पत्रकारिता है अर्थात् विभिन्न स्त्रोतों से समाचारों एवं छायाचित्रों का संकलन, पाठकों की रूचियों के अनुसार समाचारों का संपादन, ज्वलंत मुद्दों पर संपादकीय विचार एवं आलेख से पाठकों का दिशा-दर्शन, पत्र का कलेवर नयनाभिराम बनाना, समय पर पाठक के समक्ष प्रस्तुत करना पत्रकारिता है। पाठकों की रूचियां एवं दिशा-दर्शन में ही लक्ष्य का भाव पूरा निहित है। रूचियों का तात्पर्य थोपना नहीं है जैसा कि वर्तमान में लक्ष्य बनता जा रहा है, क्योंकि पत्रकारिता समाज का दर्पण है।
पत्रकारिता एक सेवा है जो जनमत के अंदर राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना जागृत करती है, जनमुख को वाणी प्रदान करती है। पत्रकारिता स्वतंत्रता, मानवीय संवेदनाएं, समानता एवं बन्धुत्व का भाव पैदा करने वाली एक प्रभावशाली विधा है। स्वतंत्रता आंदोलन में भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना की भूमि तैयार करने वाली पत्रकारिता आजादी के 60 वर्षों के बाद आर्थिक उदारीकरण, भूमण्डलीकरण के नाम पर नई सूचना प्रौद्योगिकी के सोपानों पर चढ़कर नए विश्व गांव का निर्माण कर रही है। वर्तमान में पत्रकारिता का अर्थ महज समाचार पत्र ही नहीं है। अब रेडियो, दूरदर्शन, केबल उपग्रहीय सभी माध्यम शामिल हो गए हैं और जर्नलिज्म मास मीडिया में बदल चुका है।
सूचना समाज को संचालित करती है। जैसी सूचनाएं संप्रेषित की जाएंगी, वैसा ही समाज निर्मित होगा। पश्चिमी उपनिवेशवाद साम्राज्यवादी संस्कृति ग्लोबल विलेज के नाम पर जो हमारे शयनकक्ष में परोसी जा रही है, उससे भारतीय मूल्य एवं परंपराओं का ह्रास हो रहा है। मनुष्य अमानवीय एवं संवेदनशून्य बन रहा है। यह संस्कृति संदेहवादी, अवसरवादी प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रही है। इस संबंध में अमेरिका से प्रकाशित हिन्दी साप्ताहिक विश्व विवेक के प्रधान संपादक डॉ. भूदेव शर्मा लिखते हैं कि पश्चिम के देशों में अच्छी सुख सुविधाएं और सभ्यता है मगर संस्कृति के नाम पर यहां है, स्पर्धा-प्रतिस्पर्धा का सूत्र, संदेहवादी दृष्टिकोण, असहजता, असरलता का वातावरण, मोल-तोल के मूल्य और स्वाभाविक निष्ठुरता। यह स्थिति भारत की ही नहीं, बल्कि अनेक पूर्वी देशों से आए अप्रवासियों के जीवन का अभिशाप बन गया है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण माध्यमों द्वारा संप्रेषित धारावाहिकों, समाचारों और उसके विश्लेषणों में परिलक्षित हो रहा है। ब्राम्हणों, गुर्जरों के आरक्षण की मांग, अभिषेक-एश्वर्या की शादी, दाऊद, लादेन जैसे खूंखार आतंकवादियों, सरगनाओं का चेहरा, बाहुबली सांसद शहाबुद्दीन, विधायक मुख्तार अंसारी के कारनामों की कहानी या फिर छात्र नेता से डान बने बबलू श्रीवास्तव की पुस्तक की विश्लेषणात्मक सूचना जैसे चोरी, हत्या, दंगे-फसाद, चरित्र-हनन के चित्रों एवं दृश्यों से आपकी समाचारिक मीडिया भरी पड़ी है। यदि हम धारावाहिकों की चर्चा करें तो अधिकतर धारावाहिक राजसी ठाट-बाट परिवरों से जुड़े लोगों की कहानियों पर आधारित है। जहां शान-शौकत है, महंगी गाडियां, मोबाइल है, अच्छा खाना-पीना है लेकिन नहीं है तो आत्मीयता, बन्धुत्व, सहयोग एवं भारतीय मूल्य तथा परंपराएं। मीडिया वैज्ञानिक युग में भी अंधविश्वास, तंत्र-मंत्र एवं रूढ़िवादी परंपराओं को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति में पीछे नहीं है।
