hum hia jee

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Saturday, January 16, 2010

भविष्‍य उज्‍जवल है वेब पत्रकारिता का

परिवर्तन संसार का नियम है और इस नियम से मीडिया जगत भी अछूता नहीं है। समाचार, विचार और सूचनाएं पाने के पहले जहां दो मुख्‍य स्‍त्रोत अखबार और रेडियो थे, वहीं इसमें समय के साथ परिवर्तन देखने को मिले और इलेक्‍ट्रॉनिक माध्‍यम यानी टेलीविजन ने इस ओर कदम रखे। उस समय अनेक लोगों की राय उभरी की समाचार और सूचना का यह माध्‍यम बेहद सशक्‍त है जो अखबार एवं रेडियो को जल्‍दी ही इतिहास बना देगा। लेकिन सच्‍चाई इसके विपरीत रही। टीवी न्‍यूज चैलनों के विकास के साथ-साथ अखबार पढ़ने और रेडियो सुनने वालों की संख्‍या में कहीं कोई कमी दिखाई नहीं दी। रेडियो का जहां एफएम फ्रीकवेंसी पर विस्‍तार हो रहा है, वहीं अनेक नए अखबारों के आने के साथ पुराने अखबारों के नए-नए संस्‍करण निकल रहे हैं। अब इस कड़ी में वेब पत्रकारिता जुड़ गई है।



हालांकि वेब पत्रकारिता एकदम नई नहीं है। भारत में इसका आगमन तकरीबन दस साल पहले हुआ। लेकिन डॉट कॉम कंपनियों की माली हालत वर्ष 2002 के आसपास इतनी तेजी से बिगड़ी की, इस पत्रकारिता के अस्तित्‍व पर ही सवाल लग गया। लेकिन कुछ कंपनियों ने अपनी समाचार वेबसाइटों को जैसे-तैसे जीवित रखा और विज्ञापनों खासकर गुगल सर्च इंजन जैसे विज्ञापनों और दूसरे उत्‍पादों की सेवाओं के सहारे इन्‍हें बनाए रखा। हालांकि, जब से अखबारों ने अपनी वेबसाइटों को बनाया है, मीडिया के इस माध्‍यम में फिर से जोश दिखाई दे रहा है। इस जोश को बढ़ाने में बड़ा योगदान विदेशी कंपनियों गुगल, याहू और एमएसएन का भी है जो हिंदी व अन्‍य भारतीय भाषाओं के महत्‍व को समझते हुए इन्‍हें तेजी से अपने यहां जगह दे रही हैं। जागरण अखबार और याहू ने पिछले दिनों एक पोर्टल बनाने का जो करार किया है वह इस दिशा में मील का पत्‍थर साबित होगा। इस पोर्टल पर सभी की नजरें गड़ी हैं और इसके आगमन से वेब पत्रकारिता को वेग मिलेगा। वेब पत्रकारिता जगत में अभी तक एक अच्‍छी शब्‍दावली भी नहीं बन पाई है, जो एक बड़ी कमी है। अखबार में जहां हम समाचार पढ़ते हैं, वहीं इलेक्‍ट्रॉनिक और रेडियो माध्‍यम में उन्‍हें सुनते हैं, जबकि वेब में समाचारों को देखा जाता है। पढ़ने, सुनने और देखने की अलग-अलग विशेषताओं की वजह से यहां काम में आने वाले शब्‍दों का चयन भी इसी के अनुरुप करना पड़ता है। तीनों माध्‍यमों के शब्‍दों को एक दूसरे में काम में लेने से इसका वास्‍तविक आनंद कम हो जाता है। इस समय वेब में जो कुछ लिखा जा रहा है, उसमें लेखक जो लिख रहे हैं या फिर जो समाचार आ रहे हैं वे जस के तस जा रहे हैं। वेब पत्रकारिता के लिए जरुरी देखने वाले शब्‍दों को गढ़ने का कार्य अभी शुरू नहीं हुआ है। यहां एक और अहम बात देखें तो वेब पत्रकारिता में आने वाले पूर्णकालिक पत्रकारों की संख्‍या प्रिंट और इलेक्‍ट्रॉनिक माध्‍यम की तुलना में काफी कम है। प्रिंट और इलेक्‍ट्रॉनिक माध्‍यम में काम कर रहे पत्रकारों का ही वेब पत्रकारिता में अधिक योगदान है। इन्‍हीं माध्‍यमों के पत्रकार समय-समय पर स्‍टोरी और लेख से वेब पत्रकारिता को आगे बढ़ाने में योगदान दे रहे हैं।



