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Wednesday, February 17, 2010

Ii दलित साहित्य आन्दोलन का औचित्य ii

शिवेन्दु राय
यूं तो हिन्दी में दलित साहित्य की बुनियाद के तौर पर कबीर, दादू, रैदास, पीपा, सेन, रविदास आदि का नाम चिन्हित किया जा चुका है और दलित साहित्य के प्रणेता दलित साहित्य के संदर्भ में उन पर दलित दृष्टिकोण से अनुसंधान में लगे हुए हैं किन्तु आधुनिक दलित साहित्य की शुरुआत मराठी भाषा में रचित साहित्य से मानी जा रही है जिसकी प्रेरणा की पृष्ठभूमि में संतकवि नामदेव, चोखामिला, ज्ञानेश्वर, समर्थ रामदास, तुकाराम, एकनाथ आदि हैं।

आधुनिक दलित साहित्य आंदोलन ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले और डा. अम्बेडकर द्वारा चलाए गए सशक्त सामाजिक आंदोलन के परिणामस्वरूप उभरा है। ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले ने पहले पहल दलितों की खासतौर से दलित स्त्रियों की शिक्षा का आंदोलन चलाया। उन्होंने दलितों के उत्थान और सामाजिक सम्मान के लिए स्वयं पर अनेकानेक अत्याचार सहकर भी जागृति की एक लहर पैदा की। डा. अम्बेडकर ने उनके द्वारा तैयार जमीन पर व्यापक दलित चेतना के बीज बोये और परिणामस्वरूप, उनके जीवन काल में ही सशक्त सामाजिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक दलित आंदोलन अस्तित्व में आया। इस आंदोलन की जबरदस्त अभिव्यक्ति के रूप में भारतीय साहित्य के दृश्य पटल पर दलित साहित्य उपस्थित हुआ और सतह पर दिखाई पड़ने लगा। जल्द ही इसका प्रभाव हिंदी भाषा पर भी पड़ा। आज वर्तमान हिंदी साहित्य में दलित लेखन के उभार और उसके निरंतर विकास से इंकार नहीं किया जा सकता है। दलित साहित्य के इस जबरदस्त उभार ने भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों और आलोचकों में एक हलचल पैदा कर दी है जिससे उनका ध्यान इस ओर आकर्षित हुआ है। किन्तु इसके साथ ही यह भी सच है कि स्वयं दलित साहित्य आंदोलन और दलित रचनाकारों को वैचारिक स्तर पर अनेक अन्तरनिहित अन्तर्विरोधों का सामना भी करना पड़ रहा है।

जाति से दलित ही दलित साहित्यकार है

इस प्रस्थापना के अनुसार किसी साहित्यकार को दलित साहित्यकार होने के लिए यह अनिवार्य है कि वह दलित जाति में पैदा हुआ हो। किन्तु अभी भी यह मसला काफी बहस की गुंजाईश रखता है कि आखिर दलित कौन है? दलित साहित्य की मुख्यधारा के चिंतकों का मानना है कि दलित साहित्यकार वही है जो जाति से दलित है। वे दलित साहित्य को व्यापक अर्थों में न देखकर दलित जाति के संदर्भ में ही देखते हैं किन्तु वहां भी ‘दलित’ शब्द की व्याख्या को लेकर अस्पष्टता है। वे दलितों में उभर रहे अभिजातीय व शोषक वर्ग के उभार को दरकिनार ही करते आ रहे हैं किन्तु दलित साहित्य के चिंतकों की दूसरी धारा दलित शब्द के व्यापक अर्थ लगाती है। उनका मानना है कि किसी भी जाति या धर्म से संबंध रखने वाला व्यक्ति अगर सामाजिक और आर्थिक रूप से शोषित है तो उसे भी दलितों की एक श्रेणी के रूप में ही रेखांकित किया जाना चाहिए। आज दलितों में, खासतौर से कस्बों, नगरों और महानगरों में एक ऐसा वर्ग पैदा हो गया है जिसने गुणात्मक रूप से अच्छी सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों में जन्म लेने के कारण जातीय उत्पीड़न को बिल्कुल नहीं झेला है। इस प्रकार का दलित अन्य अमीर तबकों की तरह न सिर्फ दलितों का दुश्मन साबित हो रहा है अपितु स्वयं दलितों में ही शोषकों की एक श्रेणी को संभव बना रहा है। वह वास्तव में सत्ता का दलाल है। ऐसा दलित अगर सभी दलितों की पीड़ा को जानने, समझने और महसूस करने का दावा करता है तो इसे दलित विमर्शकार ही तय करें कि यह कितना उचित है।

अगर इस अभिजातीय और शोषक दलित को दलित साहित्य का प्रणेता माना जा सकता है तो किसी अन्य जाति में पैदा हुआ दलितवादी जनवादी लेखक को क्यों नहीं? क्या उसे दलितों का समर्थक केवल इसलिए नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि उसने दलित जाति में जन्म नहीं लिया है। यही आधार गौतम बुद्ध के संदर्भ में भी इस्तेमाल किया जाना चाहिए। गौतम बुद्ध ने राजघराने में जन्म लिया और दलित जाति से उनका दूर-दूर तक नाता नहीं था। लेकिन अपने त्याग और दलितवादी चिंतन के आधार पर वे दलितों के मसीहा बने। गौतम बुद्ध ने सभी पीड़ितों को अपने दामन में पनाह दी और उनके विहारों में अन्य जातियों के गरीबों को भी बराबरी का दर्ज़ा मिला। इसके अतिरिक्त इन्हीं विहारों में राजा, सामंत और व्यापारी लोग भी आते रहे। दलितों के जीवन की विसंगतियों पर व्यापक चिंतन और सृजन करने वाले महान साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद को भी इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए किंतु उनके प्रति दलित विचारकों का नज़रिया काफी तंग है।

जाति के आधार के संदर्भ में उन दलितों का सवाल भी उठाया जा सकता है जो धर्मान्तरण करके अन्य धर्मों में जा चुके हैं। उन धर्मों में हिंदू धर्म के विपरीत वहां उन्हें सैद्धांतिक तौर पर जाति के आधार पर छुआछात या भेदभाव नहीं झेलना पड़ा है। जातीय उत्पीड़न से मुक्ति के दलितों ने अनेक मार्ग खोजे हैं जिनमें दूसरे धर्मों में धर्मातरण भी एक प्रचलित तरीका रहा है। बुद्ध धर्म के साम्यवादी स्वरूप ने पहले पहल दलितों को अपनी ओर आकर्षित किया और हजारों दलित बौद्ध बने। इसी प्रकार जैन, इस्लाम, ईसाई, सिख व आर्य समाज आदि धर्मों में दलित धर्मातरण करके जाते रहे हैं। ऐसे लोग जिस साहित्य का सृजन करेंगे उसे किस आधार पर दलित साहित्य माना जाएगा। क्योंकि न तो वहां मनुवादी वर्ण व्यवस्था है न जाति के आधार पर दलित उत्पीड़न।

इसके अतिरिक्त यहां एक सवाल और जरूरी लगता है भले ही उसकी संभावनाएं कम हों। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि हर प्रकार का साहित्य कर्म अपने बुनियादी रूप में शोषण विरोधी और व्यापक अर्थों में सत्ता विरोधी होता है। वह समाज में व्याप्त बुराइयों की आलोचना करता है और सुखद~ मानवीय परिस्थितियों वाले समाज के निर्माण के लिए लोगों में जागृति और चेतना का प्रसार करता है। इसे विपरीत समाज में जन विरोधी या प्रगतिशील मूल्य विरोधी और सत्तापक्षी साहित्य भी खूब रचा जाता है। मान लीजिए कोई दलित साहित्यकार सत्ता के समर्थन और दलितों के विरोध में रचना करे तब क्या ऐसे साहित्य को भी दलित साहित्य केवल इसलिए माना जाना चाहिए कि उसकी रचना एक दलित साहित्यकार ने की है।

इस संदर्भ में कहना यही है कि किसी दलित साहित्यकार के लिए दलित होने की शर्त तो ठीक है किंतु ऐसे मानदंडों का होना भी जरूरी है जिनसे यह तय किया जा सके कि उसकी कौन-सी रचना दलित साहित्य मानी जाएगी और कौन-सी नहीं?
दलितों द्वारा दलितों पर रचा गया साहित्य ही दलित साहित्य

एक पत्रिका ने अपने आगामी अंक में ‘दलित साहित्य’ विशेषांक निकालने की घोषणा की थी पिछले साल। मैंने उसमें अपनी एक कहानी भेज दी और जल्दी ही वह वापस भी आ गई क्योंकि न तो उस कहानी के पात्र दलित हैं और न उसकी विषय वस्तु दलित जीवन की विसंगतियों पर प्रकाश डालती है। अधिकांश दलित विमर्शकारों द्वारा यह बात उठाई जा रही है कि केवल दलितों द्वारा दलितों की जीवन परिस्थितियों पर लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य है। यह एक संकीर्ण और अन्तर्विरोधी प्रस्थापना है। दलितों द्वारा लिखे जाने की बात तो ठीक है मगर उनका केवल दलित जीवन पर लिखने की शर्त दलित साहित्य को केवल दलित समाज और दलित उत्पीड़न के चित्रण के दायरे में कैद करने की भूल है। इससे दलित साहित्य न सिर्फ वैचारिक न सृजनात्मक स्तर पर सीमित होगा बल्कि उसका विकास भी कुंद होगा।

इस संदर्भ में संत कबीर, नामदेव, पीपा, रैदास, ज्ञानदेव, तुकाराम और एकानाथ आदि का साहित्य देखा जा सकता है। उनके जमाने में सामंतवादी व्यवस्था काफी मजबूत थी और वर्ण व्यवस्था भी। ये लोग केवल इसलिए महान कवि नहीं माने जाएंगे कि उन्होंने दलित जीवन का अपने काव्य में व्यापक चित्रण किया बल्कि वे इसलिए बड़े और महान कवि हैं कि उन्होंने पूरे समाज में व्याप्त बुराइयों और शोषणकारी व्यवस्था के विरोध में जीवन भर सशक्त सृजनकर्म किया। दलित वर्ग में जन्म लेने के बावजूद कबीर साहित्य में इक्का-दुक्का प्रसंगों के अलावा न तो दलित पात्र आते हैं और न दलित जीवन की विडम्बनाओं का ज़िक्र आता है बल्कि पूरे समाज में व्याप्त धार्मिक कटटरता, अंधविश्वास व रुढ़ियां ही उन्हें ज्यादा परेशान करती हैं। अपने संपूर्ण काव्य में वे उन्हीं पर क्रांतिकारी ढंग से प्रहार करते नजर आते हैं। फिर उपरोक्त प्रस्थापना के आधार पर उन्हें दलित साहित्य की बुनियाद कैसे माना जा सकता है?

इसके विपरीत दलित वर्ग में जन्म न लेने के बावजूद प्रेमचंद ने अपने निजी अनुभव और मानवीय संवेदना के आधार पर अपने साहित्य में न सिर्फ दलित पीड़ा का गहन चित्रण किया है बल्कि उन पर सदियों से जुल्मों-सितम की बरसात करने वाली ब्राह्मणवादी-सामंतवादी शक्तियों का न सिर्फ भंडाफोड़ किया है बल्कि उन्हें जनविरोधी साबित करते हुए उन पर निर्ममता से प्रहार भी किए हैं। याद कीजिए उनके दलितवादी होने के कारण ही हिंदी साहित्य सम्मेलन ने उन पर तमाम आरोप लगाए थे। केवल ‘कफन’ कहानी (उसको भी संकीर्ण दृष्टिकोण से परखकर) को लेकर हो हल्ला मचाने वाले दलित आलोचकों को दलित पात्रों को लेकर रची गई उनकी अन्य रचनाएं भी पढ़नी चाहिए और उन पर यथार्थवादी ढंग से विचार करना चाहिए। यह कोई सार्वभौमिक सत्य नहीं है कि दलित की पीड़ा को दलित ही जानता है और वही इसकी सही अभिव्यक्ति कर सकता है। भले ही वह दलित साहित्य हो। किसी भी उत्कृष्ट रचना के लिए केवल अनुभव ही काफी नहीं होता उसके लिए अपने समय और समाज की परिपक्व समझ, व्यापक दृष्टि, गहन मानवीय संवेदना और विलक्षण रचना शक्ति की भी आवश्यकता होती है।

फिर सवाल ये उठता है कि दलित साहित्यकार अपने रचनाकर्म को केवल जातीय शोषण तक ही क्यों सीमित करे। आज समाज में जाति के अलावा भी ऐसी सैंकड़ों समस्याएं हैं जिनसे दलितों को भी दो-चार होना पड़ रहा है। क्यों गरीबी, भुखमरी, बेकारी, भ्रष्टाचार और मंहगाई किसी दलित रचनाकार के रचनाकर्म का विषय नहीं हो सकते। क्या इन समस्याओं के चलते दलित समाज के अन्य उत्पीड़ितों से नहीं जुड़ते? क्यों एक दलित साहित्यकार अन्य उपेक्षितों की पीड़ा का चित्रण अपनी रचनाओं में नहीं कर सकता? क्यों एक दलित साहित्यकार बिना जातिगत संदर्भ दिए जो लिखे वह दलित साहित्य नहीं माना जाना चाहिए? दलित साहित्यकार क्यों समूचे आकाश पर नहीं लिख सकता है? उसके लेखन और दृष्टि को केवल जाति की सीमाओं में कैद करने वाले क्या वास्तव में दलित साहित्य के आंदोलन को आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं।

दलितों द्वारा दलितों के जीवन पर दलितों के लिए रचा गया साहित्य

दलितों में साहित्य का व्यापक प्रचार-प्रसार होने से उनमें सांस्कृतिक रूझान पैदा होगा और चेतना बुद्धि का विकास होगा। किन्तु यह कहना जितना आसान है, इसे कार्यरूप देना उतना ही कठिन है। इस समस्या का सामना जनवादी सांस्कृतिक कर्मियों को भी करना पड़ रहा है। दलित भी इससे अछूते नहीं है। उन्हें सांस्कृतिक क्षेत्र में आई जड़ता को तोड़ने के लिए व्यापक पैमाने पर कदम उठाने पड़ेंगे। पहले तो इसके लिए उन्हें दलितों में शिक्षा के व्यापक प्रसार की दिशा में काम करना पड़ेगा। अपने लेखन के दलितों में शिक्षा के व्यापक प्रसार की दिशा में काम करना पड़ेगा। अपने लेखन के दलितों में प्रसार के लिए विभिन्न सृजनात्मक तरीके इस्तेमाल करते हुए लोगों के बीच जाना पड़ेगा। दलित विचार और साहित्य संबंधी पत्र-पत्रिकाएं व्यापक पैमाने पर निकालनी होंगी। मुख्यधारा से अलग दलित साहित्य प्रकाशन की अपनी व्यवस्थाएं कायम करनी होंगी।

