hum hia jee

hum hia jee

Friday, March 26, 2010

हाँ कर दे !

कभी चाहते थे इतना कि हम उनके दिल-ए-अजीज़ थे ।
आज देखना भी गवारा नहीं करते ।।
हमसे क्या हुई ख़ता इतना तो बता दे ।
रहमत होगी अगर तू पास आये ।।
मैं हर मुिश्कल से लड़ लेता ।
तुम अगर साथ देते ।।
ऐ दोस्त आजा तू एक बार ।
स्ुना सुना सा है दिल मेरा ।।
बस कह दे तू हाँ मेरे यार एक बार ।
दूर ही सही कि तू मेरे पास है ।।
हवाएं ले आयेंगी तेरी खुश्बू ।

Monday, March 22, 2010

क्या मैं महिला आरक्षण विरोधी हूँ ?

आखिरकार जैसी आशंका सबको थी वही हुआ और एक बार फिर मुश्किल बाधा दौड़ पार करने के बाद आम सहमति के नाम पर कांग्रेस ने महिला आरक्षण बिल की आसान बाधा दौड़ पूरी करने से इनकार कर दिया। ज्यादातर लोग यही कहेंगे कि ये तो होना ही था। लेकिन, क्यों। इसका जवाब ज्यादातर लोग यही देंगे कि कांग्रेस यही चाहती थी। लेकिन, क्या कांग्रेस और देश की सबसे ताकतवर महिला सोनिया गांधी भी यही चाहती थीं। जवाब कड़े तौर पर ना में हैं। वैसे तो, ज्यादातर टीवी चैनलों और अखबारों ने बिल के राज्यसभा में पास होने को सोनिया गांधी का निजी संकल्प बताया ही लेकिन, मुझे एक सांसद ने जब ये बताया कि प्रणव बाबू तो, बिल के खिलाफ थे। उन्होंने कहाकि सरकार चली जाएगी, बावजूद इसके सोनिया ने कहा- सरकार जाती है तो, जाए- बिल पास कराइए। फिर कौन क्या कहता और बिल राज्यसभा में पास हो गया। फिर बिल में अड़ंगा क्यों लग रहा है। सरकार को इस मसले पर बीजेपी, लेफ्ट का पूरा समर्थन है। लेकिन, दरअसल इसी में महिला आरक्षण के अंटकने की असली वजह छिपी है।

कांग्रेस और बीजेपी भले ही व्हिप जारी करके अपने सांसदों को महिला आरक्षण पर वोट डालने के लिए राजी कर लें, सच्चाई ये है कि कांग्रेस-बीजेपी दोनों के बहुतायत सांसद महिला आरक्षण के विरोधी हैं। इसीलिए लालू प्रसाद यादव के ये कहने पर कि 90 प्रतिशत कांग्रेसी सांसद कह रहे हैं कि महिला आरक्षण डेथ वारंट है, इससे बचा लीजिए तो, भी कांग्रेस की ओर से इसका कोई कड़ा प्रतिकार नहीं आय़ा। ये तो हुई महिला आरक्षण के अंटकने की बात लेकिन, क्या महिला आरक्षण मिल जाए तो, लोकतंत्र सुधर जाएगा। संसद की 33 प्रतिशत सीटों के जरिए उनको उनका हक मिल जाएगा। जवाब ईमानदारी से खोजेंगे तो, साफ पता चलेगा कि जवाब ना में है।

महिला आरक्षण कांग्रेस और बीजेपी दोनों के लिए उबले आलू की तरह है जो, न तो उगलते बन रहा है न निगलते। लेकिन, ये राष्ट्रीय पार्टियां हैं और इनके बड़े नेताओं को भरोसा है कि किसी न किसी सीट से वो तो, जीतकर संसद में पहुंच जाएंगे। डरे छोटे नेता जो, टिकट के लिए संघर्ष करते और अपनी जमीन बताने निपट जाते हैं उन्हें ये आरक्षण अपनी गर्दन पर रखी छुरी की तरह लग रहा है। और, सच्चाई भी यही है कि ये आरक्षण देश में लोकतंत्र का इतिहास बदलेगा लेकिन, साथ में लोकतंत्र का मखौल बनाने का जरिया भी बन जाएगा।