पत्रकारिता में आने वाले नए चेहरों का पहला आकर्षण इलेक्‍ट्रॉनिक माध्‍यम और दूसरा प्रिंट माध्‍यम है। लेकिन वेब पत्रकारिता आने वाले समय का सशक्‍त माध्‍यम है और इसे इस समय की बुनियादी मेहनत से ताकतवर बनाया जा सकता है जिसके लिए नए चेहरे कम ही तैयार दिख रहे हैं। यहां एक गलतफहमी भी दूर करना चाहेंगे कि कुछ लोग मानते हैं कि वेब का मतलब है कि दफ्तर या घर में बैठकर समाचारों, विचारों और स्‍टोरी का अनुवाद अथवा संपादन कर वेबसाइट में डालना। लेकिन यह पूरी तरह गलत है। हालांकि, जो लोग ऐसा कर रहे हैं वे यह जान लें कि उनकी वेबसाइट इस समय चल सकती है लेकिन उनका अंत भी नजदीक है। समाचारों के लिए चल रही वेबसाइटें न्‍यूज एजेंसियों का वैसे ही सहारा ले रही है, जैसा कि प्रिंट, रेडियो और इलेक्‍ट्रॉनिक माध्‍यम वाले लेते हैं। अनेक समाचार वेबसाइटों के पास रिपोर्टरों की भी टीम है जो तेजी से समाचार अपडेट कर रहे हैं। अपनी रिपोर्टर टीम खड़ी कर वेबसाइट पर आने वाले वर्ग की जरुरत की नब्‍ज को पहचानकर जो समाचार व सूचनाएं देगा वही वेबसाइट आगे चल पाएगी। देश में तेजी से बढ़ रहे कंप्‍यूटरीकरण और ब्राड बैंड सेवा ने वेब पत्रकारिता के विस्‍तार को भी बढ़ाया है। जहां अभी भी टीवी चैनल और अखबारों की पहुंच नहीं बन पाती है, वहां इंटरनेट कनेक्‍शन लोगों को देश दुनिया के साथ संपर्क में रख सकता है। अखबारों के ई संस्‍करण उन क्षेत्रों में आसानी से पहुंच जाते हैं, जहां उनकी छपी कॉपियां नहीं पहुंच पाती। अब इसमें एक और परिवर्तन देखने को मिला है और वह है मोबाइल सेवाओं का विस्‍तार। डेस्‍क टॉप या लैपटॉप न होने की दिशा में मोबाइल पर वेबसाइट खोलकर समाचारों और सूचनाओं को जाना जा सकता है। हालांकि, देश में बिजली की कमी, कंप्‍यूटर की लागत और ब्राड बैंड सेवा/इंटरनेट उपयोग का महंगा शुल्‍क वेब के विस्‍तार में मुख्‍य अड़चन है, लेकिन देश को आर्थिक महासत्‍ता बनाने के लिए बुनियादी सुविधाओं जिसमें बिजली भी शामिल है, को तेजी से बढ़ाया जा रहा है। उम्‍मीद की जा सकती है कि आने वाले कुछ वर्षों में बिजली की कमी पूरी तरह दूर हो जाएगी। साथ ही ब्राड बैंड सेवा अपने विस्‍तार के साथ सस्‍ती होती जाएगी। इसी तरह कंप्‍यूटरों की लागत को भी पिछले कुछ वर्षों में वाकई कम किया गया है और आज एक लैपटॉप, डेस्‍कटॉप से सस्‍ता हो गया है। लेकिन अभी इसके दाम और नीचे लाने की जरुरत है जिसके प्रयास चल रहे हैं। इन तीन पहलूओं पर यदि तेजी से काम होता है तो समाचार और सूचनाओं का अगला सबसे ताकतवर माध्‍यम वेब पत्रकारिता ही होगा, इसमें अचरज नहीं है।