बहरहाल, उपरोक्त प्रस्थापना में दलित साहित्य के प्रचार-प्रसार व पठन-पाठन को दलितों तक सीमित करने का अर्थ निकलता है। यह न तो दलित साहित्य के हित में है और न दलितों के। दलित वृहत्तर समाज का अंग है। सदियों से जातिगत अपमान व भेद-भाव की जो पीड़ा दलितों ने झेली है उससे समाज के अन्य वगो± को भी परिचित होना चाहिए। दलित वर्ग तो उससे एक हद तक वाकिफ है ही। ‘केवल दलितों के लिए’ की चेपी लगाकर भी किसी दलित रचना को अन्य वगो± द्वारा पढ़े जाने से नहीं रोका जा सकता है बल्कि दलित साहित्य के व्यापक आधार के निर्माण के लिए यह जरूरी भी है कि वह समाज के अन्य वगो± तक भी पहुंचे। इससे दलित आंदोलन को दूसरे वगो± में अपने सहानुभूतिक और समर्थक मिलेंगे। दूसरे तबकों में दलित साहित्य के प्रचार-प्रसार से उसकी विवेकशीलता व गzहणशीलता बढ़ेगी व समाज के अन्य उत्पीड़ित वगो± से एकता का रास्ता खुलेगा।

दोस्त और दुश्मन की पहचान

अब इस सवाल को और नहीं टाला जा सकता है। इस सवाल पर उथले-पुथले ढंग से बहसबाजी करने के बजाए ज्यादा गहराई और व्यापकता के साथ चिंतन मनन करने की जरूरत है। अभी तक हिंदी के दलित साहित्यकार दलितों के शत्रु के रूप में ब्राह्मणवादी-सामंतवादी शक्तियों के रूप में चिन्हित कर रहे हैं। दलित विमर्श और चिंतन का यह काफी कमजोर पहलू है। इस तरफ दलित विमर्शकारों की तरफ से न तो कोई खास चिंतन हुआ है और न उनकी तरफ से सशक्त अनुसंधान ही सामने आए हैं। अधिकतर भारतीय इतिहासकारों और अर्थवेत्ताओं की इस सवाल पर अब सहमति दिखाई देती है कि भारत में न तो ब्राह्मणवादी शक्तियां मजबूत रह गई हैं और न सामंतवादी शक्तियां। इसके विपरीत भारतीय शासक वर्ग और शासन व्यवस्था पूंजीवादी शक्तियों द्वारा संचालित है। जो पिछले पचास सालों में देश को पूंजीवादी विकास के रास्ते पर काफी आगे ले आई हैं और समाज में इसका व्यापक प्रभाव दिखाई पड़ रहा है।

इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि जाति भारतीय समाज की एक कटु सच्चाई रही है और वह अब भी भले सामंतवादी विकृत मानसिकता के रूप में समाज में उपस्थित है। इसमें भी संदेह नहीं है कि वर्णव्यवस्था के कारण ही सामाजिक-आर्थिक दासता दलितों को विरासत के रूप में मिली है। जिसे वे सदियों से झेलते आ रहे हैं और आज भी किसी न किसी रूप में झेल रहे हैं। दलितों को सामाजिक सम्मान और बराबरी की बजाय जितनी घृणा और जिल्लत मिली है उससे कोई इंकार नहीं कर सकता है। किंतु आज भारतीय समाज विकास के जिस मुकाम पर खड़ा है वहां सामंतवादी शक्तियों और दलित शोषण के उनके हथियार काफी कमजोर पड़ रहे हैं। दलित विमर्शकारों को अपने दोस्तों और दुश्मनों की पहचान इसी संदर्भ में करनी चाहिए।

आजाद भारत की बागडोर बहुमत से पूंजीवादी ताकतों के हाथ में आई। सामंतवादी शक्तियां पूंजीवादी विकास के रास्ते में रुकावट थीं क्योंकि बिना उनको कमजोर किए देश को पूंजीवादी विकास के रास्ते पर नहीं ले जाया जा सकता था। अत: पूंजीवादी शासक वर्ग ने भूमि सुधार आदि कार्यक्रमों के जरिए उन पर आक्रमण किए किन्तु उनका जड़मूल से विनाश ना करके उसे अपना सहयोगी बना लिया। अत: यदाकदा सामंतवादी शक्तियों द्वारा दलितों पर अमानवीय हमलों की जो घटनाएं सामने आती हैं वह इन्हीं सामंतवादी अवशेषों द्वारा की जाती हैं जिन्हें वो समाज में अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए सरंजाम देते हैं।

पूंजीवादी विकास की दिशा में देश को ले जाने वाले शासकों ने विभिन्न कानूनों और संस्थाओं के जरिए दलितों और पिछड़ों के अधिकारों को कायम करने और उन्हें सुरक्षित रखने के प्रयास किए हैं। भारत के जनवादी आंदोलन व मजबूत दलित आंदोलन के दबावों के चलते वे ऐसा करने के लिए मजबूर हुए हैं। दलित आंदोलन के बढ़ते प्रभाव के परिणामस्वरूप संविधान में दलितों के लिए शिक्षा, रोजगार आदि मुहैया कराने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई जिससे दलितों को सामाजिक और आर्थिक स्थिति में काफी सुधार आया है हालांकि यह अभी भी कई मायनों में नाकाफी है। चाहे जो हो, आजाद भारत में दलितों की स्थिति काफी सुधरी है।
इसमें संदेह नहीं कि वर्णव्यवस्था पर चोट करके सामाजिक सम्मान हासिल करने की ओर बढ़ा जा सकता है परन्तु इसे ही आर्थिक विषमता का निदान समझना भयानक मूर्खता है। डाW. अम्बेडकर का भी मत था कि दलितों के सामाजिक सम्मान के लिए वर्णव्यवस्था का खात्मा लाज़मी है किन्तु इसमें लड़ाई अधूरी ही रहेगी अगर दलितों में उपस्थित आर्थिक निम्नता और अभाव को समाप्त नहीं किया जाता है। इसको खत्म किए बिना न तो दलितों को सामाजिक सम्मान मिल सकता है और न सच्चे लोकतंत्र की स्थापना की जा सकती है।

आज का अधिकांश दलित जातिगत विपन्नता और आर्थिक विषमता का शिकार है। दलितों में आर्थिक अभाव इतना ज्यादा है कि कुछ सेर गेहूं या कुछ रुपयों के लालच में वे अपना स्वाभिमान तक बेच डालते हैं और जनतंत्र की स्थापना में अपनी निर्णायक भूमिका को धनिकों को सौंप देते हैं। देश में पूंजीवादी शासकवर्ग ने नित नई जनविरोधी नीतियां बनाकर दलितों, पिछड़ों और पिछड़ों की हालत बद से बदतर कर दी है। आज समाज में गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी बड़े पैमाने पर फैल रही है। सरकारें, चाहे किसी भी पार्टी की हों, वे जन स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाओं से लगातार कटौती कर रही हैं! महंगाई ने गरीबों की कमर तोड़ डाली है। चारों तरफ निजीकरण का बोलबाला है। सरकारी नौकरियां इतनी कम की जा रही हैं कि उनमें आरक्षण का कोई मतलब ही नहीं रह गया है। गरीबों को विकास के नाम पर हर जगह ठोकर मारी जा रही है। शहरों की ओर ढकेलता है जहां वे अमानवीय परिस्थितियों में जीवन गुजारने को विवश होते हैं। शहरों में नित नई तकनीकें मजदूरों को कारखानों में मिलने वाले रोजगार से बाहर कर देती हैं।

इन हालातों का सबसे ज्यादा शिकार दलित वर्ग ही है। दलितों के सामने आज जाति के अलावा गरीबी, अशिक्षा, भूमिहीनता, महंगाई और बेरोजगारी जैसी समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं जिनका भौतिक आधार इस व्यवस्था में निहित है। सो, केवल ब्राह्मणवादी शक्तियों को अपना शत्रु बताना दलितों के लिए काफी नहीं है। पूंजीवादी-नव साम्राज्यवादी व्यवस्था ताकतवर दुश्मन के रूप में उनके सामने मुंह बाये खड़ी है जिसका आकलन दलित आंदोलन के लिए एकदम अनिवार्य है। पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजी और श्रम के स्थायी अन्तविरोध के कारण उनका दोस्ताना संबंध सर्वहारा संघर्ष से बनना दलित आंदोलन को व्यापक बनाएगा। सम्पूर्ण समाज की मुक्ति के आंदोलन में ही दलित आंदोलन की सार्थकता होगी उससे अलग होकर नहीं।


विचारधारा का सवाल

विचारधारा के सवाल पर अधिकतर दलित चिंतक ये बयान देते हैं कि उनका जुड़ाव केवल अम्बेडकरवादी विचारधारा से ही हो सकता है किसी अन्य विचारधारा से नहीं। ऐसा करते वक्त वे अम्बेडकरवादी विचारधारा की सीमाओं की चर्चा नहीं करते हैं। डा. अम्बेडकर ने अपने अथक प्रयासों से दलितों में सामाजिक सम्मान का आंदोलन खड़ा किया किन्तु 1951 तक आते-आते उन्हें इस बात का अहसास हो चला था कि केवल जाति अवस्था के खात्मे से दलितों का खात्मा नहीं होगा बल्कि आर्थिक विषमता के दुर्ग को भी तोड़ना होगा। इसलिए उन्होंने आर्थिक समाजवाद का सपना देखना शुरू किया। इस दिशा में वे चिंतन मनन कर ही रहे थे कि उनकी मृत्यु हो गई। रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया की स्थापना को इसी अर्थ में देखा जाना चाहिए। किंतु बाद में आर. पी. आई उनके आर्थिक समाजवाद को साकार करने के रास्ते पर नहीं बढ़ी। बसपा आदि दलितवादी पार्टियों के अजंडे पर भी आर्थिक समाजवाद लाने का सपना नहीं है। बसपा भी आज सत्ता के जिस खेल में शामिल हो चुकी है वहां उसके लिए अम्बेडकरवादी विचारधारा केवल दिखावा है।
आजाद भारत में अम्बेडकर न सिर्फ कांग्रेसी नीतियों की आलोचना करते रहे बल्कि तत्कालीन कम्युनिस्ट पार्टी और उसके व्यवहार को दलित आंदोलन की मजबूती का आधार नहीं माना। इससे यह सिद्ध नहीं होता कि वे वामपंथी विचारों के विरोधी थे बल्कि उनकी चर्चित पुस्तक ‘स्टेट एंड माइनोरिटि’ पर वामपंथी विचारों की छाप मिलती है।

1952 के आम चुनावों में अच्छी जीत हासिल करके कम्युनिस्ट पार्टी संसदीय रास्ते से समाज बदलाव की हामी बनती गई। डा. अम्बेडकर ने उसके इस रुख को अच्छी तरह से चिन्हित किया था। उनको लगता था कि वामपंथी दलित समस्या को समाज की कोई समस्या न मानकर उससे न सिर्फ आंख मींचे है बल्कि वामपंथी दृष्टिकोण से दलित समस्या का समाधान खोजने में असमर्थ साबित हो रहे हैं।

आज ऐसे दलित चिंतकों की कमी नहीं है जो अम्बेडकर को लगातार वामपंथी विचारधारा के विरोध में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं। इसमें कुछ योगदान उन तथाकथित वामपंथियों का भी है जो न मार्क्सवाद को भारतीय संदर्भ में ढाल पाते हैं और न उसे व्यवहार में उतार पाते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि अब तक वामपंथ उन ऊंची जात वालों का खिलौना बनता रहा है जो न मार्क्सवाद को ठीक से जीवन में उतार पाए और न अपनी जातीय स्थिति का त्याग कर पाए। यह उन्हीं की दोहरी भूमिका का नतीजा है कि वामपंथ आज छ्दम वामपंथ बन गया है। लेकिन खाली छदम वामपंथ का विरोध करने भर से काम नहीं चलने वाला है। दलितों को चाहिए कि वे न सिर्फ वामपंथी विचारधारा बल्कि अन्य वैज्ञानिक विचारधाराओं का भी गहन अध्ययन करें और उसे अंबेडकरवादी विचारधारा के विकास का माध्यम बनाएं। इससे उन्हें न सिर्फ छद~म वामपंथ से मुक्ति मिलेगी बल्कि वैचारिक स्तर पर दलित आंदोलन की व्यापकता बढ़ेगी।
दलितों का उत्पीड़न समाज के अन्य शोषितों के उत्पीड़न से भिन्न अवश्य हो सकता है किंतु उससे अलग नहीं हो सकता है। जाति के अलावा उनके सामने अनेक समस्याएं हैं जिन पर संघर्ष लाजमी बनता है। इस आधार पर दलितों का संघर्ष अन्य शोषितों के संघर्ष से जुड़ता है। अस्तु, दलित साहित्य आंदोलन का संबंध जनवादी साहित्य आंदोलन से बनता है।

दलितों की पीड़ा को एक वास्तविक दलित ही समझ सकता है किंतु मानवीय संवेदना और जनवादी समझ के आधार पर अन्य वर्गों के साहित्यकार भी इसे समझ और व्यक्त कर सकते हैं। अत: दलितों द्वारा रचित साहित्य को तो दलित साहित्य माना ही जाना चाहिए किंतु जनवादी लेखकों द्वारा दलित जीवन पर रचित साहित्य को भी दलित साहित्य का एक हिस्सा माना जाना चाहिए।

दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्रा अभी निर्माण की प्रक्रिया में है लेकिन उसको परखने के आधार भी वही होने चाहिए जो दुनिया के किसी भी उत्पीड़ितों के साहित्य को समझने के होंगे। इसे केवल जातीय उत्पीड़न और दलितों तक ही सीमित नहीं करना चाहिए बल्कि समाज में व्याप्त अन्य जनसमस्याओं पर भी दलितों को सोचना और रचना चाहिए। दलित साहित्य इस प्रकार वृहत~ समाज के उत्पीड़ितों के बीच भी उपयोगी हो सकता है इसलिए उनके बीच भी इसका प्रसार होना चाहिए।

अंत में, सिर्फ इतना ही कहना है कि भारतीय संदर्भों में दलित साहित्य न केवल छदमवामपंथ, जातीय उत्पीड़न, आर्थिक उत्पीड़न से मुक्ति का वैचारिक स्रोत है बल्कि जनवादी व प्रगतिशील साहित्य के फलक की व्यापकता का आधार भी है। दलित साहित्य मुक्तिकामी साहित्य है और ये समस्त वर्गों के उत्पीड़ितों के साहित्य का हिस्सा होकर ही अपनी क्रांतिकारी भूमिका को सरंजाम दे सकता है।

