hum hia jee

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Monday, February 1, 2010

हिंदी साहित्य का वर्तमान परिदृश्य

हिंदी के विस्तार के इस समय में, जहां हिंदी समाचार पत्रों की पाठक संख्या, उनकी स्थिति तथा हिंदी टीवी और फिल्मों के दर्शक वर्ग की संख्या बढ़ती जा रही है वहीं समकालीन हिंदी साहित्य की स्थिति दयनीय है । यदि गिनती के कुछ कथाकारों और कवियों को छोड़ दिया जाए तो साहित्य की इस महत्वपूर्ण विधा पर लिखने वाले ज्यादातर गुटबाज और संस्थान संरक्षित लोग ही दिखाई पड़ रहे हैं। हिंदी आलोचना की हालत तो सबसे बुरी है । कहा जाना चाहिए कि हिंदी साहित्य दुर्भाग्य से अब जनता का साहित्य नहीं रह गया है । दरअसल उसने अपने आप को सांस्थानिक संरक्षण की ओर मोड़ लिया है और वो हिंदी विभागों का या फिर अकादमियों व संस्थानों का साहित्य रह गया है । लेनिन कहते हैं कि तोलस्तोय का साहित्य सोवियत समाज का दपर्ण है और लगभग हमारे यहां भी यही कहा जाता है लेकिन आज की जो स्थिति है उसे देखते हुए हिंदी साहित्य के संदर्भ में यह बात स्वीकार कर पाना कठिन है । हिंदी साहित्य का समकालीन परिदृश्य सचमुच चैंकाने वाला है । देश के बड़े-बड़े प्रकाशक पाठकों का रोना रो रहे हैं । लेकिन चूंकि उनका आधार सरकारी खरीद है इसलिए उनके पास पूंजी की कमी उतनी नही है । लेकिन यहां भी प्रकाषन की अराजकता हावी है । स्थिति यह है कि अधिकांष प्रकाशकों के पास कोई मानदंड नहीं है कि वे किस तरह की और किस स्तर की पुस्तक प्रकाशित करेंगे । अराजक किस्म का बाजार ज़रूर बन गया है जो सरकारी या अर्ध-सरकारी स्तर पर पहुंच और सिफारिश के सहारे कमीशन के बल पर चलता है । प्रकाशन जगत में सहयोग राशि की बीमारी महामारी का रूप ले चुकी है । आज कल के अधिकांश कविता संकलन कवि द्वारा ही दिए जा रहे सहयोग राशि के सहारे छप रहे हैं । अन्य बहुत सी पुस्तकें भी लेखक-कवि बनने के आकांक्षी लोगों द्वारा प्रदत्त पैसों से छप रही हैं । प्रकाशक अपने प्रकाशन का नाम बेंचने का धंधा करने लगा है । यही कारण है कि नये संभावनाशील और जेनुइन लेखकों के सामने आ सकने के रास्ते बंद हो गये हैं । यदि कुछ लघु पत्रिकाएं इस ओर ध्यान न दे रही होतीं तो षायद जेनुइन कवियों-कथाकारों का अकाल पड़ जाता । लेकिन इन पत्रिकाओं में भी अलग तरह की धांधली है । तथाकथित दलित और स्त्री विमर्श के नाम पर जातिवादी और स्त्रियों को भोग विलास की वस्तु समझने वाले लोग ही वहां छप रहे हैं । ऐसे छपाक लोगों से कहीं ज्यादा अच्छे तो वो कवि हैं जिनकी चर्चा हंस के मई अंक में पत्रिका के सहायक संपादक संजीव ने की है । गुमनामी की गहराई में गुम हो गए कस्बाई कवि मिलिन्द कश्यप की चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा है कि ‘कस्बों में समय बहुत धीरे-धीरे चलता है । वहीं इसका एक धनात्मक पक्ष भी है कि वहां मंच हथियाने या कहीं तत्काल पहुंचने की कोई हड़बड़ी नहीं होती ।’ अपने नियमित स्तंभ ‘बात बोलेगी’ में वे आगे लिखते हैं कि एक खास स्तर के बाद ऐसे अधिसंख्य कवि आधुनिक भावबोध और फैषन की परंपरा से जुड़ नहीं पाते या प्रचार के अभाव में पिछड़ते-पिछड़ते धूमिल पड़ जाते हैं ।
गुमनामी का दंश झेलने वाले कई और समर्थ साहित्यिक लोग मिल जाएंगे । जैसे कि चंपारण के कवि गोपाल सिंह नेपाली को ही आज कौन याद रख सका है । उनकी मौत पर आकाशवाणी केन्द्र से दिनकर जी ने कहा था- ‘नेफा और लद्दाख का एक सैनिक मर गया ।’ या फिर वहीं के साहित्यकार-कवि रमेशचंद्र झा के साहित्यिक अवदान को कैसे भुला दिया गया । जिनके बारे में हरिवंश राय बच्चन ने लिखा है कि ‘रमेश के गीतों में हृदय बोलता है और कला गाती है’ । दरअसल, ऐसी प्रतिभाओं का उभरना तो खोजी किस्म के लेखन से ही संभव हैं । लेकिन हिंदी के साथ यह बात अब नहीं रह गयी है । विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों में चलाए जा रहे शोध कार्य जातिगत और दलगत निरर्थक कार्य भर हैं । तुर्गनेव शायद इसीलिए कहते थे कि मेरा उद्देश्य साहित्य के अकादेमिक इतिहास में नहीं, पाठक के हृदय तक पहंुचने का है । हिंदी के आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने कवि त्रिलोचन के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए कहा था कि देश भर के हिंदी विभागों ने जितने साहित्यकार पैदा नहीं किए होंगे उतने अकेले कवि त्रिलोचन ने पैदा किए । यह बात सौ फीसदी सच है ।