प्रिंट मीडिया भी इलेक्ट्रानिक मीडिया का अंधानुकरण कर रही है। मोबाइल पर भूत की कहानी को स्थानीय समाचारपत्रों ने इतना महिमा मंडित किया कि जैसे ऐसा संभव है। लेकिन भविष्यवाणी, सत्तालोलुप राजनीति के समाचारों से प्रिंट मीडिया भी भरा रहता है। इस संबंध में पत्रकार पं. ईश्वरदेव मिश्र ने लिखा है कि मीडिया कि भूमिका आज उचित नहीं है। निहित स्वार्थ पूर्ति के लिए सूचनाओं को विकृत करके आधे-अधुरे रूप में प्रस्तुत कर, तिल को ताड़ और अप्रमाणित को प्रमाणित स्वरूप देकर जनसंचार माध्यम अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। जिस प्रकार अभिव्यक्ति की आजादी का हमारे देश में धड़ल्ले से दुरूपयोग हो रहा है, इसी प्कार सूचना के क्षेत्र में दायित्वहीनता देश के लिए अनर्थकारी साबित हो रहा है। इलेक्ट्रानिक मीडिया हो या प्रिंट मीडिया दोनों आदर्शच्युत होकर तथ्य के नाम पर नंगापन, वीभत्स और कुसंस्कार परोस रहे हैं। हम अपराधी और अपराधीकरण की बात तो बहुत करते हैं किन्तु इनकी करतुतों को किसी हीरो की करामातों के रूप में छापते हैं और हम उन्हें सम्मानित नागरिक के रूप में प्रस्तुत करते हैं। हाल ही में प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक माध्यमों ने अबू सलेम-मोनिका बेदी के प्रंसग, मटुकनाथ से अपनी शिष्या की प्रेम कहानी जैसे ऐसे कई उदाहरण प्रस्तुत किए, जिसने जनमानस के मन में सकारात्मक या नकारात्मक छवि निर्मित कर उन्हें हीरो बना डाला। पत्रकारिता का लक्ष्य इंसानियत की भावना पैदा करना, मानवता का संदेश देना, लोक संस्कृति और परंपराओं की पहचान बनाए रखना और भाषा के अस्तित्व को बचाएं रखना। यद्यपि भारत एक ऐसा राष्ट्र है जहां एकता में अनेकता है। अर्थात विभिन्न धर्म, जाति, भाषा के नागरिक एक साथ, एक छत के नीचे रहते हैं। अभी हाल में असम में बिहारियों की हत्या, बिहार में पूर्वोत्तर नागरिकों पर प्रहार, मुंबई में बिहारियों एवं अन्य राज्यों के नागरिकों को जिस तरह मीडिया परोस रही है जैसे उनके लिए यह एक उत्पाद है। इन सभी सूचनाओं में महज जातिगत, क्षेत्रवाद, धर्मवाद के विद्वेष की भावना को जागृत किया जा रहा है। इस तरह के संदेश किसी भी विकासशील राष्ट्र की प्रगति में सदैव घातक रहते हैं। वैमनस्यता की बयार को गति देते हैं, एकता को ध्वस्त कर देते हैं, अवसरवाद एवं कटुता की जड़ को मजबूत करते हैं।
राष्ट्रीयता की ध्वजावाहिका, स्वदेश प्रेम, मानव कल्याण एवं बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय की दृष्टिकोण को लेकर जन्मी पत्रकारिता आज कैसे दिग्भ्रमित हो गई। इस संबंध में भारतीय पत्रकारिता के लगभग सवा दो सौ वर्ष के इतिहास के सभी पक्षों का संक्षिप्त तुलनात्मक अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि देश के प्रथम समाचारपत्र हिक्की गजट को संपादक ने अपने पत्र में राजनीतिक समाचारों को छापा वह भी नकरात्मक। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह था कि अन्याय के खिलाफ निर्भीकता और निष्पक्षता से लिखा, असत्य के आगे नहीं झुके, भले ही उन्हें यातनाएं सहनी पड़ी और उन्हें सब कुछ न्यौछावर करना पड़ा।