Thursday, February 11, 2010

।। दलित साहित्य के बहाने कुछ टीप ।।

इस समय जब मैं ‘दलित-साहित्य’ पर कुछ बोलने जा रहा हूँ तो सबसे बड़ी चिन्ता जो मुझे सताये जा रही है जानते हैं वह क्या है ? वह यह कि कहीं आप में से कोई यह न कह बैठे कि एक ब्राह्मण की दलित साहित्य पर टीका-टिप्पणी । जबकि सवर्ण के घर जन्म लेने या नहीं लेने पर मेरा कोई वश नहीं था । न ही दलित के घर जन्म लेने पर किसी अन्य का अधिकार । जबकि दलित साहित्य की पहली और खास शर्त है कि दलितों के द्वारा लिखा गया साहित्य । ऊपर से एक दूसरे की ओर भाले की नोक किये हुए साहित्यकार और उनका साहित्य । है न मेरी चिन्ता सही । क्योंकि यह समय बहुत ही विचित्रत्राओं और विरोधाभासों का समय जो है ।

चलिए, पहले अपने समय को देखते हैं । एक ओर इंसान वैश्विक ग्राम की कल्पना को साकार करने के उद्यम में है । वह सड़ी-गली, पुरानी रूढ़ियों को तिलांजलि देते हुए और आधुनिक प्रौद्योगिकी को अपनाते हुए ज्यादा से ज्यादा तर्कशील, नित्याधुनिक और विज्ञानसम्मत बनता जा रहा है वहीं ठीक दूसरी ओर समाज में जाति, गोत्र, वर्ग के आधार ही कुटिल दृष्टि विकसित की जा रही है । विडम्बना तो यह भी कि राजनीति, प्रशासन, सामाजिक इकाइयों के साथ-साथ साहित्य भी अब जाति और लिंग के आधार पर रचा जा रहा है । जिसके लिए कहा जाता है कि वह स्वयं में प्रकाश है । अपने समय का आइना है । परिवर्तन का जरिया है । मन का संवाद तो है ही । आज कुनबे की सदस्यता की शर्त पर रातों-रात महान कवि या कहानीकार घोषित किया जा रहे हैं । शिष्यत्व की शिनाख्तगी के बाद ही रचनाकार पर संपादक की ओर से स्नेह वर्षा हो रही है । निजी की कुठाओं से नित नयी साहित्यिक संस्थाओं का महल रचा जा रहा है । दण्डवत मुद्रा या जुगाड़ू दक्षताओं के परीक्षण के बाद ही चिन्ह-चिन्ह कर अलंकरण और पुरस्कारों के लिफाफे घर पहुँचाये जा रहे हैं । अधकचरे पाठ्यक्रमों में समादृत होकर अमर हो जाने की लालसा में सत्ताधीशों की जूतों की रखवाली की जा रही है । इशारों पर इतिहास की इतिक्षी की जा रही है । शासकीय अनुदानों, परियोजनाओं, आयोजनों की ठेकेदारी के लिए रचनाकारों में मारकाट की नौबत तक आने लगी है । साहित्य में नये तरह का चारण युग विकसित हो रहा है । भाटगिरी हर प्रकार की सत्ता की विरूदावली है चाहे वह व्यक्ति विशिष के लिए हो या फिर जाति या लिंग विशेष के लिए ।

इन प्रवृत्तियों की फसल किसी एक अंचल या भूभाग में नहीं, सर्वत्र लहलहाती नज़र आ रही है । इधर बाजार, मुद्राकेंद्रित पश्चिमोन्मुखी विचारों से साहित्य को भी रोजगार या व्यापार मानने की सीख दी जा रही है । मुश्किल से कलम पकड़ने जानने वाले भी बड़े से बड़े रचनाकार को नकारने पर आमादा है । बड़े भी ऐसे कि संभावनाशील नयी पीढ़ी को पहचान कर उसे तराशने अपने दड़बे से बाहर निकलने को तैयार नहीं । अधिकांशतः रचनाकार अपने बंद कमरों में टेबिल के इर्द-गिर्द ही एक खास किस्म की गंध को महसूसते हुए आत्ममुग्ध होकर कागज पर फैंटेसी गढ़ते जा रहे हैं । समाज की गति यानी पाठकों को लेकर रचनाकार की चिन्ता तो जैसे बीते युग की बात हो चुकी है । लेखन के लिए लेखन हो रहा है उसके अनुकरण से लेखक को कोई लेना-देना नहीं । लेखन व्यक्तिगत गालीगलौज या निजी कुंठाओं का खेल होते जा रहा है । उस पर भी तुर्रा कि साहित्यकार ऐसे साहित्य से उस समाज को बदलने का भ्रम पाले हुए हैं जो पहले से ही अक्षरों से नज़रें चुरा रहा है। कुल मिलाकर आज का साहित्य वाग्जालियों की क्रीडा बन चुका है । यानी कि साहित्य अपने सभी अनुशासनों से च्युत हो चुका है । यानी कि (फिर से) साहित्य की दुनिया में भी अंधेरे की वापसी ।

क्या मेरी चिन्ता गैरवाजिब है ? क्या मेरी चिन्ता के मूल में उन सिद्धांतो के विरूद्ध कह जाने का भय निहित नहीं है जिसमें यह डिंडोरा पीटा जा रहा है कि मात्र वही दलित साहित्य होगा जो दलितों द्वारा लिखा गया होगा ? यदि यह सिद्धांत एक सत्य भी है तो कदाचित् मैं उस सत्य के ख़िलाफ़ ही बोलने जा रहा हूँ । जबकि किसी के घर में बैठकर उसी की चुगली जरा मुश्किल होता है । इसके खतरे बडे होते है । खतरे के बावजूद वहाँ सत्य होता है । खतरे वहाँ नहीं होते जहाँ हम मुँहदेखी जुगाली करते हैं । पर वहाँ सत्य नहीं हुआ करता । हम जो भी कहते हैं वह दोनों में से एक ही तो होता है । मैं और आप जिस दुनिया में रहते हैं उसके पास-पड़ोस में तो फिलहाल यही होता है । कम से कम साहित्य की चौपालों में तो यही होते देखा जा रहा है ।

मैं जब भी चिकनी-चुपड़ी बातें करने का प्रयास करता हूँ तो मुझे एक भय सताने लगता है और वह मेरे लिए सबसे बड़ा भय भी होता है । आप भी जान सकते हैं कि वह मेरी आत्मा के धिक्कार से उत्पन्न भय हुआ करता है। और जिससे मेरे जैसा हिंदी का छोटा-मोटा साहित्य रसिक ही नहीं इंसान मात्र भी बचना चाहता है । जो अपने आप को नहीं बचाना चाहता वह कदाचित् 100 प्रतिशत इंसान भी नहीं हुआ करता । तो यह जो धिक्कार का भय है वह आत्मा का सत्य है । यही सत्य मनुष्य का शिवत्व भी । और यही मनुष्य होने का सौंदर्य भी है । एक सत्वशील और सत्यवान मनुष्य इसी सौंदर्य की तलाश में जीवन पर्यंत भटकता फिरता है । प्रकारांतर से ही सही । विश्व के सभी समुदायों से उभर कर आये दर्शनों में इसी सौंदर्य को देखने-समझने की पराकाष्ठा है । सारे समुदायों का साहित्य भी घुम-फिरकर इसी सत्य, शिव और सौंदर्य पर निष्ठा प्रकट करता है । कम से कम आज तक का, अब तक का ।

मैं इस पुस्तक पर कुछ भी कहने से पहले मेरी अपनी तथाकथित समझ को आपके साथ शेयर करना चाहूँगा । और वह यह कि साहित्य किसी व्यक्ति के प्रति श्रद्धा का नाम नहीं बल्कि वह उस प्रवृति का संकीर्तन है या फिर आलोचन है । संकीर्तन इसलिए क्योंकि वह मानवीय उदात्तता की मिसाल है । आलोचन इसलिए कि वह मानवीय मूल्यों का मिथ्यात्मक पहलू है ।

चलिए लोक की सुधि लेते हैं । वहाँ हमें किसी दलित, पतित, दमित जाति या समूह या संपदाय की प्रतिष्ठा या पुनर्वास के लिए सद्-प्रयास तो नज़र आता है किन्तु उसमें या उसके बहाने वैमनस्यता की रणभेरी बजाते लोग नज़र नहीं आते । सबसे बड़ी बात यह कि लोक की दुनिया में किसी की गर्दन भी काट दी जाती है और सामने वाले को इसका भान तक नहीं होता । यह लोक की विनम्रता और अनातिक्रमण का प्रमाण है । यह सही है कि लोक साहित्य के पृष्ठों में वर्षों से सताये गये लोगों की वेदना है । संताप है । आक्रोश भी है । पर वहाँ घृणा नहीं है । वहाँ वैमनस्य नहीं है । वहाँ-वहाँ सामाजिक ताने-बाने के भीतर ही प्रगतिशील चेष्ठा है । मैं आप भी जानते हैं कि हमारे लोक में यह किसने रचा ? जाहिर है किसी एक ने नहीं रचा । किसी व्यक्ति ने नहीं किया । उसे किया समग्र लोक ने । अर्थात् लोक का जो साहित्य है वह समग्र-वाणी है । उसमें भले ही किसी जाति, गोत्र, प्रवर, वर्ग, समुदाय, या धर्म की ओर इशारा हो, व्यंग्योक्ति भी हो पर वह इनमें से किसी एक का वैयक्तिगत अवधारणा नहीं है । शायद इसीलिए वह समाज का संवाद है । संवाद है इसलिए वह साहित्य भी माना जाता है ।

लोक की दुनिया में वाद-प्रतिवाद रहा होगा किन्तु उसके साहित्य में किसी तरह का वाद तो कम से कम नहीं है । हाँ, यह दीगर बात है कि किसी को इसमें विवाद भले ही दिखाई दे जाये । और लोक साहित्य वाद विहीन होने के कारण ही वह समग्र समाज का वेद भी था, आज भी है । लोक ने कहा यानी ब्रह्मा की लकीर । दरअसल वाद में विचार तो हो सकते हैं साहित्य कहना उसे जरा सी बेईमानी होगी । वाद की सबसे बडी बुराई होती है कि उसका राजनीति से प्रेरित होना है । वाद की सबसे बड़ी अच्छाई होती है कि उसे लेकर उसका प्रणेता कभी नहीं चाहता कि वह उसके नाम से चले । वह सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक व्यक्तित्व होता है कोई राजनीतिक विचारधारा का अगुआ नहीं । तो वाद के सहारे राजनीति हो सकती है साहित्य नहीं । क्योंकि साहित्य होगा तो वह सहित होगा । कोई भी अलग नजर नहीं आयेगा । साहित्य में कोई विचार हो सकता है किन्तु विचार मात्र को साहित्य नहीं होता । क्योकि वहाँ जीवन मूल्यों को लेकर कोई न कोई सामाजिक अन्तरद्वंद जबकि साहित्य होगा तो वह सहित होगा । वहाँ हित के साथ कोई भी बात होगी । उदाहरण भी लेते हैं एक -बाह्मन, बनिया, नाऊ । जात देख गुर्राउ । इस पर मात्र निचली, पिछड़ी या दलित जातियों का विश्वास नहीं बल्कि समाज के प्रभू वर्गों का भी उतना ही विश्वास है ।

आप कबीर साहब का क्या कहेंगें दलित लेखक या संत साहित्यकार जिन्होंने यह खुलकर कहा कि
जो तू बामन ब्राह्मणी जाया, आन बाट भै क्यों नहीं आया ।

या भारतेंदू जी को जो दहाड़ते हुए अबेडेकर से पहले ही कहते है-
देखी तुमरी कासी, लोगों, देखी तुमरी कासी ।
जहाँ बिराजैं विश्वनाथ विश्वेश्वर जी अविनासी ।

आधी कासी भांट-भंडेरिया बाह्मन और सन्यासी
आधी कासी रण्डी मुण्डी रांड खानगी खासी ।

लोग निकम्मे भंगी गंजड़ लुच्चे बे-बिसवासी
महा आलसी झूठे शुहदें बे-फिकरें बदमाशी ।
और उधर जब महावीर प्रसाद द्विवेदी विचार भी देते हैं उससे सुधार और सद्भाव संबंधी मानवीय रसों को ही जगाने की कवितायी करते रहते है-

हाय हमने भी कुलीनों की तरह
जन्म पाया प्यार से पाले गए ।
जो बचे फूले-फले तो क्या हुआ
कीट से भी तुच्छतर माने गए
जो दयानिधि को तनिक आवे दया
तो अछूतों की उमड़ती आह का
यह असर होवे कि हिन्दुस्तान में
पाँव जम पावे परस्पर चाह का ।

प्रेमचंद की कहानियों में दलितों को जगाने के क्या कम प्रयास हुए हैं । जबकि वे तो दलित नहीं थे । यह दीगर बात है कि कुछ दलित साहित्यकारों ने भी उन्हें दलित विरोधी करार देने की नाकाम कोशिश करते देखे जाते हैं । साहित्यकार सच्चा होगा तो वह जाति के आधार पर नहीं बंटना चाहेगा । अक्सर प्रगतिशील यह भूल जाते हैं कि स्वयं प्रेमचंद ने प्रगतिशीलता के आधार पर साहित्य को बांटने का विरोध किया था । उनके लेख उसकी गवाही देते हैं । भारतीय साहित्य में जाति को तबज्जो लगभग नहीं दी गई है ।

हाल ही मैं कुछ सवर्ण साहित्यकार दलित साहित्य के विविध विषयों पर जो एकाग्र संपादित कर रहे हैं वे चौकातें है । खासकर इसलिए जब हमारे विश्वविद्यालय साहित्य के कब्रिस्तान बनते चले जा रहे हैं । वहाँ साहित्य पर शोध, सोच, सर्जना के अलावा सब हो रहा है । इन कृतियों को न केवल हमारे जैसे पाठक बल्कि हिंदी के प्राध्यापक, रचनाकार और शोधार्थी भी जरूर बार-बार पढना चाहेंगे । इन कृतियों में दलित विमर्श पर अब तक की सबसे बड़ी यानी कि 824 सुनहरे पृष्टों की एक किताब है - अम्बेडेकरवादी सौन्दर्य-शास्त्र और दलित आदिवासी-जनजातीय-विमर्श, जिसके संपादक हैं डॉ. विनय पाठक, जिसमें दलित साहित्य को लेकर शायद ही कोई कोण बचा हो जिसका गंभीर और बैलोस अनुशीलन और सत्यान्वेषण नहीं किया गया है । दलित साहित्य के सौंदर्य पर यह एक प्रामाणिक ग्रंथ बन चुका है । यह सिद्ध करता है कि विनय पाठक जैसे मेहनती और निष्कलुश लोग हिंदी पट्टी में रहेंगे साहित्य का गंभीर अनुशीलन होता रहेगा ।