प्रिंट और इलेक्‍ट्रॉनिक माध्‍यम की तुलना में वेब पत्रकारिता बाल्‍यवस्‍था से गुजर रही है, इसे युवा बनने दीजिए फिर यह भी तेजी से दौड़ेगी। आइए स्‍वागत करें पत्रकारिता के इस शिशु का। वेब पत्रकारिता के भविष्‍य पर केंद्रित मीडिया विमर्श का यह अंक आपको कैसा लगा अपनी प्रतिक्रिया से हमें जरुर अवगत कराएं।
मिले राम को विश्वमित्र,, एकलव्य को द्रोणाचार्य मिलें,
कबिरा को रामान्द मिलें, हमको बस गुरु का प्यार मिले।

यदि विश्वमित्र ने रघुवर को शिक्षा का कोई दान दिया,
प्रभु ने भी उनकी रक्षा में वन में धनु का संधान किया।
आचार्य द्रोण ने शिक्षा के बदले में अँगूठा माँग लिया,
तो रामानंद ने भी कबीर पर पैर धरा तब ज्ञान दिया।
हम से सर उन ने कुछ लिया नही,
बस प्यार दिया, बस प्यार लिया
हमको भाविष्य में भी उनसे
ये प्यार भरा आगार मिले।

कबिरा को रामान्द मिलें. हमको बस गुरु का प्यार मिले।

होंगे कितने ही शिष्य, आप पर है अधिकार अनेकों का,
इस तुच्छ चीज़ सी कंचन को पर दे दें इतना सा मीका,
जब नेह सभी को बाँट चुकें,छोड़े से गुरुवर हाथ रुकें,
एक नेह दृष्टि दीजेगा डाल, जिससे मेरा संसार खिले,
कबिरा को रामान्द मिलें. हमको बस सर का प्यार मिले।

चौथी दुनिया का मतलब

किसी भी नए अखबार को निकालने के लिए एक नाम की जरूरत होती है. नाम दिए जाते हैं और उस नाम को लेकर सवाल भी खड़े होते हैं. अक्सर होता है कि पहले कोई भी नाम दे दिया जाता है, फिर उसका औचित्य सिद्ध करने के लिए तर्कों की कलाबाजियां खाई जाती हैं. हमारे साथ ऐसा नहीं है. हमने अपने अखबार का नामकरण यों तो नहीं कर दिया है और ना ही अब इस नामकरण का औचित्य सिद्ध करने के लिए यह संपादकीय लिख रहे हैं. आने वाले समय में अखबार अपना नाम खुद ही परिभाषित कर देगा. फिर भी, हम चाहते हैं कि अखबार का नाम चौथी दुनिया रखने के पीछे हमारे मन में जो बातें हैं, वे आप तक पहुंचें.

हम मानते हैं कि अपने जन्म से लेकर आज तक समाज का जो बंटवारा हुआ है, उसे हमेशा सत्ता, साहूकार और सिपाही ने परिभाषित किया है. आदिम समाज से चलकर कबीलाई, सामंती, पूंजीवादी और समाजवादी व्यवस्था में पहुंचे. इस मौजुदा समय चौथी दुनिया की दूसरी पारी के विशेषांक में पहरी पारी का पहला संपादकीयतक विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं को परिभाषित करने में जनता की कोई हिस्सेदारी नहीं रही है. इसका सिर्फ इस्तेमाल हुआ है. यही वजह है कि चाहे रेगन-गोर्बाचौव की पहली दुनिया हो या पश्चिम के विकसित औद्योगिक देशों के साहब-बहादुरों की दूसरी दुनिया या फिर राजीव गांधी, जयवर्द्धने, जिया-उल-हक, इरशाद आदि की तीसरी दुनिया. इनमें कहीं भी वह आदमी शामिल नहीं है, जो समाज का निर्माता तो है, नियंता नहीं है. उसके पास सिर्फ मेहनत है, आवाज नहीं, जिसका कोई मुल्क नहीं है. लेकिन सत्ता ने बेहद चालाकी से भूगोल की सीमा में कैद कर दिया है. इन तीनों दुनिया का अर्थ आज वहां की जनता के बजाय वहां की सरकारों में निहित हो गया है.