अब सोचिए जरा महिला आरक्षण मतलब 100 में से 33 सीटों पर सिर्फ महिलाएं लड़ेंगी, पुरुषों को लड़ने का हक ही नहीं होगा। यानी प्रतिस्पर्द्धा से नेतृत्व निखरने की लोकतंत्र की पहली शर्त पर ही महिला आरक्षण चोट करेगा। जाहिर है महिलाओं के लिए आरक्षित लोकसभा सीट पर कोई पुरुष नेता नहीं बनना चाहेगा और वो, क्षेत्र के लिए चिंता बिल्कुल ही छोड़ देगा। और, चूंकि ये आरक्षण रोटेशनल आधार पर यानी एक बार ये लोकसभा तो, दूसरी बार बगल वाली लोकसभा को महिलाओं के लिए आरक्षित कर दिया जाएगा। तो, जाहिर है जाने-अनजाने इन क्षेत्रों से स्वाभाविक नेतृत्व ही खत्म होता जाएगा। इस आरक्षण का फायदा उन सामंती परिवारों को आसानी से मिल जाएगा जो, राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक-अपराधिक तौर पर पहले से बेहद बलशाली भूमिका में हैं। होगा ये कि अपराधियों को खत्म करने की संभावना दिखाने वाला ये महिला आरक्षण, महिलाओं की आड़ में अपराध रक्षण का बड़ा हथियार बन जाएगा। ये दलिता, पिछड़े आरक्षण की तरह नहीं है। जरा सोचकर बताइए ना किस बाहुबली सवर्ण या फिर बाहुबली दलित-पिछड़े के घर की महिलाओं को उनका अधिकार न देने की ताकत सामान्य लोगों में होती है। किसी राजनीतिक तौर पर प्रभावशाली परिवार चाहे वो, जिस जाति का हो, उस परिवार की महिलाओं का हक भला कौन मार रहा है या मार सकता है।

मुझे चक दे इंडिया फिल्म का वो, दृश्य याद आ रहा है जिसमें महिला हॉकी टीम कड़े मुकाबले में पुरुषों से हार जाती है लेकिन, ऐसा जज्बा उनके दिलो दिमाग में घर कर जाता है कि वो, वर्ल्ड कप हासिल करके लौटती हैं। मेरा तर्क ये है कि अगर महिलाओं को सही मायनों में पुरुषों के बराबर हक देने की बात हो रही है तो, महिलाओं के लिए अलग कोना खोजकर उन्हें कमजोर ही बनाए रखने की और देश में नेतृत्व खत्म करने वाला ये बिल क्यों लाया जा रहा है।

तर्क ये आता है कि महिलाओं को आरक्षण मिलेगा तो, कम से कम 33 प्रतिशत सीटों पर महिलाएं तो, आएंगी। और, इससे लोकसभा का माहौल सुधरेगा। ये आरक्षण के बूते संसद में पहुंची महिलाएं कैसे माहौल सुधार पाएंगी। वो, भी ज्यादातर ऐसी होंगी जो, बमुश्किल ही अपनी ही पार्टी में मौजूद नेता पति की आज्ञा की अवहेलना कर सकेंगी। और, अगर महिलाओं को आरक्षण दिए बिना उनका हक नहीं मिलेगा ऐसी सोच है तो, पुरुषों के साथ मैदान में ताल ठोंककर सबको चित करने वाली भारतीय राजनीति में सबसे ताकतवर (महिला या पुरुष) सोनिया गांधी जैसा नेतृत्व आरक्षण से पैदा होने की उम्मीद हम कैसे पाल पाएंगे। भले ही सोनिया के नाम के आगे गांधी लगा हो लेकिन, जिस तरह विदेशी मूल की बहती विरोधी बयार के बीच इस महिला ने खुद को साबित किया है वो, दिखाता है कि नेतृत्व चाहे महिला का हो या पुरुष का बिना प्रतियोगी माहौल के बेहतर नहीं हो सकता है।