वैसे बहुत सारे ऐसे कवियों की दलित चेतना से संपूरित कविताओं का जिक्र पाठक जी ने स्वयं इस कृति में किया है । मुझे तो कम से कम आत्मतोष है कि उन्होंने इन्हें अम्बेडेकरवाद का ही प्रभाव नहीं माना है । भले ही दलित आलोचक इनसे सहमत न हो कि वे तो दलित जाति के थे ही नहीं । यह दीगर बात है कि पृष्ठ 401 में समकालीन महत्वपूर्ण दलित कवियों की सूची में उन्होंने मात्र 22 कवियों को रखा है । इसमें वे समकालीन कवियों की उपस्थिति जरूरी जान पड़ती है जिनमें दलितों की पीड़ा का कारुणिक बयान है । वैसे पाठक जी की हिम्मत और दृष्टि को मैं दाद देना चाहूंगा कि उन्होंने तटस्थ भाव से इस महाग्रंथ में उन्हें भी समादृत किया है जो जाति से दलित नहीं है । यह चुनौती भी है और दिशा भी कि भाई मेरे जाति के आधार पर साहित्य के पंडे न बनो ।

लेखन जब पूर्व प्रेरित विषयों के प्रेमिंग में लिखने के लिए होता है तो उसमें साहित्य मानने लायक कम सत्व मिलता है पाठकों के लिए । ऐसे लेखन सामयिक तो होता है उसमें प्राणवायु इतनी नहीं होती कि वह कालजयी हो सके । उसकी सामयिकता सदैव बनी रहे । शायद इसलिए ऐसा लेखन एक निश्चित समय के बाद का सत्य भी नहीं रह जाता । यानी कि वह अपने समय का मिरर या सच तो हो सकता है किन्तु उसकी प्रांसगिकता स्थायी नहीं हुआ करती । हजारों लाखों कहानी लिखे जाने के बाद भी आज हम उसने कहा था, पुस की रात, पंच परमेश्वर या गुण्डा आदि को क्यों नही भूल पाये । शायद वह तयशुदा विषय पर लेखन नहीं था । उसमें और उनकी जैसी सैकड़ो कहानियों में किसी जाति विशेष के प्रति आक्रोश नहीं था । जबकि दलित साहित्य के मूल में सवर्णों के प्रति आक्रोश है । बदले की भावना है । और यह उसे साहित्य ने नहीं दिया । राजनीतिज्ञों ने दिया है । चेतना ने दी है । शिक्षा ने दी है । वैज्ञानिकता ने दी है । जातिगत संगठनवाद ने दिया है । साहित्य या लेखन तो इससे कहीं आगे की और शुद्धतम वस्तु है । वह इनमें व्याप्त कुंठाओं का भी निदान है । साहित्य भी यदि वही काम करे जो राजनीतिक लोग करते हैं तो फिर उस समरसता का क्या होगा जिसे सभी महान साहित्यकारों ने बचाने की कोशिश की है ।

लेखन यानी अंतःबाह्य के सत्य का एकीकरण और साध्य का गुरुत्वाकर्षण । लेखन यानी अप्राकृतिक, अमर्यादित, अपरूप, अपचेष्टा के पर्यावरण के बावजूद उनके समानांतर ही शिव-सत्ता का अवगाहन । लेखन यानी समग्र सौदर्य का प्रकाशन । लेखन का मतलब रचना है । स्वयं को रचना । युग को रचना । समय को रचना । काल को रचना । भूत और वर्तमान की पुनर्ररचना और भविष्य की संरचना । दृष्ट को रचना, अदृश्ट की भी रचना । लेखन समानांतर संसार की सर्जना है । लेखन ईश्वर के बाद सर्वोच्च सत्ता को साधने वाली कला है । लेखन वही जिसके प्रत्येक शब्द में सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की ज्योत्सना झरती हो । वहाँ डूब-डूब जाने के लिए मन बरबस खींचा चला आता रहे । लेखन सच्चा होगा तो वह क्षीणकाय न होगा, दीर्घायु होगा । वहाँ वाद न होगा, विवाद न होगा, अजस्त्र संवाद होगा । फलतः उसमें मनुष्य जाति के लिए अकूत रोशनी होगी । एक ऐसा पनघट होगा जहाँ हर कोई अपनी प्यास बुझा सके । एक सघन-सुगंधित तरूबर होगा जहाँ हर कोई श्रांत श्लथ श्रमजल जूड़ा सकेगा । एक ऐसा निर्मल दरपन होगा जहाँ वह अपने चेहरे के हर रंग को भाँप सकेगा । एक ईमानदार लेखन सामयिकता के जाल में उलझना नहीं चाहता । सामयिकता तत्क्षण का अल्प सत्य है । वह शाश्वत नहीं हुआ करती । ईमानदार लेखन सदैव शाश्वत की ओर उन्मुख होना चाहता है । इसलिए वह व्यक्ति, जाति, धर्म, देश, काल, परिवेश को लांघने के सामर्थ्य से परिपूर्ण होता है । वह अपनी वास्तविकता में व्यक्ति नहीं अपितु व्यक्तित्व की लघुता से प्रभुता की ओर संकेत है । लेखन तटस्थ-वृत्ति है । ऐसी तटस्थता जहाँ मंगलकामना का अनवरत् राग गूँजता रहता है- सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे भवन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राण पश्यंतु, मां कश्चित् दुख भाग्भवेत् ।

चलिए पल भर के लिए यह मान लेते हैं कि दलित साहित्य साहित्य की दुनिया में स्वयं को प्रतिष्ठित करने का कुछ लोगों का जरिया नहीं है । यह भी ठीक है कि दलित चेतना सवर्ण मानसिकता और दलित विरोधी गतिविधियों के प्रतिरोध का साहित्य है । और इन प्रतिरोधों से सरोकार का हक भी दलितों को बाकायदा है । और यह भी सच है कि हर दलित लेखक आक्रोश के लिए नहीं रच रहा है । मैं ओमप्रकाश वाल्मीकि के जूठन नामक आत्मकथात्मक उपन्यास का जिक्र करना चाहूँगा जिसे पढकर कोई भी सवर्ण रोये बिना नहीं बच सकता । जानते हैं मूलतः वह चमारों के प्रति करुणा से ओतप्रोत कर देने वाला हिंदी के श्रेष्ठतम उपन्यासों में से एक है । इस उपन्यास में लेखक कहीं भी सीधे सवर्णों को गाली गलौच करता हुआ खड़ा नहीं दिखाई देता परन्तु एक संवेदनशील सवर्ण पाठक भी उसे पढ़कर सवर्ण मानसिकता की कमजोरियों के प्रति आक्रोश से भर बिना नहीं रहता । उसमें दलितों के प्रति रागात्मक अनुराग उत्पन्न होने लगता है । उसे अपने पूर्वजों पर कदाचित् क्षोभ भी होता है । और यही साहित्य का उद्देश्य है । साहित्य कोई फतवा नहीं है कि फलाने को कूट दो । अमूक को समूल नष्ट कर दो । किसी से बदला लो । किसी को भगा दो ।

इस सबके बाद भी मै अपने मंतव्य में इन निहितार्थों को तलाशने की छूट नहीं दे सकता कि पददलित, शूद्र और अस्पृश्य जातियों के प्रति सवर्णों ने सदियों पहले अत्याचार नहीं किया । पर उस पीढ़ी के सम्मुख अपने मन में छिपी बर्बरता और विद्रोहात्मक बयान कहाँ तक उचित है जो आज इन दकियानुसी मानसिकता से निकलता जा रहा है । साहित्य के केंद्र में न केवल देवता, राजा-महाराजा, सामन्त या शोषक वर्ग को च्युत किया जाना चाहिए बल्कि तथाकथित पददलित व शोषित-पीड़ित किसी वर्ग को भी स्थापित किये जाने का मनुवादी संस्कार प्रसारित होना चाहिए । साहित्य के केन्द्र में सिर्फ और सिर्फ मनुष्य होना चाहिए । मनुष्य का मन होना चाहिए । मनुष्य को किसी भी कोण स वर्गीकृत करना प्रकारांतर से समाज को विभाजित करना भी होगा । जैसा कि अक्सर दलित विमर्श में कहा जाता रहा है कि दलित लेखन दलित-आदिवासी अस्मिता की स्वतंत्र पहचान के लिए है, साहित्य में अनुमति नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि यह भारत की संस्कृति की शाश्वत समन्वयात्मक चरित्र और उदारता के विरूद्ध भी है जिसका परित्याग भारतीय मन शायद ही कभी कर सके । भारत में किसी व्यक्ति या जाति की पहचान निहायत स्वतंत्र नहीं होती । वह समूचे परिवेश, समग्र जन और समूचे भूगोल में ही होती रही है । और जिसे नकारना ठीक वैसा होगा जैसा हम संयुक्त परिवार को नकार कर नितांत एकाकी, असहाय और नीरस होते जा रहे हैं । दलित साहित्य के उद्देश्यों में यह बड़ी बारीकी से पढ़ाया जाता रहा है कि यह बहुजनों के सुख की प्रतिबद्धता का औजार है । बहुजन सुनहरे अर्थों वाला भारतीय शब्द है पर यहाँ बहुजन शब्द में जब आप बहुसंख्यक लोगों का मायने देखेंगे तो कदाचित् आपको निराशा होगी । क्योंकि दलित समीक्षकों के यहाँ बहुजन का मतलब मात्र अस्पृश्य जातियों के लोग होता है । इसी तरह सुख शब्द भी है । सुख भौतिकता की ओर इंगित करता शब्द है । और भौतिकता को सदैव हिदी साहित्य में नकारा जाता रहा है । इसे ऐसा नहीं माना जा सकता है कि हिंदी साहित्य सरोकार मुक्त रहा है । उसे मनुष्य के भौतिक प्रगति से चिढ़ रही है किन्तु वहाँ सुख से कहीं ज्यादा हार्दिक समृद्धि को तवज्जो दिया जाता रहा है । लगभग हर वाद या काल में ।

यह भी कहना चाहूँगा कि आर्थिक आधार या भारतीय जातीय संरचना में निम्नतम प्रस्थिति में विवश समूह से अभिव्यक्ति की अधिक संभावनायें रहनी चाहिए । वहाँ कृष्ण पक्ष से मुक्ति के लिए जद्दोजहद ज्यादा है और तड़फ भी । उस भूगोल की स्थायी विद्रपताओं, विपदाओं के साथ-साथ कुँठाओ, तृष्णाओं और मनोविकारों को भी पर्दाफाश किया जाना प्रजातांत्रिक कदम है और समय की माँग भी । पर वहाँ से उठने वाली आवाज़ या साहित्य का स्वर कहीं अमानवीय न बन जाय इसका भी ख़याल रखना लाजिमी होगा । सच तो यह है कि वहाँ से मानवीय गरिमा को बचा ले जाने की समस्त संभावित प्रसंगों और कहानियों की अभिव्यक्ति होना अभी शेष है । जो साहित्य के लिए अपरिहार्य भी है । इसके बिना भारतीय साहित्य एकतरफा भी बना रहेगा । मेरी चिंता के परिप्रेक्ष्यों में यह भी सम्मिलित है कि अभिव्यक्ति के अधिकार से किसी को मात्र इसलिए खारिज नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि वह पहले से ही कोई ‘वादी’ है । अभिव्यक्ति का अधिकार सार्वजनिक है परन्तु उस शर्त पर जहाँ वह विभाजित करने वाले आधारों पर नहीं बल्कि “रचनाकार” के रूप में अपनी पहचान बनाये रखने का आग्रही हो।

बातें तो बहुत सारी हैं । दलित-विमर्श पर कही जाय तो घटों कही जा सकती है । सहमति के मोह या या असहमति के भ्रम से सर्वथा स्वयं को मुक्त रखते हुए यह भी कहना चाहता हूँ कि दलित-दंश की स्थायी पीड़ा को लेकर गैर दलित जाति के लेखक भी इधर सामने आने लगे हैं । चाहें तो इसे आत्ममुग्ध होकर दलित साहित्य की महत्ता या सत्ता का चमत्कार भी कह सकते हैं चाहें तो साहित्य को जातिवाद से मुक्ति दिलाने का उद्यम या फिर संवेदना जैसे पवित्रतम चीज़ की वापसी भी । अब सोचना आपको है, मुझे जो कहना था कह दिया।

शिवेन्दु राय

Wednesday, February 10, 2010

व्यंज़ल

व्यंज़ल
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पूछते हो कि क्यों मैं गरीब हूँ

तेरे राज में जानम मैं गरीब हूँ



दर्द का अहसास है न भूख का

सबब बस ये है कि मैं गरीब हूँ



मेरी तो समस्या है बड़ी अजीब

सोने के ढेर पे बैठा मैं गरीब हूँ



अमीरों के इस भीषण शहर में

मुझे तो फख्र है कि मैं गरीब हूँ



टाँग दी गई तख्ती रवि पर भी

सबने मान लिया है मैं गरीब हूँ

भारतवंशियों स्वदेश लौटो!

अंग्रेज़ों भारत छोड़ो की तर्ज पर ये गुहार है. गुहार नहीं, बल्कि एक आंदोलन है. भारत के शीर्ष पर बैठे राजनेता द्वारा छेड़ा गया आंदोलन. ऐसे में भारतवंशियों को भारत लौटना ही चाहिए. वैसे भी, भारतवंशियों को भारत से बाहर किसी सूरत जाना ही नहीं चाहिए, और यदि चले गए हैं तो बिना देरी के, तुरंत वापस आ जाना चाहिए. बिना किसी आंदोलन या गुहार के उन्हें वापस आना चाहिए. भारतवंशियों के वापस भारत लौटने के बढ़िया, कुछ टॉप के कारण ये हो सकते हैं –

#1 – भारत की धूल भरी, गड्ढेदार, भीड़ भरी, सांडों और गायों से अटी-पटी, षोडशी नारी की कमर से भी पतली, सदैव जाम युक्त सड़कों का क्या मुकाबिला? सिक्स लेन की खाली सड़क पर गाड़ी दौड़ाने में भी कोई मजा है लल्लू?

#2 – सत्यम के राजू की याद है आपको? या ताजातरीन कोडा? बोफ़ोर्स और चारा घोटाला? हजारों करोड़ रुपए देखते ही देखते बना सकने की सुविधा किसी और देश में है? फिर क्यों बुड़बक की तरह बाहर चले गए हो? जल्द लौट आओ. भारतवंशियों, आपके टैलेंट की जरूरत भारत में बहुत है.

#3 – राजा-महाराजा तो बीते जमाने की बातें हैं? हो सकता है. पर यहाँ भारत में आप अब भी ठसके से राजा-महाराजा की तरह रह सकते हैं – दो शुद्ध सपाट तरीके हैं – नेतागिरी में उतर आइए संसद की कुर्सी कब्जाइये, या फिर सिविल सेवा जॉइन कर सरकारी अफसरी की कुर्सी कबाड़ लीजिए. नेतागिरी में तो फिर भी पाँच-साला चक्कर रहता है. सिविल सेवक तो भारत में ताउम्र महाराजा स्टाइल मार सकता है. फिर क्यों आप विदेशी नौकरी बजा रहे हैं?