अपने अखबार का नाम चौथी दुनिया रखने के पीछे हमारी ईमानदार मंशा यह है कि इन तीनों दुनिया की सत्ता द्वारा जिन लोगों को जीवन के हाशिए पर धकेल दिया गया है, यह अखबार उनकी आशा-आकांक्षा, सुख-दुख, और उनके अपने संघर्ष का मंच बने. तीन दुनियाओं का मौजूदा नकली बंटवारा हमें इसलिए नामंजूर है क्योंकि इन दुनियाओं के सभी देशों की आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज भी अपनी आर्थिक इयत्ता, मर्यादा और गरिमा के लिए संघर्षशील है. संस्कृति के तल पर, जात या पात के आधार पर पैदा किए गए अल्पसंख्यक, औरत, बूढे, जवान और बच्चे अपनी ही सरजमीन पर हाथ-पाव गंवा बैठे हैं. रोजमर्रा की जरूरतों के लिए मर-खप रहे हैं. क्या दीन दुनियाओं के भीतर सांस लेती चौथा दुनिया की शक्ल ऐसी ही नहीं है. यही लोग चौथी दुनिया के नायक हैं. हम दुनिया के एक और नकली बंटवारे के हिमायती नहीं हैं, न ही तीन दुनियाओं के समानांतर हम कोई नई दुनिया खड़ी करना चाहते है. हम तो उन तमाम वंचित और सताए जा रहे लोगों की आवाज बनने के आकांक्षी हैं, जो अपने-अपने मुल्कों में कहीं पीछे छूट गए हैं. इन छूटे हुए लोगों का मंच है चौथी दुनिया. हमारी कोशिश रहेगी कि अपने हक और मर्यादा के लिए लड़ता हुआ आदमी इस अखबार में अपनी सच्ची तस्वीर देख सके और इसे अपने दुख-दर्द का भरोसामंद साथी समझ सके. किसी भी सही अखबार का इससे बड़ा मतलब और होता भी नहीं है

जब तोप मुकाबिल हो

क्या हमारी दुनिया सचमुच अंधेरी और अंधी होती जा रही है? हमारी दुनिया से मतलब हम पत्रकारों की दुनिया से है. हम इसलिए यह बात उठा रहे हैं क्योंकि पत्रकारों को अलिखित अधिकार मिले हैं जिनका सभी सम्मान करते हैं. लोकतंत्र की सर्वमान्य धारणा है कि विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका की तरह मीडिया भी समान अधिकार संपन्न क्षेत्र है और उसे तीनों पर सार्थक और सही टिप्पणी का अधिकार है. किसी को भी, कहीं भी रोक कर सवाल पूछने का हक सिर्फ पत्रकारों का माना गया है और लोग भी उस हक की इज्जत करते हैं. आम लोगों के बीच अब तक यह विश्वास बना हुआ है कि जब कहीं भी उनकी सुनवाई न हो, कोई भी बात नहीं सुने तो पत्रकारों के पास चले जाओ. वे जरूर बात सुनेंगे और जब छापेंगे या दिखाएंगे, तो सरकार का वह व्यक्ति जो उनके दुख-का जिम्मेदार है, जवाब देने को मजबूर होगा.

हम इन कसौटियों से जुड़े अधिकारों का तो जम कर उपयोग करते हैं. लेकिन उसकी जिम्मेदारियां नहीं उठाते. इन जिम्मेदारियों को न उठाने का परिणाम अपने सबसे बुरे स्वरूप में हमारे सामने आ रहा है. पहले कहा जाता था कि थोड़ी शराब पिला दो और जो चाहे लिखवा लो. धीरे-धीरे बात काम कराने की, ठेकेदारी तक पहुंच गई और आज हमारे ही पेशे के कई बड़े और छोटे साथी काम कराने का ठेका लेने लगे हैं. चाहे अक्षरों की दुनिया हो या तस्वीरों की दुनिया, गंदी मछलियां हर जगह दिखाई दे रही हैं. पीआर जर्नलिज्म की एक नई श्रेणी पैदा हो गई है जो राजनैतिक दलों या बड़े घरानों को सलाह देती है कि कैसे उन्हें अपनी ताकत और साख बढ़ानी चाहिए. जब चुनाव आते हैं, तो चाहे बड़े पत्रकार हों या छोटे, वे अपने-दलों के रणनीतिकार में तब्दील हो जाते हैं. वे अपनी टोली बनाते हैं और प्रचार का हिस्सा बन जाते हैं.