लोकसभा में भाजपा नेता सुषमा स्वराज और कम्युनिस्ट पार्टी की पहली महिला पोलित ब्यूरो सदस्य वृंदा करात ही भला किस महिला आरक्षण से इतनी प्रतिभा जुटा पातीं। किस पुरुष राजनेता में इतनी ताकत है कि वो मायावती, ममता बनर्जी, जयललिता को खारिज करने का साहस जुटा सके। महिलाएं लोकसभा-विधानसभा में चुनकर आएं समस्या इससे नहीं है। समस्या इससे है कि संसद-विधानसभा में पहुंचने का लॉलीपॉप देकर महिलाओं के लिए एक अलग कमजोर कोना तैयार कर दिया जाए। समस्या इससे है कि महिलाओं को उनका हक देने के परदे के पीछे हमेशा महिलाओं को पुरुषों से कमजोर साबित कर दिया जाए।

लालू-मुलायम के भले ही इसके विरोध में अपने दूसरे हित छिपे हों। लेकिन, मुलायम की ये बात ज्यादा दमदार लगती है कि पार्टियों को खुद से क्यों नहीं महिलाओं को टिकट देना चाहिए। चुनाव आयोग उनकी मान्यता समाप्त करने का डर भी उन्हें दिखा सकता है। टिकट के दंद फंद में महिलाएं न फंसें ये तो, फिर भी जायज माना जा सकता है चुनावी दौड़ में आधी आबादी पुरुषों को लड़ाई से ही बाहर कर दिया जाए ये तो, एक नई विसंगति पैदा करने की कोशिश है।

राजनीति में ही नहीं कॉरपोरेट और दूसरे क्षेत्रों में जिन महिलाओं ने बिना आरक्षण के अपना मुकाम बनाया है उनकी ताकत सब मानते हैं वरना तो, ज्यादातर बॉसेज की सेक्रेटरी का पद महिलाओं के लिए ही आरक्षित होता है। लेकिन, क्या वो महिला को उसका हक दिला पाता है। क्या वो, महिला सशक्तिकरण के दावे को मजबूत करता है। बिल्कुल नहीं। महिला सशक्तिकरण का दावा मजबूत होता है। पेप्सिको चेयरमैन इंदिरा नूई के कामों से, ICICI बैंक की CEO चंदा कोचर से, HSBC की नैना लाल किदवई से, पहली महिला IPS अधिकारी किरण बेदी को देखकर महिलाओं को मजबूती मिलती है। ये लिस्ट इतनी लंबी है कि किसी के लिए उसे एक जगह संजोना मुश्किल है।

इसलिए भारतीय राजनीति में महिला आरक्षण के लिए जरिए सामंती परंपरा को और मजबूत करने की कोशिश का विरोध होना चाहिए। भारतीय नेतृत्व को कमजोर करने की इस कोशिश का विरोध होना चाहिए। महिलाओं को पुरुषों की प्रतियोगिता से बचाकर उन्हें पुराने जमाने में ठेलने की इस कोशिश का विरोध होना चाहिए। राजनीति में महिलाओं को उनका हक देना ही है तो, कांग्रेस-बीजेपी अगले किसी भी चुनाव में 33 प्रतिशत क्या पचास प्रतिशत महिलाओं को टिकट देकर महिला सशक्तिकरण पर अपना भरोसा दिखा सकती हैं। किसी अपराधी, बाहुबली, धनपशु के खिलाफ किसी भी महिला को शायद ज्यादा लोगों का समर्थन मिल जाएगा। सोचिए क्या महिला आरक्षण देश में एक अजीब विसंगति की जमीन नहीं तैयार कर रहा है। इसलिए महिलाओं के हक के लिए महिला आरक्षण का विरोध कीजिए। क्योंकि, सच्चाई यही है कि अगर महिलाओं की सीट आरक्षित हुई तो, ये प्रभावशाली लोगों (राजनैतिक-आर्थिक-अपराधिक) के पूरे परिवार को आसानी से संसद और विधानसभा में पहुंचने में मदद करेगा।

ये विकास है या पतन ?......