#4 – अगर आप ऊंची जाति के हैं तो आप वापस आएँ, क्योंकि दुनिया में कहीं भी ऊँची जाति वालों को इतनी इज्जत नहीं मिलती. ऊंची जाति वालों, अपनी बेइज्जती करवाने, अपनी जाति को खाक में मिलाने विदेश चले गए हैं? हद है! इसी प्रकार, यदि आप बैकवर्ड जाति के हैं तो आपको तो तत्काल भारत लौटना ही चाहिए. तमाम किस्म के आरक्षण जैसी सुविधाएँ विदेशों में कहीं मिलती हैं भला?

#5 – अगर आप डॉक्टर हैं तो वापस आएं, क्योंकि पान-गुटका-तम्बाकू से लेकर नकली दूध-दवाई तक और मच्छर मक्खी से लेकर भारी भरकम जनसंख्या तक सभी तरह के कारणों से यहाँ मरीजों की कमी कभी नहीं होगी और आपका धंधा चकाचक चलेगा. अगर आप इंजीनियर हैं तो सरकारी ठेके के 85 प्रतिशत (यह बात तो स्व. राजीव गांधी भी सार्वजनिक तौर पर स्वीकार कर चुके थे) कमीशन आपको बुला रहे हैं. यदि आप वकील हैं तो यहाँ जाति-धर्म-पंथ इत्यादि के कभी न खत्म होने वाले झगड़े टंटे के मुकदमों की कमी नहीं है – मुकदमों के लिए तो बीस साल का वेटिंग लिस्ट अभी ही है....

वैसे तो सैकड़ा भर और भी धांसू कारण गिनाए जा सकते हैं, जिनके बिना पर विदेश जा बसे भारतीयों को वापस भारत आना ही चाहिए. मगर फोकट में लिस्ट लंबी करने से क्या फायदा. समझ तो वो भी रहे होंगे. बस उन्हें एक बार जोर से ललकारने की जरूरत है – भारतीयों, भारतवंशियों, भारत लौटो!

शिवेन्दु राय , wz-61a/3 vashist park ,gali no-12,nd-46

Saturday, February 6, 2010

चेन खिच गई

चेन खिच गई
व्यंग्य-शिवेन्दु राय

एक बार मेरे मोबाइल का नेटवर्क किन्हीं दूसरे मोबाइलों के नेटवर्क से गुथ गया। जो चर्चा सुनाई दी वह हुबहू पेश है:-
‘‘ऐ जी, सुनो जी, आज मेरी भी खिच गई !’’
‘‘तुमसे कितनी बार कहा है कि ऊँची हिल की सैंडल मत पहना करो, सुनती ही नहीं हो!’’
‘‘ऊँची हिल की कहाँ पहनी, स्लीपर पहनी हुई थी टायलेट वाली!’’
‘‘मैंने यह भी कितनी बार कहा है कि फालतू इधर-उधर मत भटका करो!’’
‘‘मैं कहाँ इधर-उधर भटकी, अब क्या घर के सामने भी ना टहलूँ ?’’
‘‘घर के सामने ऊबड़-खाबड़ गढ्ढों में टहलोगी तो खिचेगी ही।’’
‘‘कोई नहीं, सरला भैंजी के घर के सामने बढ़िया चिकना सीमेंट कांक्रीट रोड़ है, उनकी तो उसपर भी खिच गई!’’
‘‘वो भी ऊँची हिल की सैंडल पहनती होंगी!’’
‘‘नहीं, वे तो बेचारी नंगे पॉव मंदिर जा रहीं थी तब खिच गई उनकी तो।’’
‘‘क्या ज़रूरत थी जाने की जब पता है कि मंदिर की सीढ़िया बहुत खराब और टूटी फूटी हैं!’’
‘‘उससे क्या होता है, विमला भैंजी की तो शॉपिंग मॉल की सीढ़ियों पर खिची थी!’’
‘‘तुम सब औरतों की यही आदत होती है, फालतू यहाँ-वहाँ भटकती फिरती हो फिर खिंच जाती है तो रोने बैठ जाती हो।’’
‘‘फालतू बातें मत करो, कुछ कर सकते हो तो करो।’’
‘‘अब मैं यहाँ बैठे-बैठे मोबाइल से क्या करूँ ? घर पर होता तो मूव मल देता!’’
‘‘मूव मलने से क्या चेन वापस मिल जाती ?’’
‘‘चैन मिल जाता है, हिन्दी भी ठीक से नहीं बोल सकती!’’
‘‘अरे मैं चेन की बात कर रही हूँ, चेन खिच गई मेरी!’’
‘‘क्या ? चेन खिच गई ? बता क्यों नहीं रही हो इतनी देर से! मैं समझ रहा था पॉव की नस खिच गई है तुम्हारी!’’
‘‘तुम तो यूँ ही हरकुछ-हरकुछ समझ लेते हो! अब तो कुछ करो!’’
‘‘पहले बताओ कब गई, कैसे गई, कौन सी गई.......!’’
‘‘अरे बताया तो सुबह-सुबह पपी को बाहर सुसु करा रही थी, एक छोकरे ने आपका पता पूछा और गले से आधी चेन खीच कर भाग गया!’’
‘‘आधी क्यों ? पूरी नहीं चाहिए थी क्या उसको ?’’
‘‘आधी मेरे पास रह गई!’’
‘‘कौन सी गई दस तोले वाली कि बीस तोले वाली ?’’
‘‘तौली तो थी नहीं कभी.....!’’
‘‘ऐसे कैसे नहीं तौली, फालतू बात करती हो। बिना तौले कहीं चेन मिलती है!’’
‘‘ये तो पता नहीं, तुम्ही ने लाकर दी थी!’’
‘‘बताओ कैसा था छोटा, लम्बा, ठिगना, मोटा, गोरा, काला, मोटर साइकिल कैसी थी, काली, सफेद, लाल, पीली, बताओं मुझे, अभी फोन खड़काता हूँ। पूरा प्रशासन हिलाकर रख दूँगा। मजाल है, एक पुलिस अफसर की बीवी की चेन खिच जाए!’’
‘‘भूल रहे हो, अब तुम रिटायर हो गए हो!’’
‘‘तो क्या हुआ ?’’
‘‘तुम कुछ हिला-हिलू नहीं सकते। जैसे आम आदमी की बीवी की खिचती है वैसी तुम्हारी बीवी की खिंच गई।’’
‘‘तेल लेने गया आम आदमी, तुम तो बताओ वह मोटी वाली गई कि उससे पतली वाली कि उससे पतली वाली कि एकदम पतली वाली ?’’
‘‘अरे आहां, मेरे पिछले बर्डे पर तुम खरीद कर लाए थे ना वो चपटी वाली, वही थी!’’
‘‘चपटी वाली !’’
‘‘हा वही चपटी वाली।’’
‘‘अच्छा...........वोऽऽऽऽऽह, वो चपटी वाली.........’’
‘‘हाँ वही, वो जो मुझे पटाने के लिए तुमने गिफ्ट में दी थी!’’
‘‘हाँ हाँ याद है....... आधी बच गई ना..... चलो जाने दो.....क्या करना है!’’
‘‘करना क्या है, पुलिस में रिपोर्ट डालना है और क्या! ’’
‘‘अरे छोड़ो, क्या करना है, सब बदमाश है साले वहाँ आजकल !’’
‘‘अरे वाह, करना क्यों नहीं है, हराम की थी क्या!’’
‘‘ऊँहू...... वह बात नहीं है, जाने दो......कौन पुलिस के झँझट में पड़े!’’
‘‘अरे क्यों जाने दो........! तुम तो एफ.आई.आर. लिखवाओ।’’
‘‘अरे क्या करना है, आधी ही तो गई है, जाने दो!’’
‘‘ऐसे कैसे जाने दो, चोर के बाप का माल है क्या ?’’
‘‘अरे अब छोड़ो भी तुम्हें दूसरी ला देंगे।’’
‘‘अरे दूसरी भी ले लूँगी, पर इसे भी नहीं छोडूँगी!’’
‘‘अरे जाने भी दो, ऐसी ही थी बेकार!’’
‘‘क्यों बेकार क्यों, तेइस कैरट शुद्ध सोने की चेन थी मेरी वो, मैं तो नहीं छोड़ने वाली!’’
‘‘अरे कह तो दिया बेकार थी, लगी हो जबरन फकर-फकर करने! दस रुपल्ली में हर माल वालों से खरीदी थी, सौ आने शुद्ध नकली चेन थी, हाँ नहीं तो !’’
‘‘क्या कहा ? बेईमान कहीं के, धोकेबाज़! सारे पुलिस वाले ऐसे ही होते है, धोकेबाज़। तुमने शादी भी मेरे माँ-बाप को धोका देकर की! बच्चे भी धोका देकर पैदा कर लिए। घर आओ आज तुम......बताती हूँ। नकली चेन के बदले ना तुम्हें असली जूतों का स्वाद चखाया तो मेरा नाम नहीं!’’
दोनों मोबाइल बंद हो गए। उसके बाद कौन जाने क्या हुआ।

Friday, February 5, 2010

“इश्किया” का गीत किसका गुलजार या सर्वेश्वर का

इश्किया फिल्म में गुलजार के लिखे ‘इब्नबतूता’ गीत को लेकर छिड़ा विवाद दुखी करता है। कहा जा रहा है कि इसे मूलतः हिंदी के यशस्वी कवि एवं पत्रकार स्व. सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ने लिखा है। ऐसे मामलों में नाम जब गुलजार जैसे व्यक्ति का सामने आए तो दुख और बढ़ जाता है। वे देश के सम्मानित गीतकार और संवेदनशील रचनाकार हैं। ऐसे व्यक्ति जिन्हें साहित्य और उसकी संवेदना की समझ भी है। हाल में ही चेतन भगत और आमिर खान के बीच थ्री इटियट्स को लेकर छिड़ी बहस को जाने दें तो भी मायानगरी ऐसे आरोपों की जद में निरंतर आती रही है। सहित्य के महानायकों की रचनाएं लेना और उसे क्रेडिट भी न देना कहीं से उचित नहीं कहा जा सकता। यह सिर्फ गलती नहीं है एक ऐसा अपराध है जिसके लिए कोई क्षमा भी नहीं मांगता। दिल्ली-6 में छत्तीसगढ़ के गांव-गांव में गूंजनेवाला छत्तीसगढ़ी गीत “सास गारी देवे, देवर जी समझा लेवे“ का उपयोग किया गया। सब जानते हैं इसे रायपुर की जोशी बहनों ने गाया था। किंतु क्रेडिट के नाम पर फोक लिख दिया। फोक क्या हवा में पैदा होता है। छत्तीसगढ़ी फोक लिखकर उस राज्य की संस्कृति को मान्यता देने में हर्ज क्या था पर चोरियों से ज्यादा सीनाजोरियां मुंबई की मायानगरी का चलन बन गयी हैं।

सर्वेश्वर जी हिंदी के एक बहुत सम्मानित कवि और पत्रकार होने के साथ-साथ रंगमंच के क्षेत्र में भी खास पहचान रखते थे। वे बच्चों के लिए भी लिखते रहे और अपने समय की महत्वपूर्ण बालपत्रिका पराग के संपादक रहे। उन्होंने बतूता का जूता और महंगू की टाई नाम से बच्चों के लिए कविताओं की दो पुस्तकें भी लिखी हैं। जिसमें बतूता का जूता (1971) में यह कविता है जिसपर विवाद छिड़ा हुआ है। अपने समय की महत्वपूर्ण पत्रिका दिनमान से जुड़े रहे सर्वेश्वर जी को शायद भान भी नहीं होगा कि उनकी मृत्यु के बाद उनकी रचनाएं इस तरह उपयोग की जाएंगी और उनके नामोल्लेख से भी पीढ़ियां परहेज करेंगीं। पर ऐसा हो रहा है और हमसब इसे देखने को विवश हैं।

भाव का अपहरण क्षम्य है, शब्द का अपहरण भी क्षम्य है किंतु पूरी की पंक्ति निगल जाना और क्रेडिट न देना कैसे माफ किया जा सकता है। यह रोग जिस तरह पसर रहा है वह दुखद है। फिल्मी दुनिया में नित उठते यह विवाद साबित करते हैं कि इससे किसी ने सबक नहीं लिया है। सर्वेश्वर जी ने अपनी एक कविता में लिखा था-

“और आज छीनने आए हैं वे

हमसे हमारी भाषा

यानी हमसे हमारा रूप

जिसे हमारी भाषा ने गढ़ा है

और जो इस जंगल में

इतना विकृत हो चुका है

कि जल्दी पहचान में नहीं आता।”

सर्वेश्वर कहते हैं कि वस्तुतः हमसे हमारी भाषा का छिन जाना हमारे व्यक्तित्व और अस्तित्व का मिट जाना है। चंद मामूली से शब्दों के द्वारा ही (छीनने आए हैं वे… हमसे हमारा रूप) कवि ने यह अर्थ हमें सौंप दिया है कि भाषा का छिन जाना हमारी जातीय परंपरा, संस्कृति, इतिहास और दर्शन का छिन जाना है। सर्वेश्वर हमारी सांस्कृतिक चेतन पर आए इस संकट को पहचानते हैं। वस्तुतः भाषा के सवाल पर यह संजीदगी सर्वेश्वर को एक जिम्मेदार पत्रकार बनाती है। सर्वेश्वर का पत्रकार इसी प्रेरणा के चलते पाठक में एक चेतना और अर्थवत्ता भरता नजर आता है। सर्वेश्वर की लेखनी से गुजरता पाठक, उनकी लेखनी से निकले प्रत्येक शब्द को अपनी चेतना का अंग बना लेता है। ऐसा इसलिए क्योंकि सर्वेश्वर पूरी ईमानदारी और संवेदना के साथ पाठक की चेतना को सम्प्रेषित करते हैं। सर्वेश्वर ने इसीलिए ऐसी भाषा तलाशी है जो वर्तमान परिवेश में सांस लेने वाले हरेक इन्सान की हैं, हरेक की जानी पहचानी है और हरेक का उससे गहरा और करीबी रिश्ता है। किंतु सर्वेश्वर की यही भाषा और शब्द आज मायानगरी के बाजार में सुनाए तो जा रहे हैं पर किसी और के नाम से। हालांकि इस पूरे मामले पर अभी गीतकार गुलजार की प्रतिक्रिया आना शेष है किंतु प्रथमदृष्ट्या यह मामला माफी के काबिल तो नहीं दिखता। इस तरह के विवाद साहित्य की अस्मिता पर हमला हैं और कलमकारों के लिए अपमानजनक भी किंतु क्या इस विवाद से कोई सबक लेने को तैयार है, शायद नहीं।