सबसे बुरी हालत तो अब हो गई है. पिछले आम चुनाव से यह बीमारी खुलेआम सामने आ गई है और कोई इसे छिपाना नहीं चाहता. अखबारों ने और टेलीविजन चैनलों ने अपने संवाददाताओं से कहा कि आप उम्मीदवारों से पैसा लीजिए और उनकी रिपोर्ट छापिए या दिखाइए. एक संपादक जो मालिक हैं, उन्होंने अपने संवाददाताओं से भरी मीटिंग में कहा कि हम जानते हैं कि आप लोग चुनावों में लिखने का पैसा लेते हैं. अब आप हमारे बताए रेट पर पैसा लीजिए और अपना कमीशन उसमें से लीजिए. मीटिंग में मौजूद एक भी संवाददाता ने प्रतिवाद नहीं किया कि वे ऐसा नहीं करते. बड़े राजनैतिक दल टेलीविजन के बड़े पत्रकारों को व्यक्तिगत रूप से और चैनलों को संस्था के रूप में मोटी रकम देते हैं ताकि वे उनके बारे में प्रचार न करें तो कोई बात नहीं, लेकिन हानि पहुंचाने वाली रिपोर्ट तो न ही दिखाएं. अगर कोई अखबार या चैनल इससे इनकार करता है, तो हम उसे अपवाद मानकर अपनी गलती की क्षमा मांग लेंगे. पर यदि सभी ऐसा करते हैं, तो हमें इस कहानी के विद्रूप स्वरूप को सामने लाने का हक होगा. इस सारे क्षरण में आम आदमी की तकलीफें हमारें एजेंडे से गायब हो गई हैं और परिणाम सामने आ रहा है कि वह हम पर विश्वास खोता जा रहा है. यह अजीब अंतर्विरोध है कि जिसके लिए मीडिया की बुनियादी प्रतिबद्धता है, वही मीडिया पर भरोसा नहीं करता या कम भरोसा करने लगा है.

प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट और पत्रकार सुधीर तैलंग जब मिलने आए, तो व्यथा से बोले कि पिछले पांच सालों की पांच ऐसी रिपोर्टं याद नहीं आ रही हैं. संतोष तिवारी मिलने आए तो कहने लगे कि इतनी ज्यादा घुटन है कि नौकरी छोड़ने का मन कर रहा है. साथ ही कहा कि पत्नी का कहना है कि पत्रकारिता करो, नहीं तो तुम टूट जाओगे. ऐसे नामों की लम्बी फेहरिस्त है, पर सवाल है कि आखिर यह स्थिति आ क्यों रही है. क्यों खबर से, खबर तलाशने की मेहनत से, पाठक को सही बात बतलाने से और पाठक के पक्ष में खड़े होने से हम घबरा रहे हैं. किसका दबाव पत्रकारिता के पेशे पर है, क्या बाजार हमें यह कहता कि समाचार या जो घट रहा है, उसे न दिखाएं या छापें. क्या मालिक संपादकों को इसके लिए विवश कर रहे हैं या संपादक ही पत्रकारों को समाचार के अलावा सब कुछ लिखने या दिखाने के लिए प्रेरित कर रहे है.