किसी भी समाज की पहचान वहां के साहित्य और आसपास के माध्यमों की रंगत देखकर पहचाना जा सकता है। अकसर हम इस बात की चर्चा तो करते रहते हैं कि देश में हर क्षेत्र में गिरावट आ रही है। क्या नेता, क्या पत्रकार, क्या न्यायपालिका, क्या प्रशासन, व्यापारी और क्या .. कोई भी, सबका स्तर दिनोंदिन गिरता जा रहा है। अब सवाल ये है कि जिसे हम समाज की गिरावट मानकर चल रहे हैं कि उसे क्या सचमुच समाज गिरावट मान रहा है या ये पुराने-नए का ऐसा फर्क हो गया है कि नए के जीने के तरीके को पुराने लोग समाज की गिरावट मानकर खारिज कर रहे हों। पता नहीं हम तो पीढ़ी के लिहाज से न तो अतिआधुनिक में हैं न पुरातनपंथी। तो, सबसे ज्यादा भ्रमित भारत हम जैसे लोग ही हैं।

UTV Bindass चैनल पर एक शो आजकल आ रहा है इमोशनल अत्याचार। ये फिल्म DEV D के गाने कैसा तेरा जलवा ... कैसा तेरा प्यार .. तेरा इमोशनल अत्याचार। फिल्म में अभिनेता के इमोशनल अत्याचार में ढेर सारी लड़कियों के साथ संबंध थे तो, बिंदास के शो में लड़की या लड़का अपने प्रेमी की परीक्षा लेता है जिसमें अकसर लड़की का प्रेमी चैनल की हीरोइन के चक्कर में फंस ही जाता है। ये एक नमूना है। इसी चैनल की नई प्रोमो लाइन में एक लड़की कहती है कि बिंदास हूं इसका मतलब ये तो नहीं कि मैं सबके साथ सोने के लिए तैयार हूं। ऐसी ही लड़का कहता है कि मैं बिंदास हूं इसका मतलब ये नहीं कि मैं ड्रग्स लेता हूं।

सबसे ज्यादा सुना जाने वाले रेडियो स्टेशन का दावा करने वाला RED FM का स्लोगन है ये आप के जमाने का रेडियो स्टेशन है, बाप के जमाने का नहीं। आप के जमाने का रेडियो स्टेशन साबित करने के लिए गाने के बीच-बीच में रेडियो जॉकी सवाल पूछता रहता है कि क्या आपको लगता है कि रियलिटी शोज हमारी संस्कृति भ्रष्ट कर रहे हैं या फिर क्या आपको बड़े होकर डॉक्टर, इंजीनियर या वकील बनना है तो, काइंडली कट लीजिए क्योंकि, ये आज के जमाने का रेडियो स्टेशन है बाप के जमाने का नहीं। वैसे तो, ये सुनते वक्त बस बिंदास रेडियो जॉकी की चुहलबाजी या रेडियो स्टेशन की मस्ती भर लगती है लेकिन, थोड़ा ध्यान से सुनें तो, समझ में आता है कि ये सचमुच कैसे हंसते-गाते हमारी संस्कृति का बैंड बजा देते हैं।

RED FM पर गाने सुनते हुए मैं वैलेंटाइन डे के आसपास सफर कर रहा था। रास्ते में एक रेडियो डॉकी का नाम सुना तो, दंग रह गया। उसने चहकते हुए बताया मैं हूं हरामखोर अविनाश। वो, पूरे कार्यक्रम के दौरान लड़के-लड़कियों से अपनी हरामखोरी साबित करने को कह रहा था। और, हरामखोरी मैसेज करने के लिए नंबर भी बता रहा था साथ ही ये प्रलोभन भी कि अगर हरामखोरी जंची तो, वैलेंटइन डे पर वो, बेहतरीन हरामखोरी भेजने वाले लड़के या लड़की को स्टूडियो बुलाएगा। वैलेंटाइन डे के शो का नाम भी था लगी लव की। लव की लगती भी है ये पहली बार सुना।