उसके बाद लगभग आजादी तक ब्रिटिश सरकार के चाटुकार पत्रों को छोड़कर भारतीयों द्वारा संपादित एवं प्रकाशित दैनिक भारत मित्र, राजस्थान समाचार, कलकत्ता समाचार, विश्वमित्र इत्यादि व्यावसायिक पत्रों का दृष्टिकोण पाठकोन्मुख था। सभी राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत थे, मालिकों की स्वार्थसाधना की वस्तु न थी और संपादकों को लेखन की पूरी स्वतंत्रता थी। तभी तो यह संभव हो सका। सत्य के उद्गाता, स्वतंत्रता के अनुष्ठाता, कर्तव्यपथ के अनवरत पथिक संपादकों की लेखनी ने हमें गुलामी से उभारा। चुनौती, प्रताड़ना और जेल यातना से जूझते हुए पत्रकारों एवं संपादकों ने पत्रकारिता को नई दिशा दी। पत्र संचालक अपने पत्र के संपादक को महत्व देते थे। संपादकाचार्य पं. अंबिका प्रसाद वाजपेयी ने लिखा है कि भारतमित्र व्यावसायिक होते हुए भी किसी स्वार्थसाधन हेतु नहीं निकलता था। फिर भी यह पहला हिन्दी समाचार पत्र था जिसमें संचालक मण्डल होता था। सन 1913 में भारत मित्र लिमिटेड कंपनी द्वारा चलाया जाता था। इस कंपनी में नामी-गिरामी उद्योगपति, व्यवसायी शामिल थे। स्वतंत्रता के कुछ वर्ष पूर्व ही पत्रकारिता ने व्यावसायिकता का रूप धारण करना शुरू कर दिया था और सनसनीखेज, अश्लीलता, आरोप-प्रत्यारोप के समाचारों का प्रकाशन शुरू हो गया था। इसके पीछे मूल कारण थे द्वितीय विश्वयुध्द बाद बढ़ती महंगाई, अखबारी कागजों के दामों में उछाल प्रतिस्पर्धा और विज्ञापन पाने की होड़ थी। पं. कमलापति त्रिपाठी ने लिखा है कि 1944 के आस-पास के दौर में हिन्दी पत्रकारिता से आदर्शवाद कम होने लगा था। कारण यह था कि अखबार छापना एक महंगा काल हो गया। विज्ञापन मिलने से फायदा हो सकता था, विज्ञापन उसी अखबार को मिलते थे जिसकी पाठक संख्या अधिक होती थी। पाठक संख्या बढ़ाने का आसान तरीका यही दिखता था कि पाठकों के मनोरंजन, सनसनी तथा जीवन की क्षुद्र लालसाओं को उत्तेजना प्रदान करने वाली बातों से पत्र के स्तंभ भरे जाएं। यहीं पाठकों को लालच व तरह-तरह के आकर्षण देकर फुसलाया भी जाने लगा। जनता का पथ प्रदर्शन करना राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय प्रश्नों की गुत्थी सुलझाना तो पीछे ही छूट गया। इसके स्थान पर बिल्कुल उसके विपरीत कुचाल से वे ही पत्र जनता को पतन तथा भ्रष्टाचार की ओर ले जाने लगे। अदालत में मुकदमेबाजी, व्यभिचार के मामले, प्रेम लीलाएं किसी की बेटी-बहू का किसी के साथ भाग जाना, दुस्साहसपूर्ण डकैती, जासूसी वगैरह के मामलों तथा निराधार बातों को भी मिर्च-मसाला लगाकर छापना शुरू हो गया। पाठकों को भी ऐसे ही अखबार भाने लगे।