मेरा मानना है कि जितना हम अपने कर्तव्य से दूर जाएंगे, उतना हम देश को खतरे में डालेंगे. जितना ज्यादा समाचारों का या जानकारी का संप्रेषण सीमित होगा, उतना ही देश में अविश्वास बढ़ेगा. यह अविश्वास वर्गों के बीच का हो सकता है, धर्मों के बीच का हो सकता है और जनता तथा सरकार के बीच का हो सकता है. और यहीं मीडिया का रोल आता है कि वह यह सब न होने दे. अगर मीडिया की चूक, भूल या जान-बूझ कर की गई गलती की वजह से अविश्वास बढ़ता है तथा हम अराजकता की ओर बढ़ते हैं, तो इसका सबसे पहला असर हम पर यानी मीडिया पर ही पड़ने वाला है. अगर सत्ता को हमने यह अहसास करा दिया कि हम मैनेज हो सकते हैं, तो हमे आगे सेंसरशिप के लिए तैयार रहना चाहिए. और यदि विपक्ष को हमने यह संकेत दिया कि हम आसानी से प्रभावित किए जा सकते हैं, तो हमें गोली और लाठी से दबने की दिमागी तैयारी रखनी चाहिए.

संपादकों, पत्रकारों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लोगों को अगर अब भी संभलना न आया या उन्होंने संभलना ना चाहा, तो अगले पांच साल यानी पंद्रहवीं लोकसभा के कार्यकाल के बाद उन्हें संभलने का मौका ही नहीं मिलेगा. लोकतंत्र के नाम पर ऐसी ताकतें सामने आ रही हैं जिनका लोकतंत्र में भरोसा ही नहीं है. उसी तरह पत्रकारिता के क्षेत्र में उनकी पैठ बढ़ रही है जो पत्रकारिता के सिद्धांतों को तोड़ने में अपनी शान समझते हैं. अगर गांधीजी और सुभाष चंद्र बोस के जन्मदिन पर उनकी याद मीडिया को न आए, तो मानना चाहिए कि हमारा यानी मीडिया का नेतृत्व लिलिपुटियंस के या बौने पत्रकारों के हाथ में है.

पर ऐसे पत्रकारों की भी कमी नहीं है जो खामोश तो हैं, पर वे ऐसी स्थिति को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं. इन सबको मिल कर अपने-अपने संस्थानों में आवाज बुलंद करनी होगी और बौने पत्रकारों को उनका धर्म याद कराना होगा. एक वक्त ऐसा आता है जब बोलना परम कर्तव्य बन जाता है और पत्रकारिता के क्षेत्र में चल रही अराजक स्थिति, गलत परिभाषा और पत्रकारिता की बुनियाद को हिलाने वाली गतिविधयों के विरूद्ध हाथ उठाना ऐतिहासिक कर्तव्य बन जाता है. हमें ऐसी ही तोपों का मुकाबला करना है और ऐसे दोस्तों की तलाश भी करनी है जो तोप का मुकाबला करने में न केवल साथ दें बल्कि नेतृत्व भी करें.

Tuesday, January 12, 2010

हमारे समाज में सेक्स के बारे में या उससे संबंधित विषयों पर खुलकर बातचीत करना सामान्य रूप से अच्छा नहीं माना जाता। ऐसे वातावरण में पले-बढ़े अभिभावक भी अपने बच्चों से इस विषय पर बातचीत करने में कतराते हैं, जबकि यह आज के समय की माँग है। विद्यालयों में यौन-शिक्षा की आवश्यकता पर जो बल दिया जा रहा है, उसका प्रथम चरण घर में अभिभावकों द्वारा ही उठाया जाना चाहिये। किंतु होता यह है कि झिझक, शर्म और इस विषय पर बात करने पर होने वाली मानसिक असुविधा के चलते अधिकांश माँ-बाप इस बारे में कन्नी काट जाते हैं। उनका तर्क होता है कि समय आने पर बच्चे अपने आप सब जान जाते हैं। किंतु वे भूल जाते हैं कि आज के समय में बच्चों को यौन शिक्षा से वंचित रखना- उनके लिए कितना बड़ा खतरा मोल लेना है।