विज्ञापन भी कुछ इसी तरह से बदलते जमाने के लड़के-लड़कियां तैयार कर रहे हैं। सुरीले जिंगल और प्रति सेकेंड प्लान के साथ मोबाइल बाजार में उतरा टाटा डोकोमो का विज्ञापन में एक लड़का-लड़की साथ बैठे हैं। लड़के की नजर एक दूसरी लड़की पर पड़ती है और वो, लड़की को बातों में फंसाकर दूसरी लड़की के साथ जरा मस्ती के चक्कर में उठता है जाते समय देखता है कि उसकी गर्लफ्रेंड ने दूसरा ब्वॉयफ्रेंड पकड़ लिया। थोड़ा सा वो, हतप्रभ दिखता है फिर मुस्कुराता है और नई गर्लफ्रेंड के साथ चल देता है। पीछे से टाटा डोकोमो का संदेश सुनाई देता है when everyday there is new plan then why take fix mobile plan. Tata docomo daily plan. ये नए जमाने का दर्शन हम जैसे लोगों को डरा रहा है। शायद हम पुरातनपंथी हो रहे हैं क्या पता नहीं।

Friday, March 12, 2010

होली खेलना मना है .................
पिछले दिनों कालेज परिसर में होली खेलने के जुर्म में कुछ विद्यार्थियों के पहचान पत्र ले लिए गए.....क्यों हिल गए न कि भारत में भी ऐसा हो सकता है ....जी हाँ जामिया मिल्लिया इस्लामिया में होली के पहले कुछ विद्यार्थियों ने एक दुसरे को रंग गुलाल लगाने शुरू किये ।कुछ देर बाद ही गार्ड ने आ कर उन सभी विद्यार्थियों को पहचान पत्र देने को कहा , इससे पहले कि वो लोग कुछ समझ पाते उन्हें प्रोक्टर के पास ले जाया गया । विद्यार्थियों ने बताया भी कि उन्हें नहीं पता कि जामिया में होली खेलना मन है ,नाहीं कही नोटिस लगे गई थी,लेकिन उन्हें तुरंत घर चले जाने को कहा गया। छात्रों के सामने ही एक गार्ड ने वारलेस से सभी गार्डों को सुचना दी कि कैम्पस में घूमते रहो अगर कोई होली खेलता दिखे तो पकर के ले आओ । खैर ..छात्र बिना आई कार्ड के ही वापस आ गए ।
होली के बाद उनके आई कार्ड डिपार्टमेंट में ये कह कर भेज दिया गया कि ये लोग शोर मचा रहे थे जिससे दूसरी class disturb हो रही थी जबकि वहां एक ही क्लास हो रही थी वो भी दूर ...... मामले पर लिपा-पोती करने के लिए झूट का सहारा लिया जा रहा है। बेचारे विद्यार्थी सोच-सोच के परेशान हो रहे हैं कि जब उसी परिसर में ईद पर गले मिल सकते हैं ,इफ्तार कर सकते हैं, यहाँ तक कि डिपार्टमेंट कि तरफ से इफ्तार पार्टी का आयोजन किया जाता है .........तो फिर होली खेलने पे उनके साथ ऐसा क्यूँ हुआ? जबकि जामिया को गंगा-जमुनी तहज़ीब के लिए जाना जाता है । इस घटना के बाद गंगा-जमुनी तहज़ीब कि पोल खुलती नज़र आ रही है। आपकी क्या राय है हमे ज़रूर बताएं.......

Friday, March 5, 2010

उठो ,जागो और आगे बढ़ो ........