Tuesday, February 2, 2010

शिवेन्दु राय की मनभवन कविताओ में से एक कविता

शिवेन्दु राय की मनभवन कविताओ में से एक कविता
आओ पीछे लौट चलें……
बहुत कुछ पाने की प्रत्याशा में
हम घर से दूर हो गए !
जाने कितनी प्रतीक्षित आँखें
दीवारों से टिकी खड़ी हैं -
चलो उनकी मुरझाई आंखों की चमक लौटा दें !
सूने आँगन में धमाचौकड़ी मचा दें
- आओ पीछे लौट चलें………..
आगे बढ़ने की चाह में
हम रोबोट हो गए
दर्द समझना,स्पर्श देना भूल गए !
दर्द तुम्हे भी होता है,
दर्द हमें भी होता है,
दर्द उन्हें भी होता है
- बहुत लिया दर्द, अब पीछे लौट चलें……….
पहले की तरह,
रोटी मिल-बांटकर खाएँगे,
एक कमरे में गद्दे बिछा
इकठ्ठे सो जायेंगे …
कुछ मोहक सपने तुम देखना,
कुछ हम देखेंगे -
आओ पीछे लौट चलें…………………

वर्तमान परिवेश में पत्रकारिता का लक्ष्य

वर्तमान परिवेश में पत्रकारिता का लक्ष्य समझने के पूर्व यह जानना आवश्यक है कि पत्रकारिता क्या है? उसका लक्ष्य क्या है? पत्रकारिता का अंग्रेजी शाब्दिक अर्थ जर्नलिज्म (journalism) होता है, जो जर्नल शब्द से बनता है, जिसका मतलब दैनिक होता है। इससे स्पष्ट है कि दिन-प्रतिदिन की घटनाओं को सूचना के रूप में संकलित कर उसे पाठक के समक्ष संप्रेषित करने की कला एवं विज्ञान पत्रकारिता है अर्थात् विभिन्न स्त्रोतों से समाचारों एवं छायाचित्रों का संकलन, पाठकों की रूचियों के अनुसार समाचारों का संपादन, ज्वलंत मुद्दों पर संपादकीय विचार एवं आलेख से पाठकों का दिशा-दर्शन, पत्र का कलेवर नयनाभिराम बनाना, समय पर पाठक के समक्ष प्रस्तुत करना पत्रकारिता है। पाठकों की रूचियां एवं दिशा-दर्शन में ही लक्ष्य का भाव पूरा निहित है। रूचियों का तात्पर्य थोपना नहीं है जैसा कि वर्तमान में लक्ष्य बनता जा रहा है, क्योंकि पत्रकारिता समाज का दर्पण है।
पत्रकारिता एक सेवा है जो जनमत के अंदर राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना जागृत करती है, जनमुख को वाणी प्रदान करती है। पत्रकारिता स्वतंत्रता, मानवीय संवेदनाएं, समानता एवं बन्धुत्व का भाव पैदा करने वाली एक प्रभावशाली विधा है। स्वतंत्रता आंदोलन में भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना की भूमि तैयार करने वाली पत्रकारिता आजादी के 60 वर्षों के बाद आर्थिक उदारीकरण, भूमण्डलीकरण के नाम पर नई सूचना प्रौद्योगिकी के सोपानों पर चढ़कर नए विश्व गांव का निर्माण कर रही है। वर्तमान में पत्रकारिता का अर्थ महज समाचार पत्र ही नहीं है। अब रेडियो, दूरदर्शन, केबल उपग्रहीय सभी माध्यम शामिल हो गए हैं और जर्नलिज्म मास मीडिया में बदल चुका है।
सूचना समाज को संचालित करती है। जैसी सूचनाएं संप्रेषित की जाएंगी, वैसा ही समाज निर्मित होगा। पश्चिमी उपनिवेशवाद साम्राज्यवादी संस्कृति ग्लोबल विलेज के नाम पर जो हमारे शयनकक्ष में परोसी जा रही है, उससे भारतीय मूल्य एवं परंपराओं का ह्रास हो रहा है। मनुष्य अमानवीय एवं संवेदनशून्य बन रहा है। यह संस्कृति संदेहवादी, अवसरवादी प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रही है। इस संबंध में अमेरिका से प्रकाशित हिन्दी साप्ताहिक विश्व विवेक के प्रधान संपादक डॉ. भूदेव शर्मा लिखते हैं कि पश्चिम के देशों में अच्छी सुख सुविधाएं और सभ्यता है मगर संस्कृति के नाम पर यहां है, स्पर्धा-प्रतिस्पर्धा का सूत्र, संदेहवादी दृष्टिकोण, असहजता, असरलता का वातावरण, मोल-तोल के मूल्य और स्वाभाविक निष्ठुरता। यह स्थिति भारत की ही नहीं, बल्कि अनेक पूर्वी देशों से आए अप्रवासियों के जीवन का अभिशाप बन गया है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण माध्यमों द्वारा संप्रेषित धारावाहिकों, समाचारों और उसके विश्लेषणों में परिलक्षित हो रहा है। ब्राम्हणों, गुर्जरों के आरक्षण की मांग, अभिषेक-एश्वर्या की शादी, दाऊद, लादेन जैसे खूंखार आतंकवादियों, सरगनाओं का चेहरा, बाहुबली सांसद शहाबुद्दीन, विधायक मुख्तार अंसारी के कारनामों की कहानी या फिर छात्र नेता से डान बने बबलू श्रीवास्तव की पुस्तक की विश्लेषणात्मक सूचना जैसे चोरी, हत्या, दंगे-फसाद, चरित्र-हनन के चित्रों एवं दृश्यों से आपकी समाचारिक मीडिया भरी पड़ी है। यदि हम धारावाहिकों की चर्चा करें तो अधिकतर धारावाहिक राजसी ठाट-बाट परिवरों से जुड़े लोगों की कहानियों पर आधारित है। जहां शान-शौकत है, महंगी गाडियां, मोबाइल है, अच्छा खाना-पीना है लेकिन नहीं है तो आत्मीयता, बन्धुत्व, सहयोग एवं भारतीय मूल्य तथा परंपराएं। मीडिया वैज्ञानिक युग में भी अंधविश्वास, तंत्र-मंत्र एवं रूढ़िवादी परंपराओं को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति में पीछे नहीं है।
प्रिंट मीडिया भी इलेक्ट्रानिक मीडिया का अंधानुकरण कर रही है। मोबाइल पर भूत की कहानी को स्थानीय समाचारपत्रों ने इतना महिमा मंडित किया कि जैसे ऐसा संभव है। लेकिन भविष्यवाणी, सत्तालोलुप राजनीति के समाचारों से प्रिंट मीडिया भी भरा रहता है। इस संबंध में पत्रकार पं. ईश्वरदेव मिश्र ने लिखा है कि मीडिया कि भूमिका आज उचित नहीं है। निहित स्वार्थ पूर्ति के लिए सूचनाओं को विकृत करके आधे-अधुरे रूप में प्रस्तुत कर, तिल को ताड़ और अप्रमाणित को प्रमाणित स्वरूप देकर जनसंचार माध्यम अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। जिस प्रकार अभिव्यक्ति की आजादी का हमारे देश में धड़ल्ले से दुरूपयोग हो रहा है, इसी प्कार सूचना के क्षेत्र में दायित्वहीनता देश के लिए अनर्थकारी साबित हो रहा है। इलेक्ट्रानिक मीडिया हो या प्रिंट मीडिया दोनों आदर्शच्युत होकर तथ्य के नाम पर नंगापन, वीभत्स और कुसंस्कार परोस रहे हैं। हम अपराधी और अपराधीकरण की बात तो बहुत करते हैं किन्तु इनकी करतुतों को किसी हीरो की करामातों के रूप में छापते हैं और हम उन्हें सम्मानित नागरिक के रूप में प्रस्तुत करते हैं। हाल ही में प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक माध्यमों ने अबू सलेम-मोनिका बेदी के प्रंसग, मटुकनाथ से अपनी शिष्या की प्रेम कहानी जैसे ऐसे कई उदाहरण प्रस्तुत किए, जिसने जनमानस के मन में सकारात्मक या नकारात्मक छवि निर्मित कर उन्हें हीरो बना डाला। पत्रकारिता का लक्ष्य इंसानियत की भावना पैदा करना, मानवता का संदेश देना, लोक संस्कृति और परंपराओं की पहचान बनाए रखना और भाषा के अस्तित्व को बचाएं रखना। यद्यपि भारत एक ऐसा राष्ट्र है जहां एकता में अनेकता है। अर्थात विभिन्न धर्म, जाति, भाषा के नागरिक एक साथ, एक छत के नीचे रहते हैं। अभी हाल में असम में बिहारियों की हत्या, बिहार में पूर्वोत्तर नागरिकों पर प्रहार, मुंबई में बिहारियों एवं अन्य राज्यों के नागरिकों को जिस तरह मीडिया परोस रही है जैसे उनके लिए यह एक उत्पाद है। इन सभी सूचनाओं में महज जातिगत, क्षेत्रवाद, धर्मवाद के विद्वेष की भावना को जागृत किया जा रहा है। इस तरह के संदेश किसी भी विकासशील राष्ट्र की प्रगति में सदैव घातक रहते हैं। वैमनस्यता की बयार को गति देते हैं, एकता को ध्वस्त कर देते हैं, अवसरवाद एवं कटुता की जड़ को मजबूत करते हैं।
राष्ट्रीयता की ध्वजावाहिका, स्वदेश प्रेम, मानव कल्याण एवं बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय की दृष्टिकोण को लेकर जन्मी पत्रकारिता आज कैसे दिग्भ्रमित हो गई। इस संबंध में भारतीय पत्रकारिता के लगभग सवा दो सौ वर्ष के इतिहास के सभी पक्षों का संक्षिप्त तुलनात्मक अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि देश के प्रथम समाचारपत्र हिक्की गजट को संपादक ने अपने पत्र में राजनीतिक समाचारों को छापा वह भी नकरात्मक। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह था कि अन्याय के खिलाफ निर्भीकता और निष्पक्षता से लिखा, असत्य के आगे नहीं झुके, भले ही उन्हें यातनाएं सहनी पड़ी और उन्हें सब कुछ न्यौछावर करना पड़ा।
उसके बाद लगभग आजादी तक ब्रिटिश सरकार के चाटुकार पत्रों को छोड़कर भारतीयों द्वारा संपादित एवं प्रकाशित दैनिक भारत मित्र, राजस्थान समाचार, कलकत्ता समाचार, विश्वमित्र इत्यादि व्यावसायिक पत्रों का दृष्टिकोण पाठकोन्मुख था। सभी राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत थे, मालिकों की स्वार्थसाधना की वस्तु न थी और संपादकों को लेखन की पूरी स्वतंत्रता थी। तभी तो यह संभव हो सका। सत्य के उद्गाता, स्वतंत्रता के अनुष्ठाता, कर्तव्यपथ के अनवरत पथिक संपादकों की लेखनी ने हमें गुलामी से उभारा। चुनौती, प्रताड़ना और जेल यातना से जूझते हुए पत्रकारों एवं संपादकों ने पत्रकारिता को नई दिशा दी। पत्र संचालक अपने पत्र के संपादक को महत्व देते थे। संपादकाचार्य पं. अंबिका प्रसाद वाजपेयी ने लिखा है कि भारतमित्र व्यावसायिक होते हुए भी किसी स्वार्थसाधन हेतु नहीं निकलता था। फिर भी यह पहला हिन्दी समाचार पत्र था जिसमें संचालक मण्डल होता था। सन 1913 में भारत मित्र लिमिटेड कंपनी द्वारा चलाया जाता था। इस कंपनी में नामी-गिरामी उद्योगपति, व्यवसायी शामिल थे। स्वतंत्रता के कुछ वर्ष पूर्व ही पत्रकारिता ने व्यावसायिकता का रूप धारण करना शुरू कर दिया था और सनसनीखेज, अश्लीलता, आरोप-प्रत्यारोप के समाचारों का प्रकाशन शुरू हो गया था। इसके पीछे मूल कारण थे द्वितीय विश्वयुध्द बाद बढ़ती महंगाई, अखबारी कागजों के दामों में उछाल प्रतिस्पर्धा और विज्ञापन पाने की होड़ थी। पं. कमलापति त्रिपाठी ने लिखा है कि 1944 के आस-पास के दौर में हिन्दी पत्रकारिता से आदर्शवाद कम होने लगा था। कारण यह था कि अखबार छापना एक महंगा काल हो गया। विज्ञापन मिलने से फायदा हो सकता था, विज्ञापन उसी अखबार को मिलते थे जिसकी पाठक संख्या अधिक होती थी। पाठक संख्या बढ़ाने का आसान तरीका यही दिखता था कि पाठकों के मनोरंजन, सनसनी तथा जीवन की क्षुद्र लालसाओं को उत्तेजना प्रदान करने वाली बातों से पत्र के स्तंभ भरे जाएं। यहीं पाठकों को लालच व तरह-तरह के आकर्षण देकर फुसलाया भी जाने लगा। जनता का पथ प्रदर्शन करना राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय प्रश्नों की गुत्थी सुलझाना तो पीछे ही छूट गया। इसके स्थान पर बिल्कुल उसके विपरीत कुचाल से वे ही पत्र जनता को पतन तथा भ्रष्टाचार की ओर ले जाने लगे। अदालत में मुकदमेबाजी, व्यभिचार के मामले, प्रेम लीलाएं किसी की बेटी-बहू का किसी के साथ भाग जाना, दुस्साहसपूर्ण डकैती, जासूसी वगैरह के मामलों तथा निराधार बातों को भी मिर्च-मसाला लगाकर छापना शुरू हो गया। पाठकों को भी ऐसे ही अखबार भाने लगे।
स्वाधीनता के बाद संवैधानिक तौर पर समाचार पत्रों को अनुच्छेद 19 (6) के अंतर्गत वृत्ति, उपजीविका एवं व्यापार का दर्जा दिया गया और प्रेस पर औद्योगिक संबंध, कर्मचारियों के वेतन, ग्रेच्युटी आदि की अदायगी से उन्मुक्ति नहीं दी गई एवं अन्य व्यापारिक संस्थानों की तरह कर भी लगाए गए। तकनीकी विकास, गुणात्मक, संख्यात्मक वृध्दि, गलाकाट स्पर्धा में प्रसार बनाए रखना एवं उत्तरोत्तर प्रगति करते हुए धनार्जन करना पत्र स्वामियों का ध्येय बनता चला गया। जिससे पत्र की संपादकीय दृष्टि क्षीण होती गई और वित्तीय स्थिति सुदृढ़ हुई। इलेक्ट्रानिक माध्यमों में रेडियो का विस्तार हुआ। विविध भारती आया एफएम चैनल शुरू हुआ। दोनों ही विज्ञापन से होने वाले आय के मुख्य साधन है। 1959 में दूरदर्शन का श्रीगणेश हुआ और 1976 में विज्ञापन का प्रसारण आरंभ हुआ। 1982 में जन-जन तक पहुंचाने में दूरदर्शन का विस्तार किया गया। 1991 में उदारीकरण एवं भूमंडलीकरण की पृष्ठभूमि तैयार की गई और उपग्रही चैनल रंग-बिरंगी तस्वीरों के साथ उपभोक्तावादी अपसंस्कृति हमारे देश में प्रवेश किया, क्योंकि इसके पूर्व दूरदर्शन द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रमों में देश की सच्ची तस्वीरों को ही प्राथमिकता दी जाती थी। 1995 में इंटरनेट रूपी सूचनाओं का एक संजाल आया और फिर मिशन की पत्रकारिता जो प्रोफेशन बन गई थी उसे कामर्शियल बना दिया गया।
प्रोफेशनल और कामर्शियल में क्या अंतर है यह समझना आवश्यक है। व्यावसायिकता एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा है जो व्यापार के निर्धारित नैतिक मूल्यों एवं मापदंड के सहारे व्यापारी धनार्जन करता है, लेकिन कामर्शियल अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा है जहां कम से कम लागत, समय एवं घटिया सेवाएं देकर एवं मीठी-मीठी बातें करके ग्राहकों के मत्थे माल को मढ़ दिया जाता है। ग्राहक को लूटने में कोई संकोच या शर्म नहीं महसूस करता है बल्कि अपनी व्यापारिक बुध्दि पर खुश होता है। डॉ. अर्जुन तिवारी ने लिखा है कि मिशन (स्वतंत्रता हेतु समर्पित सेवा), एम्बीशन (राष्ट्र निर्माण की आकांक्षा) के पश्चात हिन्दी पत्रकारिता प्रोफेशन (व्यवसाय) कमीशन (अंशलाभ) तथा सेंसेक्स (तहलका) तक पहुंच चुकी है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) के अंतर्गत पत्रकारिता को अभिव्यक्ति एवं वाक स्वतंत्रता प्रदान की गई। जिसका तात्पर्य राष्ट्र के शोषित वर्ग की पीड़ाओं के प्रतिबिम्ब को शासक वर्ग के समक्ष प्रस्तुत करना और शासक की नीतियों का सच्चा विश्लेषण कर जनमत को वाणी प्रदान करना है। जिससे राष्ट्र खुशहाल हो एवं विकास हो सके। सचमुच यह स्वतंत्रता पाठकों और संपादकों की है न कि मालिकों की। संपादक निडरता, निष्पक्षता से राष्ट्र की सच्ची तस्वीर पाठकों के समक्ष उपस्थित करे और जनमत कार्यपालिका एवं विधायिका के संबंध में अपना निर्णय ले सके। स्वामी ने पूंजी लगाई है तो धनार्जन उसका उद्देश्य है लेकिन पत्र के कर्तव्य एवं लक्ष्य पर हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। आज के युग में अब उलटा ही हो रहा है कि बैनेट एण्ड कोलमैन समूह के टाइम्स आफ इंडिया पत्र के प्रबंध निदेशक समीर जैन ने संपादक नाम की संख्या पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। उनकी मान्यता है कि अखबार की पृष्ठ संख्या, रूप साा और उसकी कीमत ही अधिक कारगर महत्व रखती है, संपादकीय सामग्री अधिक नहीं।
अखबार निकालने के लिए उनकी नजर में किसी खास किस्म की ट्रेनिंग या पेशागत प्रतिबध्दता की जरूरत भी नहीं है। प्रबंधकीय क्षमता वाला कोई भी व्यक्ति बेहतर संपादक की भूमिका भी बखूबी निभा सकता है। निश्चित तौर पर यह भयावह स्थिति है, मीडिया द्वारा एक विचारहीन समाज का निर्माण किया जा रहा है। न्यायमूर्ति पीवी सांवत का कहना है कि शासन संपादकों का नहीं प्रबंधकों का है। वर्षों से घोषित पत्रकारिता के मूल्य आज औंधे मुंह गिर रही है। इसका शिकार समाज हो रहा है और दांव पर उसका भविष्य है।
किसी भी लोकतांत्रिक समाज की व्यवस्था संचालन में मीडिया की शक्तिशाली भूमिका होती है। सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में पत्र-पत्रिकाएं जनता की पथ प्रदर्शक, शुभचिंतक एवं निस्वार्थी की भूमिका निर्वहन करती है। उनकी वास्तविक प्रकृति एवं गतिविधियां सामाजिक एवं राजनैतिक भ्रष्टाचार, अन्याय, शोषण एवं असमानता के विरूध्द होती है। प्रसिध्द विद्वान वेण्डले फिलिप ने लिखा है कि आज का समाचार पत्र एक बारगी जनवर्ग का माता-पिता, स्कूल-कालेज, शिक्षक, थियेटर, आदर्श, परामर्शदाता और साथी हो गया है।
किसी भी राष्ट्र का मूल आधार शिक्षा, स्वास्थ्य एवं गरीबी है। यदि राष्ट्र को खुशहाल रखना हो तो गरीबी खत्म हो, सभी साक्षर हों एवं सभी स्वस्थ हों। भारत गांवों का देश है और आज भी लगभग 64 प्रतिशत आबादी गांवों रहती है। उनके जीविकोपार्जन का साधन कृषि है। यह एक सत्य है कि आज भी हमारे देश में 35 प्रतिशत निरक्षर हैं। इसका दूसरा पहलू स्त्री-पुरूष साक्षरता दर में 29 प्रतिशत का है और शहरी ग्रामीण साक्षरता दर में 27 प्रतिशत का अंतर है। यह असमानता सर्वाधिक बिहार, झारखंड, राजस्थान जैसे हिन्दी भाषी राज्यों में देखी जा सकती है। स्वास्थ्य पर ध्यान दिया जाए तो प्रसव के दौरान जच्चा-बच्चा की मृत्यु दर भी लगभग 6 प्रतिशत है जिसमें सर्वाधिक ग्रामीण क्षेत्रों में हैं। उसके पीछे कारण है 80 प्रतिशत प्रसव अप्रशिक्षित कर्मी से घर पर कराया जाना, बाल विवाह, समय से पूर्व गर्भाधान एवं शिशु प्रसव के वक्त उपस्थित गंदा वातावरण। वर्तमान में 40 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। जिसमें सर्वाधिक ग्रामीण क्षेत्रों के हैं।
वर्तमान में मीडिया अधिक प्रसार एवं विज्ञापन प्राप्त करने की होड़ में इस कदर फंस चुका है कि भारत का असली चेहरा कहां है, वह भूल चुका है। उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा देकर विज्ञापनदाताओं को प्रत्यक्ष सहयोग प्रदान करना उसका ध्येय हो गया है। इससे क्या देश आने वाले दशक में विकसित राष्ट्रों में शामिल हो जाएगा? इस पर प्रश्नचिन्ह लग रहा है।
भारत की आत्मा गांवों, झोपड़ बस्तियों में बसती है। मीडिया का दायित्व है कि उनकी उपेक्षा न करके समाज की मुख्य धारा में इन्हें भी जोड़ें। पश्चिमी सभ्यता के उपनिवेशवादी अप-संस्कृति के भंवरजाल में उलझी मीडिया को इससे निकलना होगा और राष्ट्र की वास्तविक तस्वीर प्रस्तुत करनी होगी। नहीं तो आने वाला कल इसी मीडिया से प्रश्न करेगा कि यह किसका राष्ट्र है? गांधी जी का या फिर उन अंग्रेजों का जिन्होंने हमें गुलाम बना रखा था। मीडिया को अपना लक्ष्य बदलना होगा तभी हम गांधी की परिकल्पना खुशहाल राष्ट्र को साकार कर राम राज्य स्थापित कर सकते हैं। …………….
शिवेन्दु राय