सबसे बुरी स्थिति समकालीन हिंदी आलोचना की है जो दुर्भाग्य से गलत-सलत पुस्तक समीक्षाओं तक सीमित होकर रह गया है । लेखकों के दल एक-दूसरे की पुस्तक समीक्षाएं करने में लगे हुए हैं । आलोचना के नाम पर चापलूसों, गुटबाजों, दोस्तों और पार्टी कार्यकर्ताओं का दादुर शोर भर सुनाई देता है । दरअसल, अपने समय की किसी भी रचना या रचनाकार को पहचानने में हिंदी आलोचना ने वैसी ही ऐतिहासिक भूलें की हैं जैसा भारत की कम्यूनिस्ट पार्टियाँ करती रही हैं । आखिरकार, ज़दानोव नामक वह कम्युनिस्ट आलोचक कौन था, जिसने ताॅल्स्ताॅय के साहित्य को रूसी साहित्य से निकाल बाहर करने की कोशिश की थी ? डाॅ. रामविलास षर्मा जैसे विद्वान और दिग्गज आलोचक ने फणीश्वरनाथ रेणु को जोलवादी और प्रकृतिवादी सिद्ध किया था । इतना ही नहीं उन्होंने मुक्तिबोध को अस्तित्ववादी और मनोरोगी तक सिद्ध कर डाला । ऐसी कई और भयंकर भूलें हुईं हैं । हिंदी आलोचना में ही स्वदेश दीपक, उशा प्रियंवदा, विद्यासागर नौटियाल, शेखर जोशी जैसे अनेक समर्थ कथाकारों पर चर्चा नहीं हुई । बल्कि कईयों को तो दबाया जाता रहा है । जैसे समकालीन हिंदी कहानी के समर्थ कथाकार उदय प्रकाश के साथ हिंदी के टुच्चे आलोचकों ने जो रवैया अपनाया वह निंदनीय है । आज के समय के एक बेहतरीन कथाकार देवेन्द्र कहां हैं और क्या लिख रहे हैं, यह कौन पूछता है ? लेकिन ये लोग दरअसल पाठकों तक पहुंचने में सफल हुए हैं ।
ढर्रे लेखन के हिंदी के इस दौर में स्टार न्यूज़ पर चलाए जा रहे कार्यक्रम ‘सनसनी’ से ज़्यादा गिरी हुई और सनसनाती कहानियां पुरस्कृत की जा रही हैं । निश्चय ही, इन सबमें हिंदी साहित्य और जेनुइन लेखकों का ही अहित है । उदय प्रकाश ने अपने एक इंटरव्यू में कहा भी है कि प्रायोजित पुरस्कारों, जिनकी बाढ़ आई हुई है और ऐसे संस्थानबाज लेखकों-आलोचकों की गतिविधियों का कभी-कभी गहरा नकारात्मक प्रभाव किसी भी ईमानदार और संवेदनशील रचनाकार पर पड़ता है । अगर कोई इन संस्थानों और पुरस्कारों की राजनीति से दूर अपने एकांत में भी रहना चाहे तब भी इनके प्रायोजित निंदा अभियानों और दुरभिसंधियों आदि से बच नहीं सकता ।
ये बातें अविश्वसनीय जान पड़ती हैं लेकिन एक तरह की साहित्यिक परंपरा कवि-लेखकों की प्रताड़ना, उपेक्षा, षोशण और षड़्यंत्रों की भी है । और इसमें कुछ चालाक और धूर्त किस्म के तथाकथित कवि, कथाकार और आलोचक ही शामिल हैं । आखिर क्यों इलियड और ओडिशी का रचनाकार होमर अंधा हो जाता है और अंधा होकर मर जाता है ? तुलसीदास को काशी के पंडे मस्जिद की सीढ़ियों में सोने और भीख मांगने के लिए विवश करते हैं और आज के इस समय में ‘कासी के अस्सी’ को महिमामंडित करने का कुकृत्य किया जाता है । गोपाल सिंह नेपाली का शव चंपारण के किसी गलियारे में कफ़न का रास्ता देखते थक जाता है और इन दिनों ब्लाॅग की दुनिया में उतरने के लिए प्रकाश झा को बधाई अर्पित की जाती है । भले ही हिस्ट्रीशीटरों की जमात जुटाने वाली पार्टी से चुनाव लड़कर हारने की कोई चर्चा नहीं होती या उत्तर बिहारियों पर हुए हमले पर वे स्वयं चुप्पी साध लेते हैं । भुवनेश्वर जैसा कवि अपनी पैंट में बिलजी का तार बांध कर इलाहाबाद या बनारस की किसी धर्मशाला के सामने मरा हुआ पाया जाता है । षैलेश मटियानी जैसा कथाकार देश की राजधानी के एक मानसिक अस्पताल में विक्षिप्त होकर मर जाता है । और ऐसे ही कितनी भयावह मौतों को झेलने वाले साहित्यिक प्रतिभाओं पर झूठे शोधकार्य करने वाले छात्र और कराने वाले प्राध्यापक अपना भविष्य संवार लेते हैं । आलोचकों द्वारा प्रताड़ित करने की परंपरा हो या फिर गांव-गंवई के लेखकों का उपेक्षित रह जाना, यह सब एक पतित और भ्रष्ट हो चुकी पूँजीवादी राजनीतिक व्यवस्था से जुड़ी हुई ताकतवर सामाजिक प्रक्रिया ही है ।
शिवेन्दु राय

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