मित्रो, मार्च आते ही परीक्षा का दौर शुरू होता है. बोर्ड की परीक्षाएं शुरू हो चुकी हैं. सभी विद्यार्थियों और उनके माता-पिता के लिए ये एक महत्वपूर्ण दिन होते हैं. मैं, देश के भविष्य, अपने उन सभी युवा मित्रों को जो कि कक्षा X और XII की परीक्षा में बैठेंगे उन्हें शुभकामनाएं देता हूँ. सभी उपलब्धियों की जड़ों में अथक परिश्रम, लगन और समर्पण होते है. जीवन की इस यात्रा में हमें मिली सभी सीखों का परीक्षण होता रहता है. इस मायने से हम सभी विद्यार्थी हैं. यहाँ मैं स्वामी विवेकानंद की कुछ पंक्ति quote करना चाहता हूँ: "उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्ति तक मत रुको." परीक्षाएं तो जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है. अपनी चिंताओं को पीछे छोड़; ज्ञान के लिए जुट जाओ परिणाम अपने आप आयेंगे. मैं success का अपना मूल मंत्र आपसे share करना चाहता हूँ: "Desire + stability = Resolution. Resolution + Hard work = Success". मुझे पूरा विश्वास है की आप सभी देश के उज्वल भविष्य के लिए अपना योगदान देने में सक्षम है. पुनः मेरी ओर से शुभकामनाएं.
शिवेन्दु राय