Monday, February 1, 2010

जय हो जय हो जय जय हो

आजा आजा जिन्द सामियाने के तले। और इसके बाद जय हो। आस्कर सेरेमनी में अभी जब इस संगीत के सामियाने में ए आर रहमान पुरस्कार ले रहें हैं तो दिल गर्व से गदगद हो रहा है। हांलाकि ए आर रहमान की धुनें पहले गोल्डन ग्लोब और उसके बाद बाफटा में कमाल दिखा चुकी थी। लेकिन आस्कर आंखिर आस्कर है। ये हर भारतीय के लिए गर्व की बात है कि भारत के संगीत को इस बार विश्व में अलग पहचान मिली है। इसे एक विडंबना जरुर कहा जा सकता है कि जिस विषय पर यह फिल्म बनी है उस विषय का अस्तित्व हमारे यहां कायम है। और उस विषय पर फिल्म किसी विदेशी ने बनायी। हांलाकि इस बात को लेकर बहस भी की गई कि फिल्म भारत की गलत छवि को दिखा रही है। लेकिन सच्चाई को कितना ही छुपा लिया वा छुपती नहीं। और जो सच है। वो है। पर अभी सबसे बढ़ा सच ये है कि स्लमडौग मिलिनियर ने भारत की जय पूरे विश्व में करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

गुलजार जैसे शब्दों के बाजीगर को देर से ही सही उसका स्थान मिला। और रसूल कुटटी को भी बेस्ट साउन्ड एडिटिंग का पुरस्कार मिला। दरअसल किसी कलाकार को जब उचित सम्मान मिलता है तो उसके अन्दर की खुशी में एक आध्यात्मिक सा सुख होता है। रहमान या कुटी जब स्टेज पर पुरस्कार ले रहे थे तो यह सुख साफ झलक रहा था। आस्कर जैसे फिल्मी दुनिया के सबसे बड़े सम्मान का हकदार तो रहमान और गुलजार हमें बना ही चुके हैं लेकिन बइ सवाल उस सच्चाई को स्वीकारने का भी है जो फिल्म की रगों में समाई हुई है। वो गरीबी वो फरेब सब कुछ सच है। डैनी बोएल ने उसे देखा है और उसे सिनेमा के पर्दे पर उतारा है और अब हम उसे देखें और उसके लिए कुछ करें तो यह सम्मान सार्थक हो पायेगा। एक फिल्म के रुप में झंडे गाड़ चुकी इस फिल्म के बहाने हम सोचें कि
मखमल के परदे के पीछे
फूलों के उस पार।
ज्यों का त्यों है बसा आज भी
मरघट का संसार।


इस गौरवशाली मौके पर ये पंक्तियां आपको निराश कर सकती हैं। आपकी उत्सवधर्मिता को ठेस पहुंचा सकती हैं। पर यहां आग्रह यही है कि खुशियां मनायें पर न भूलें कि खुशियां मनाने की वजह सात अवार्ड धड़ाधड़ दिला सकती है लेकिन एक देश को इन सच्चाइयों को स्वीकारे बगैर आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। फिलवक्त भारतीय संगीत और संगीतकारों की जय हो कहने से मुझे कोई नही रोक सकता।