स्वाधीनता के बाद संवैधानिक तौर पर समाचार पत्रों को अनुच्छेद 19 (6) के अंतर्गत वृत्ति, उपजीविका एवं व्यापार का दर्जा दिया गया और प्रेस पर औद्योगिक संबंध, कर्मचारियों के वेतन, ग्रेच्युटी आदि की अदायगी से उन्मुक्ति नहीं दी गई एवं अन्य व्यापारिक संस्थानों की तरह कर भी लगाए गए। तकनीकी विकास, गुणात्मक, संख्यात्मक वृध्दि, गलाकाट स्पर्धा में प्रसार बनाए रखना एवं उत्तरोत्तर प्रगति करते हुए धनार्जन करना पत्र स्वामियों का ध्येय बनता चला गया। जिससे पत्र की संपादकीय दृष्टि क्षीण होती गई और वित्तीय स्थिति सुदृढ़ हुई। इलेक्ट्रानिक माध्यमों में रेडियो का विस्तार हुआ। विविध भारती आया एफएम चैनल शुरू हुआ। दोनों ही विज्ञापन से होने वाले आय के मुख्य साधन है। 1959 में दूरदर्शन का श्रीगणेश हुआ और 1976 में विज्ञापन का प्रसारण आरंभ हुआ। 1982 में जन-जन तक पहुंचाने में दूरदर्शन का विस्तार किया गया। 1991 में उदारीकरण एवं भूमंडलीकरण की पृष्ठभूमि तैयार की गई और उपग्रही चैनल रंग-बिरंगी तस्वीरों के साथ उपभोक्तावादी अपसंस्कृति हमारे देश में प्रवेश किया, क्योंकि इसके पूर्व दूरदर्शन द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रमों में देश की सच्ची तस्वीरों को ही प्राथमिकता दी जाती थी। 1995 में इंटरनेट रूपी सूचनाओं का एक संजाल आया और फिर मिशन की पत्रकारिता जो प्रोफेशन बन गई थी उसे कामर्शियल बना दिया गया।
प्रोफेशनल और कामर्शियल में क्या अंतर है यह समझना आवश्यक है। व्यावसायिकता एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा है जो व्यापार के निर्धारित नैतिक मूल्यों एवं मापदंड के सहारे व्यापारी धनार्जन करता है, लेकिन कामर्शियल अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा है जहां कम से कम लागत, समय एवं घटिया सेवाएं देकर एवं मीठी-मीठी बातें करके ग्राहकों के मत्थे माल को मढ़ दिया जाता है। ग्राहक को लूटने में कोई संकोच या शर्म नहीं महसूस करता है बल्कि अपनी व्यापारिक बुध्दि पर खुश होता है। डॉ. अर्जुन तिवारी ने लिखा है कि मिशन (स्वतंत्रता हेतु समर्पित सेवा), एम्बीशन (राष्ट्र निर्माण की आकांक्षा) के पश्चात हिन्दी पत्रकारिता प्रोफेशन (व्यवसाय) कमीशन (अंशलाभ) तथा सेंसेक्स (तहलका) तक पहुंच चुकी है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) के अंतर्गत पत्रकारिता को अभिव्यक्ति एवं वाक स्वतंत्रता प्रदान की गई। जिसका तात्पर्य राष्ट्र के शोषित वर्ग की पीड़ाओं के प्रतिबिम्ब को शासक वर्ग के समक्ष प्रस्तुत करना और शासक की नीतियों का सच्चा विश्लेषण कर जनमत को वाणी प्रदान करना है। जिससे राष्ट्र खुशहाल हो एवं विकास हो सके। सचमुच यह स्वतंत्रता पाठकों और संपादकों की है न कि मालिकों की। संपादक निडरता, निष्पक्षता से राष्ट्र की सच्ची तस्वीर पाठकों के समक्ष उपस्थित करे और जनमत कार्यपालिका एवं विधायिका के संबंध में अपना निर्णय ले सके। स्वामी ने पूंजी लगाई है तो धनार्जन उसका उद्देश्य है लेकिन पत्र के कर्तव्य एवं लक्ष्य पर हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। आज के युग में अब उलटा ही हो रहा है कि बैनेट एण्ड कोलमैन समूह के टाइम्स आफ इंडिया पत्र के प्रबंध निदेशक समीर जैन ने संपादक नाम की संख्या पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। उनकी मान्यता है कि अखबार की पृष्ठ संख्या, रूप साा और उसकी कीमत ही अधिक कारगर महत्व रखती है, संपादकीय सामग्री अधिक नहीं।