Thursday, March 4, 2010

आदिवासी लड़कियों के साथ रोज़ एक शाइनी

छत्तीसगढ़ की नाबालिग लड़कियों को महानगरों में घरेलू नौकरानी का काम देने के झांसे से ले जाने के बाद उन्हें अंधेरी कोठरी में ढ़केल देने का खेल सालों से चल रहा है लेकिन शाइनी आहूजा प्रकरण से यह सवाल फिर खड़ा हो गया है. अगर जशपुर, सरगुजा और कोरबा के गांवों में आप जाएं तो आपको इन इलाकों से गायब आदिवासी लड़कियों के साथ हर रोज़ एक शाइनी के किस्से मिल जाएंगे.
इसे संयोग ही कहा जाएगा कि जिस समय शाइनी आहूजा प्रकरण चर्चा में था, उसी समय लड़कियों की मंडी के कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ के जशपुर में मुंबई पुलिस का एक दल बंधक बनाई गई लड़की को छोड़ने के लिए आया हुआ था.कुछ उत्साही पत्रकारों ने अपनी कल्पना शक्ति का सहारा लिया और छत्तीसगढ़ के अख़बारों में 19 मार्च को सुर्खियां रही कि मुम्बई के फिल्म स्टार शाइनी आहूजा ने जिस लड़की से बलात्कार किया, वह छत्तीसगढ के जशपुर जिसे के अंतर्गत आने वाले डूमरटोली गांव की रहने वाली है. जैसा कि जशपुर के पुलिस अधीक्षक अक़बर राम कोर्राम बताते हैं- “ शाइनी आहूजा प्रकरण के बाद मुम्बई से पुलिस की एक टीम डूमरटोली आई थी, लेकिन इसका शाइनी प्रकरण से कोई सम्बन्ध नहीं है. वह एक लड़की को मुम्बई से यहां छोड़ने पहुंची थी, जो पिछले 9 मार्च से गायब थी. इस लड़की का नाम गायत्री है और वह अपनी एक सहेली अनीमा के बहकावे में आकर मुम्बई चली गई थी.” अनीमा के कुछ परिचितों के ज़रिये गायत्री का पता चला और उसे डूमरटोली लाकर उनके परिजनों को सौंप दिया गया. लड़कियों को ट्रैफेकिंग से बचाने और उन्हें सीमित साधनों के बीच दिल्ली, मुम्बई, गोवा जैसे महानगरों से छुड़ाकर लाने वाली जशपुर की सामाजिक कार्यकर्ता एस्थेर खेस का कहना है कि शाइनी प्रकरण के बीच मुम्बई की पुलिस का जशपुर पहुंचने से यह फिर साफ़ हो गया है कि वहां बड़ी तादात में घरेलू नौकरानियों के रूप में काम करने वाली लड़कियां छत्तीसगढ़ से गई हुई हैं. हज़ारों शिकार सुश्री खेस कहती हैं कि शाइनी ने जिस लड़की को शिकार बनाया वह गायत्री तो नहीं है, लेकिन हमारे पास दर्जनों ऐसे मामले हैं जिनमें सबूत है कि जशपुर की लड़कियों को घरेलू काम कराने के बहाने से न केवल देश के भीतर बल्कि कुवैत और जापान तक ले जाए गए.
दिल्ली और गोवा जा पहुंची कई लड़कियों का सालों से पता नहीं है और उनके मां-बाप दलालों के दिए फोन नम्बर और पतों पर सम्पर्क नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि इनमें से ज़्यादातर फर्ज़ी हैं. लड़कियों को ले जाने के बाद प्लेसमेंट एंजेंसियों के दफ्तरों में फिर कोठियों में इन लड़कियों को 24 घंटे रखा जाता है. जब घर में पुरूष सदस्य अकेले होते है तो उनके साथ बलात्कार किया जाता है. इनको ठीक से भोजन, कपड़ा तक नहीं मिलता, इन्हें कोई छुट्टी नहीं मिलती. इनका वेतन दलालों के पास जमा कराया जाता है. लड़कियों को अपने घर लौटने का रास्ता पता नहीं होता इसलिये वे सारा ज़ुल्म चुपचाप सहती हैं. सुश्री खेस का यह भी कहना है कि दिल्ली में 150 से ज्यादा प्लेसमेंट एजेंसियां काम कर रही हैं जो झारखंड, पश्चिम बंगाल और उत्तर छत्तीसगढ़ से लड़कियों को बुलाते हैं. इनके एजेंट का काम इन लड़कियों के वे रिश्तेदार करते हैं, जो कई साल पहले से ही इन महानगरों में काम कर रहे होते हैं. नया ट्रैफेकिंग कानूनछत्तीसगढ़ महिला आयोग की अध्यक्ष विभा राव राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष गिरिजा व्यास के इस बयान से सहमत हैं कि गरीब नाबालिग लड़कियों को शोषण का शिकार होने से बचाया जाए. श्रीमती राव को यक़ीन है कि अब देशभर में घरेलू नौकरानियों की सुरक्षा को लेकर नई बहस छिड़ेगी. उनका कहना है कि इस समस्या से छत्तीसगढ़ सर्वाधिक प्रभावित राज्यों में से एक है, इसलिय़े वे चाहती हैं कि ट्रैफेकिंग को लेकर भी मौजूदा कानूनों की समीक्षा की जाए और इसे रोकने के लिए प्रावधान कड़े किए जाएं. श्रीमती राव ने शाइनी आहूजा प्रकरण में छ्त्तीसगढ़ की लड़की के शिकार होने की अफवाह के बाद जशपुर कलेक्टर और एस पी को पत्र लिखकर पूरे मामले का प्रतिवेदन देने के लिए भी कहा है. वास्तव में घरेलू नौकरानियों की सुरक्षा व ट्रैफेंकिंग रोकने के ख़िलाफ एक कानून पिछली सरकार में ही बन जाना था. तत्कालीन केन्द्रीय महिला बाल विका मंत्री रेणुका चौधरी ने जून 2007 तक इस कानून का ख़ाका तैयार करने के लिए देशभर में सक्रिय महिला संगठनों से सुझाव मांगा था. लेकिन प्रस्ताव भेजने के बाद क्या हुआ यह किसी को नहीं मालूम. ट्रैफेंकिंग के ख़िलाफ ही काम कर रहीं कुनकुरी की अधिवक्ता सिस्टर सेवती पन्ना का कहना है कि उनसे भी सुझाव मंगाए गए थे लेकिन उसका क्या हुआ उन्हें पता नहीं. इसमें उन्होंने महानगरों से छुड़ा कर लाई जाने वाली लड़कियों के पुनर्वास के लिए भी पुख़्ता उपाय सुझाए थे, क्योंकि देखा गया है कि महानगरों में रहकर लौटने वाली लड़कियां गांवों में व्यस्त न होने के चलते विचलित रहती हैं. वे यहां दुबारा घुल-मिल नहीं पाती और दुबारा महानगरों की तरफ भागने का रास्ता तलाश करती हैं.बहरहाल, शाइनी आहूजा प्रकरण ने एक मौका और दिया है कि छत्तीसगढ़, झारखंड, पश्चिम बंगाल से तस्करी कर महानगरों में भेजी जा रही लड़कियों की सुरक्षा के लिए ज़रूरी कदम उठाएं जाएं.