जनसरोकारों से जुड़ी पत्रकारिता के खतरे से जूझता उत्तराखंड

उत्तराखंड में फिलवक्त पत्रकारिता के दो स्वरुप दिखाई दे रहे हैं। पहला जिसमें बड़े पूंजीपति समूह एक बड़े मार्केट प्लेयर के रुप में वहां अपनी जड़ें जमाने पर आमादा हैं। इस बीच इसी क्रम में हिन्दुस्तान और राष्ट्रीय सहारा जैसे बड़े ामूहों ने वहां अपना प्रसार किया है। इससे पहले उत्तर भारत के प्रमुख समाचार पत्रों दैनिक जागरण और अमर उजाला का बाजाार पर कब्जा था और सम्भवतह राष्टीय सहारा और हिन्दुस्तान उनके इस अधिपत्य पर नजर गड़ाये हुए हैं। ये समाचार पत्र दूरस्थ कस्बाई इलाकों में पहुंचने की भर्सक कोषिष में जुटे हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या ये समाचार पत्रा वहां की पत्रकारिता को सूुदृढ़ करने में मददगार हो रहे हैं? क्या आम जनता से जुड़ने के सरोकार दन समूहों को यहां खींच लाये हैं? या ये महज बाजार का दबाव और प्रतिस्पर्धा का परिणाम है। मौजुदा हालात देखते हुए दूसरा कारण ज्यादा प्रभावी दिखाई देता है। इन समाचार पत्रों ने यहां एक नई पत्रकारिता संस्कुति विकसित की है जिसका नारा है विज्ञापन जुटाओ और पत्राकर बन जाओ। आपकी पत्रकारिता की समझ के कोई मायने नहीं हैं, आप एक पत्रकार बन सकते हैं यदि आप दिया गया टार्गेट पूरा कर पाने में सक्षम हैं। इस नयी परम्परा ने पत्रकारिता को दलाी का एक बड़ा जरिया बनाकर रख दिया है। यहां पत्रकारिता के माध्यम से पनप रहे नेक्सेस को सपष्ठतौर पर देखा जा सकता है, यह नेक्सेस छोटे इलाकों में ज्यादा हावी हो रहा है। माने यह कि हाकर, विज्ञापन प्रबन्धक और पत्रकार तीनों एक ही हैं। इनकी समझ, सोच और कार्यपद्धति में कोई अन्तर नहीं है। हालाकि यह एक कस्बाई पत्रकार की मजबूरी भी है कि वह विज्ञापन जुटाए और कमीशन बचाकर अपनी रोजी रोटी का जुगाड़ करे। यहां एक पत्रकार को एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी से कम वेतन दिया जा रहा है। राष्टीय सहारा में काम कर रहे एक पत्रकार मित्र ने जब बताया कि उसे महज बारह सौ रुपये वेतन के रुप में मिल रहा है तो सिथति साफ हो गई। ऐसे में एक पत्रकार विज्ञापन के कमीषन पर निर्भर ना रहे तो और क्या करे?
लेकिन राहत की बात है कि पत्रकारिता का दूसरा स्वरुप अब भी उत्तराखं डमें सांसे ले रहा है। हांलाकि ऐसे अधिकांष पत्रों की हालत खस्ता हो चुकी है। पर तेवर अब भी नहीं बदले हैं। 8 साल पुराने एक पाक्षिक समाचार पत्र नैनीताल समाचार ने सिर्फ उनकी नजरों के लिए जिन्हें नैनीताल समाचार की परवाह है शीर्षक से अपनी बदहाली का रोना अपने पाठकों के सामन रोया। इस लम्बे पत्र में पाठकों से अपील की गई थी कि यदि शीघ्र ही पाठकों ने 2000 रुपये तक की आर्थिक मदद न की तो पत्र का निकलना मुष्किल हो जायेगा। नैनीताल समाचार राजीव लोचन साह के सम्पपादकत्व में लम्बे समय से उत्तराखंड की पत्रकारिता में अपनी धाक जमाये हुए है। बिना विज्ञापन के निकलने वाले इस पत्र में असल उत्तराखंड की झलक देखी जा सकती है। दूसरी ओर युगवाणी उत्तरान्चल पत्रिका जैसी कुछ पत्रिकाएं भी पहाड़ के जनसरोकार से जुड़ी पत्रकारिता को अब तक जिन्दा रखे हुए हैं। ये चंद ऐसे प्रयास हैं जिनका जिन्दा रहना उत्तराखंड की असल पत्रकारिता को जिलाये रखने के लिए जरुरी है। ये पत्र पत्रिकाएं तंग आर्थिक संसाधनों के चलते कितने समय तक अपना अस्तित्व बनाये रख पाएंगी कहना मुश्किल है।
इस दौर में पूरा उत्तराखंड आन्दोलनों और हड़तालों के साये में जी रहा है। अइस्पतालों से चिकित्सक, विद्यालयों से शिक्षक और नलकों से पानी नदारद होने ज्ैासी वजहें पहाड़ी वादियों के लोगों को सड़कों पर उतर लामबंद होने का मजबूर कर रही हैं। सरकारी योजनाओं का पैसा भ्रष्ट अफसरशाही तंत्र के चलते अधिकारियों और ठेकेदारों की जेबों में जा रहा है। ऐसे में इस पूरे तंत्र के खिलाफ आवाज उठाने वाली पत्रकारिता संस्कुति वहां एक बड़ी जरुरत बनकर उभर रही है। लेकिन बड़े पतकारिता समूह इस जरुरत को पूरा करने का माददा नहीं कदिखा रहे। इसका छोटा सा उदाहरण इस बार देखने को मिला। पिथौरागढ़ जिले के गंगोलीहाट कस्बे शराब विरोधी आन्दोलन के बाद दबाव में बन्द की गई षराब की दुकान को क्षेत्रीय उपजिलाधिकारी के नेतुत्व में कुछ लोग फिर से खोलने पर आमादा हैं। स्थानीय पत्रकारों ने बताया िकइस आशय के लिए बुलाई गई एक मीटिंग में पत्रकारों को आने से रोक दिया गया। और उनसे बदसलूकी की गई। इसका विरोध करती हुई एक खबर अमर उजाला के एक पत्रकार ने भेजी लेकिन यह खबर तो नहीं ही छपी उल्टे उस पत्रकार को डेस्क में बैठै लोगों की खरी खोटी सुननी पड़ी। स्पष्ठ है उनपर कोई दबाव था। ऐसे में बड़े संस्थानों से उम्मीद करना बेमानी ही है। देखना यह है कि पूंजी जुटाने के इतर जनसरोकारों से जुड़ी पत्रकारिता कर रही पत्र पत्रिकाएं कब तक संघर्श कर पाएंगी। यह पत्रकारिता के लिए बड़ी हार होगी कि आर्थिक संसाधनों की कमी के चलते इन पत्र पत्रिकाओं को दम तोड़ना पड़े। सरकारी मदद की उम्मीद तो नहीं की जा सकती क्योंकि जो पत्र पत्रिकाएं सरकार की अनियमितताओं के खिलाफ लिख रहे हैं सरकार क्योंकर उन्हें मदद करेगी। उत्तराखंड में रामनगर से पिछले 11 सालों से निकल रहे एक पाक्षिक पत्र नागरिक के पाठकों को खूफिया पुलिस के दुव्र्यवहार का सामना करना पड़ा। पुलिस ने घर घर जाकर इस पत्र के पाठकों के साथ दुव्र्यवहार किया और पत्र जब्त किये। ऐसे हालात में जनता को ही ये समझना होगा कि उनकी मदद ही इस तरह की पत्रकारिता को जीवित रख सकती है।

हिंदी साहित्य का वर्तमान परिदृश्य

हिंदी के विस्तार के इस समय में, जहां हिंदी समाचार पत्रों की पाठक संख्या, उनकी स्थिति तथा हिंदी टीवी और फिल्मों के दर्शक वर्ग की संख्या बढ़ती जा रही है वहीं समकालीन हिंदी साहित्य की स्थिति दयनीय है । यदि गिनती के कुछ कथाकारों और कवियों को छोड़ दिया जाए तो साहित्य की इस महत्वपूर्ण विधा पर लिखने वाले ज्यादातर गुटबाज और संस्थान संरक्षित लोग ही दिखाई पड़ रहे हैं। हिंदी आलोचना की हालत तो सबसे बुरी है । कहा जाना चाहिए कि हिंदी साहित्य दुर्भाग्य से अब जनता का साहित्य नहीं रह गया है । दरअसल उसने अपने आप को सांस्थानिक संरक्षण की ओर मोड़ लिया है और वो हिंदी विभागों का या फिर अकादमियों व संस्थानों का साहित्य रह गया है । लेनिन कहते हैं कि तोलस्तोय का साहित्य सोवियत समाज का दपर्ण है और लगभग हमारे यहां भी यही कहा जाता है लेकिन आज की जो स्थिति है उसे देखते हुए हिंदी साहित्य के संदर्भ में यह बात स्वीकार कर पाना कठिन है । हिंदी साहित्य का समकालीन परिदृश्य सचमुच चैंकाने वाला है । देश के बड़े-बड़े प्रकाशक पाठकों का रोना रो रहे हैं । लेकिन चूंकि उनका आधार सरकारी खरीद है इसलिए उनके पास पूंजी की कमी उतनी नही है । लेकिन यहां भी प्रकाषन की अराजकता हावी है । स्थिति यह है कि अधिकांष प्रकाशकों के पास कोई मानदंड नहीं है कि वे किस तरह की और किस स्तर की पुस्तक प्रकाशित करेंगे । अराजक किस्म का बाजार ज़रूर बन गया है जो सरकारी या अर्ध-सरकारी स्तर पर पहुंच और सिफारिश के सहारे कमीशन के बल पर चलता है । प्रकाशन जगत में सहयोग राशि की बीमारी महामारी का रूप ले चुकी है । आज कल के अधिकांश कविता संकलन कवि द्वारा ही दिए जा रहे सहयोग राशि के सहारे छप रहे हैं । अन्य बहुत सी पुस्तकें भी लेखक-कवि बनने के आकांक्षी लोगों द्वारा प्रदत्त पैसों से छप रही हैं । प्रकाशक अपने प्रकाशन का नाम बेंचने का धंधा करने लगा है । यही कारण है कि नये संभावनाशील और जेनुइन लेखकों के सामने आ सकने के रास्ते बंद हो गये हैं । यदि कुछ लघु पत्रिकाएं इस ओर ध्यान न दे रही होतीं तो षायद जेनुइन कवियों-कथाकारों का अकाल पड़ जाता । लेकिन इन पत्रिकाओं में भी अलग तरह की धांधली है । तथाकथित दलित और स्त्री विमर्श के नाम पर जातिवादी और स्त्रियों को भोग विलास की वस्तु समझने वाले लोग ही वहां छप रहे हैं । ऐसे छपाक लोगों से कहीं ज्यादा अच्छे तो वो कवि हैं जिनकी चर्चा हंस के मई अंक में पत्रिका के सहायक संपादक संजीव ने की है । गुमनामी की गहराई में गुम हो गए कस्बाई कवि मिलिन्द कश्यप की चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा है कि ‘कस्बों में समय बहुत धीरे-धीरे चलता है । वहीं इसका एक धनात्मक पक्ष भी है कि वहां मंच हथियाने या कहीं तत्काल पहुंचने की कोई हड़बड़ी नहीं होती ।’ अपने नियमित स्तंभ ‘बात बोलेगी’ में वे आगे लिखते हैं कि एक खास स्तर के बाद ऐसे अधिसंख्य कवि आधुनिक भावबोध और फैषन की परंपरा से जुड़ नहीं पाते या प्रचार के अभाव में पिछड़ते-पिछड़ते धूमिल पड़ जाते हैं ।
गुमनामी का दंश झेलने वाले कई और समर्थ साहित्यिक लोग मिल जाएंगे । जैसे कि चंपारण के कवि गोपाल सिंह नेपाली को ही आज कौन याद रख सका है । उनकी मौत पर आकाशवाणी केन्द्र से दिनकर जी ने कहा था- ‘नेफा और लद्दाख का एक सैनिक मर गया ।’ या फिर वहीं के साहित्यकार-कवि रमेशचंद्र झा के साहित्यिक अवदान को कैसे भुला दिया गया । जिनके बारे में हरिवंश राय बच्चन ने लिखा है कि ‘रमेश के गीतों में हृदय बोलता है और कला गाती है’ । दरअसल, ऐसी प्रतिभाओं का उभरना तो खोजी किस्म के लेखन से ही संभव हैं । लेकिन हिंदी के साथ यह बात अब नहीं रह गयी है । विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों में चलाए जा रहे शोध कार्य जातिगत और दलगत निरर्थक कार्य भर हैं । तुर्गनेव शायद इसीलिए कहते थे कि मेरा उद्देश्य साहित्य के अकादेमिक इतिहास में नहीं, पाठक के हृदय तक पहंुचने का है । हिंदी के आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने कवि त्रिलोचन के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए कहा था कि देश भर के हिंदी विभागों ने जितने साहित्यकार पैदा नहीं किए होंगे उतने अकेले कवि त्रिलोचन ने पैदा किए । यह बात सौ फीसदी सच है ।
सबसे बुरी स्थिति समकालीन हिंदी आलोचना की है जो दुर्भाग्य से गलत-सलत पुस्तक समीक्षाओं तक सीमित होकर रह गया है । लेखकों के दल एक-दूसरे की पुस्तक समीक्षाएं करने में लगे हुए हैं । आलोचना के नाम पर चापलूसों, गुटबाजों, दोस्तों और पार्टी कार्यकर्ताओं का दादुर शोर भर सुनाई देता है । दरअसल, अपने समय की किसी भी रचना या रचनाकार को पहचानने में हिंदी आलोचना ने वैसी ही ऐतिहासिक भूलें की हैं जैसा भारत की कम्यूनिस्ट पार्टियाँ करती रही हैं । आखिरकार, ज़दानोव नामक वह कम्युनिस्ट आलोचक कौन था, जिसने ताॅल्स्ताॅय के साहित्य को रूसी साहित्य से निकाल बाहर करने की कोशिश की थी ? डाॅ. रामविलास षर्मा जैसे विद्वान और दिग्गज आलोचक ने फणीश्वरनाथ रेणु को जोलवादी और प्रकृतिवादी सिद्ध किया था । इतना ही नहीं उन्होंने मुक्तिबोध को अस्तित्ववादी और मनोरोगी तक सिद्ध कर डाला । ऐसी कई और भयंकर भूलें हुईं हैं । हिंदी आलोचना में ही स्वदेश दीपक, उशा प्रियंवदा, विद्यासागर नौटियाल, शेखर जोशी जैसे अनेक समर्थ कथाकारों पर चर्चा नहीं हुई । बल्कि कईयों को तो दबाया जाता रहा है । जैसे समकालीन हिंदी कहानी के समर्थ कथाकार उदय प्रकाश के साथ हिंदी के टुच्चे आलोचकों ने जो रवैया अपनाया वह निंदनीय है । आज के समय के एक बेहतरीन कथाकार देवेन्द्र कहां हैं और क्या लिख रहे हैं, यह कौन पूछता है ? लेकिन ये लोग दरअसल पाठकों तक पहुंचने में सफल हुए हैं ।
ढर्रे लेखन के हिंदी के इस दौर में स्टार न्यूज़ पर चलाए जा रहे कार्यक्रम ‘सनसनी’ से ज़्यादा गिरी हुई और सनसनाती कहानियां पुरस्कृत की जा रही हैं । निश्चय ही, इन सबमें हिंदी साहित्य और जेनुइन लेखकों का ही अहित है । उदय प्रकाश ने अपने एक इंटरव्यू में कहा भी है कि प्रायोजित पुरस्कारों, जिनकी बाढ़ आई हुई है और ऐसे संस्थानबाज लेखकों-आलोचकों की गतिविधियों का कभी-कभी गहरा नकारात्मक प्रभाव किसी भी ईमानदार और संवेदनशील रचनाकार पर पड़ता है । अगर कोई इन संस्थानों और पुरस्कारों की राजनीति से दूर अपने एकांत में भी रहना चाहे तब भी इनके प्रायोजित निंदा अभियानों और दुरभिसंधियों आदि से बच नहीं सकता ।
ये बातें अविश्वसनीय जान पड़ती हैं लेकिन एक तरह की साहित्यिक परंपरा कवि-लेखकों की प्रताड़ना, उपेक्षा, षोशण और षड़्यंत्रों की भी है । और इसमें कुछ चालाक और धूर्त किस्म के तथाकथित कवि, कथाकार और आलोचक ही शामिल हैं । आखिर क्यों इलियड और ओडिशी का रचनाकार होमर अंधा हो जाता है और अंधा होकर मर जाता है ? तुलसीदास को काशी के पंडे मस्जिद की सीढ़ियों में सोने और भीख मांगने के लिए विवश करते हैं और आज के इस समय में ‘कासी के अस्सी’ को महिमामंडित करने का कुकृत्य किया जाता है । गोपाल सिंह नेपाली का शव चंपारण के किसी गलियारे में कफ़न का रास्ता देखते थक जाता है और इन दिनों ब्लाॅग की दुनिया में उतरने के लिए प्रकाश झा को बधाई अर्पित की जाती है । भले ही हिस्ट्रीशीटरों की जमात जुटाने वाली पार्टी से चुनाव लड़कर हारने की कोई चर्चा नहीं होती या उत्तर बिहारियों पर हुए हमले पर वे स्वयं चुप्पी साध लेते हैं । भुवनेश्वर जैसा कवि अपनी पैंट में बिलजी का तार बांध कर इलाहाबाद या बनारस की किसी धर्मशाला के सामने मरा हुआ पाया जाता है । षैलेश मटियानी जैसा कथाकार देश की राजधानी के एक मानसिक अस्पताल में विक्षिप्त होकर मर जाता है । और ऐसे ही कितनी भयावह मौतों को झेलने वाले साहित्यिक प्रतिभाओं पर झूठे शोधकार्य करने वाले छात्र और कराने वाले प्राध्यापक अपना भविष्य संवार लेते हैं । आलोचकों द्वारा प्रताड़ित करने की परंपरा हो या फिर गांव-गंवई के लेखकों का उपेक्षित रह जाना, यह सब एक पतित और भ्रष्ट हो चुकी पूँजीवादी राजनीतिक व्यवस्था से जुड़ी हुई ताकतवर सामाजिक प्रक्रिया ही है ।
शिवेन्दु राय