अखबार निकालने के लिए उनकी नजर में किसी खास किस्म की ट्रेनिंग या पेशागत प्रतिबध्दता की जरूरत भी नहीं है। प्रबंधकीय क्षमता वाला कोई भी व्यक्ति बेहतर संपादक की भूमिका भी बखूबी निभा सकता है। निश्चित तौर पर यह भयावह स्थिति है, मीडिया द्वारा एक विचारहीन समाज का निर्माण किया जा रहा है। न्यायमूर्ति पीवी सांवत का कहना है कि शासन संपादकों का नहीं प्रबंधकों का है। वर्षों से घोषित पत्रकारिता के मूल्य आज औंधे मुंह गिर रही है। इसका शिकार समाज हो रहा है और दांव पर उसका भविष्य है।
किसी भी लोकतांत्रिक समाज की व्यवस्था संचालन में मीडिया की शक्तिशाली भूमिका होती है। सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में पत्र-पत्रिकाएं जनता की पथ प्रदर्शक, शुभचिंतक एवं निस्वार्थी की भूमिका निर्वहन करती है। उनकी वास्तविक प्रकृति एवं गतिविधियां सामाजिक एवं राजनैतिक भ्रष्टाचार, अन्याय, शोषण एवं असमानता के विरूध्द होती है। प्रसिध्द विद्वान वेण्डले फिलिप ने लिखा है कि आज का समाचार पत्र एक बारगी जनवर्ग का माता-पिता, स्कूल-कालेज, शिक्षक, थियेटर, आदर्श, परामर्शदाता और साथी हो गया है।
किसी भी राष्ट्र का मूल आधार शिक्षा, स्वास्थ्य एवं गरीबी है। यदि राष्ट्र को खुशहाल रखना हो तो गरीबी खत्म हो, सभी साक्षर हों एवं सभी स्वस्थ हों। भारत गांवों का देश है और आज भी लगभग 64 प्रतिशत आबादी गांवों रहती है। उनके जीविकोपार्जन का साधन कृषि है। यह एक सत्य है कि आज भी हमारे देश में 35 प्रतिशत निरक्षर हैं। इसका दूसरा पहलू स्त्री-पुरूष साक्षरता दर में 29 प्रतिशत का है और शहरी ग्रामीण साक्षरता दर में 27 प्रतिशत का अंतर है। यह असमानता सर्वाधिक बिहार, झारखंड, राजस्थान जैसे हिन्दी भाषी राज्यों में देखी जा सकती है। स्वास्थ्य पर ध्यान दिया जाए तो प्रसव के दौरान जच्चा-बच्चा की मृत्यु दर भी लगभग 6 प्रतिशत है जिसमें सर्वाधिक ग्रामीण क्षेत्रों में हैं। उसके पीछे कारण है 80 प्रतिशत प्रसव अप्रशिक्षित कर्मी से घर पर कराया जाना, बाल विवाह, समय से पूर्व गर्भाधान एवं शिशु प्रसव के वक्त उपस्थित गंदा वातावरण। वर्तमान में 40 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। जिसमें सर्वाधिक ग्रामीण क्षेत्रों के हैं।
वर्तमान में मीडिया अधिक प्रसार एवं विज्ञापन प्राप्त करने की होड़ में इस कदर फंस चुका है कि भारत का असली चेहरा कहां है, वह भूल चुका है। उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा देकर विज्ञापनदाताओं को प्रत्यक्ष सहयोग प्रदान करना उसका ध्येय हो गया है। इससे क्या देश आने वाले दशक में विकसित राष्ट्रों में शामिल हो जाएगा? इस पर प्रश्नचिन्ह लग रहा है।
भारत की आत्मा गांवों, झोपड़ बस्तियों में बसती है। मीडिया का दायित्व है कि उनकी उपेक्षा न करके समाज की मुख्य धारा में इन्हें भी जोड़ें। पश्चिमी सभ्यता के उपनिवेशवादी अप-संस्कृति के भंवरजाल में उलझी मीडिया को इससे निकलना होगा और राष्ट्र की वास्तविक तस्वीर प्रस्तुत करनी होगी। नहीं तो आने वाला कल इसी मीडिया से प्रश्न करेगा कि यह किसका राष्ट्र है? गांधी जी का या फिर उन अंग्रेजों का जिन्होंने हमें गुलाम बना रखा था। मीडिया को अपना लक्ष्य बदलना होगा तभी हम गांधी की परिकल्पना खुशहाल राष्ट्र को साकार कर राम राज्य स्थापित कर सकते हैं। …………….
शिवेन्दु राय