आवश्यक है कि अभिभावक अपने बच्चों के लिए ऐसा सहज वातावरण बनायें कि वे सभी तरह की (यौन संबंधी भी) जिज्ञासाएँ शांत करते हेतु उनके समक्ष अपने प्रश्न रख सकें। इस बारे में किये गये अध्ययन से पता चला है कि जिन बच्चों के अभिभावक उनसे खुलकर बातचीत करते हैं और उनकी बातें ध्यानपूर्वक सुनते हैं, ऐसे बच्चे ही सेक्स संबंधी बातें अपने अभिभावकों से कर पाते हैं। ऐसे बच्चे किशोरावस्था में यौन-खतरों से भी कम दो-चार होते हैं, बनिस्बत दूसरे बच्चों के।

अगर, बच्चों से इस संबंध में बातचीत करने में असुविधा महसूस हो रही हो तो इस संबंध में किया गया अध्ययन, विश्वसनीय दोस्तों अथवा चिकित्सक से की गई चर्चा इत्यादि काफी सहायक हो सकते हैं। इस विषय में जितना आपके ज्ञान में इज़ाफा होगा, उतनी ही सहजता से आप बच्चे से बात कर पायेंगे। अगर आप इस बारे में सहज नहीं हो पा रहे हैं तो इस स्थिति को भी बच्चे से छिपाइये मत, बल्कि कहा जा सकता है कि- `देखो! मेरे माता-पिता ने मुझसे कभी सेक्स के बारे में बातचीत नहीं की। शायद इसीलिए मैं भी सहज रूप से तुमसे इस बारे में बात नहीं कर पा रहा/रही हूँ। लेकिन मैं चाहता/चाहती हूँ कि हम इस बारे में बात करें, बल्कि सभी विषयों पर खुलकर बात करें। अत किसी भी प्रकार की जिज्ञासा हो तो बेझिझक मुझसे चर्चा की जा सकती है।'

इस संबंध में बच्चों से जितनी कम उम्र में बातचीत शुरू की जा सके- बेहतर है, और वह भी अत्यंत सहज रूप से और अधिक से अधिक जानकारी देने के हिसाब से। जैसे कि छोटे से बच्चे को जब बातचीत के माध्यम से शरीर के अन्य अंगों-नाक-कान-आँख इत्यादि की जानकारी दी जाती है तो उसी वक्त साथ-साथ उसके गुप्तांगों के बारे में भी जानकारी दे दी जानी चाहये। बच्चे को शरीर के सभी अंगों के वास्तविक नाम बताएँ। बच्चे की बढ़ती उम्र के साथ-साथ उसके शरीर में आने वाले सभी प्रकार के परिवर्तनों से भी उसे अवगत करवाते रहना चाहिये।

इस सबके बावजूद भी अगर आपका बच्चा इस संबंध में अपनी कौतूहल शांत करने के लिए आपके पास नहीं आता है तो बेहतर होगा कि कोई अच्छा-सा मौका देख कर आप ही शुरुआत कर दें। मसलन- अगर उसके किसी दोस्त की माँ गर्भवती है तो आप वहीं से शुरुआत कर सकती हैं- `तुमने देखा! राजू की मम्मी का पेट कितना फूल गया है, क्यूंकि उनके पेट में नन्हा-सा बेबी है। क्या तुम्हें पता है कि बेबी आंटी के पेट में कैसे गया?... '- बस इस तरह बात को आगे बढ़ाया जा सकता है।

आज की आवश्यकता है कि बच्चों को पशु-पक्षियों अथवा परियों इत्यादि की कहानियों के साथ-साथ जीवन से संबंधित तथ्यों से भी अवगत करवाया जाये। इस दिशा में जब हम बच्चों को यौन शिक्षा से जुड़े तथ्यों से अवगत करवाते हैं तो उन्हें यह भी समझाना होगा कि यौन संबंधों में एक-दूसरे की भलाई के बारे में सोचना, परवाह करना तथा उत्तरदायित्व निभाना जैसी बातों का कितना महत्व है? बच्चे से यौन संबंधों के भावनात्मक पहलू पर की गई बातचीत से मिली जानकारी के आधार पर वह भविष्य में सेक्स संबंधों से उत्पन्न किसी भी प्रकार की स्थिति या दबाव में सही निर्णय ले सकेगा।

बच्चों से सेक्स संबंधी बातचीत के दौरान, उन्हें उनकी उम्र के अनुसार जानकारी मुहैया करवानी चाहिये। मसलन 8 वर्षीय बच्चे को बढ़ती उम्र के साथ लड़के और लड़की में आने वाले अलग-अलग शारीरिक परिवर्तनों और कारणों को बताना चाहये कि शरीर में मौजूद हार्मोन्स के कारण ही लड़के और लड़की में अलग-अलग शारीरिक परिवर्तन होते हैं। इससे बच्चे, उम्र के साथ होने वाले शारीरिक परिवर्तनों से घबराएँगे नहीं और ना ही विचलित होंगे। विशेष रूप से किशोरावस्था में बच्चे को यौन क्रिया से जुड़े परिणामों और उत्तरदायित्वों का अहसास करवाना आवश्यक होता है। मसलन 11 से 12 वर्ष के बच्चों के साथ की जाने वाली बातचीत में अवांछित गर्भ और उससे बचाव जैसे मसलों को शामिल करना चाहिये। इसीप्रकार वर्तमान स्थिति के साथ-साथ भविष्य में होने वाले शारीरिक परिवर्तनों पर भी बच्चों के साथ बातचीत की जा सकती है। मसलन 8 वर्षीय बच्ची से मासिक धर्म के बारे में बातचीत की जा सकती है।

कई बार अभिभावक विपरीत सेक्स अर्थात पिता बेटी से तथा माँ बेटे से यौन शिक्षा संबंधी बातचीत करने में सकुचाते हैं। यह सही नहीं हैं। अपनी झिझक को अपने और बच्चे के आड़े मत आने दीजिये। इस बारे में कोई विशेष नियम नहीं है कि पिता ही बेटे से या माँ ही बेटी से इस विषय पर बातचीत करे। जैसा सुभीता हो या बच्चा जिसके अधिक करीब हो, वही उससे इस संबंध में बात कर सकता है।

जेंडर के साथ-साथ इस बात की भी चिंता मत कीजिये कि आप बच्चे की सभी जिज्ञासाओं को शांत कर पाएंगे या नहीं। इस विषय पर आप कितना जानते हैं, से महत्वपूर्ण है कि आप बच्चे को सवालों का जवाब किस तरह से दे रहे हैं? अगर आप बच्चे को यह समझाने में सफल हो जाते हैं कि घर में सेक्स समेत किसी भी प्रकार के प्रश्न पूछने पर उस पर किसी प्रकार की पाबंदी नहीं है, तो समझिये आपने किला फतह कर लिया है। हाँ, बच्चों से इस बारे में बात करते हुए कभी भी अपना उदाहरण नहीं देना चाहिये।

सेक्स संबंधी बातचीत में बच्चों को विशेष तौर पर `सेफ़ सेक्स' के बारे में बताना ज़रूरी है कि सेफ़ सेक्स का अर्थ एचआईवी तथा अन्य सेक्स संबंधित संक्रामक रोगों से बचाव है। इस संबंध में इन रोगों से संबंधित जानकारी भी दे देनी चाहिये और इस संबंध में कंडोम की भूमिका का खुलासा भी कर देना चाहिये। लगे हाथ बच्चों, विशेषकर लड़कियों के साथ की जाने वाली बातचीत में इस बात पर भी बल दिया जाना चाहिये कि यह धारणा गलत है कि पहली बार यौन संबंध बनाने पर गर्भ ठहरने की संभावना नहीं रहती। इस संबंध में भी कंडोम और गर्भ निरोधक गोलियों की भूमिका पर पर्याप्त प्रकाश डालना बेहतर रहता है। इसके अतिरिक्त, बच्चों को बताएँ कि परस्पर स्नेह और प्रेम दर्शाने का एकमात्र तरीका सेक्स ही नहीं है बल्कि और भी बहुत से तरीके हैं।

यौन शिक्षा के साथ-साथ सेक्स से जुड़ी मान्यताओं (वेल्यूज़) और अपनी संस्कृति से भी बच्चों को अवगत करवाना ज़रूरी रहता है। बच्चे इन पर चाहे अमल ना करें, किंतु उन्हें इनके बारे में जानकारी तो रहेगी, जिसका उनकी जिंदगी पर पर्याप्त असर रहेगा।