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Wednesday, February 17, 2010

Ii दलित साहित्य आन्दोलन का औचित्य ii

शिवेन्दु राय
यूं तो हिन्दी में दलित साहित्य की बुनियाद के तौर पर कबीर, दादू, रैदास, पीपा, सेन, रविदास आदि का नाम चिन्हित किया जा चुका है और दलित साहित्य के प्रणेता दलित साहित्य के संदर्भ में उन पर दलित दृष्टिकोण से अनुसंधान में लगे हुए हैं किन्तु आधुनिक दलित साहित्य की शुरुआत मराठी भाषा में रचित साहित्य से मानी जा रही है जिसकी प्रेरणा की पृष्ठभूमि में संतकवि नामदेव, चोखामिला, ज्ञानेश्वर, समर्थ रामदास, तुकाराम, एकनाथ आदि हैं।

आधुनिक दलित साहित्य आंदोलन ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले और डा. अम्बेडकर द्वारा चलाए गए सशक्त सामाजिक आंदोलन के परिणामस्वरूप उभरा है। ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले ने पहले पहल दलितों की खासतौर से दलित स्त्रियों की शिक्षा का आंदोलन चलाया। उन्होंने दलितों के उत्थान और सामाजिक सम्मान के लिए स्वयं पर अनेकानेक अत्याचार सहकर भी जागृति की एक लहर पैदा की। डा. अम्बेडकर ने उनके द्वारा तैयार जमीन पर व्यापक दलित चेतना के बीज बोये और परिणामस्वरूप, उनके जीवन काल में ही सशक्त सामाजिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक दलित आंदोलन अस्तित्व में आया। इस आंदोलन की जबरदस्त अभिव्यक्ति के रूप में भारतीय साहित्य के दृश्य पटल पर दलित साहित्य उपस्थित हुआ और सतह पर दिखाई पड़ने लगा। जल्द ही इसका प्रभाव हिंदी भाषा पर भी पड़ा। आज वर्तमान हिंदी साहित्य में दलित लेखन के उभार और उसके निरंतर विकास से इंकार नहीं किया जा सकता है। दलित साहित्य के इस जबरदस्त उभार ने भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों और आलोचकों में एक हलचल पैदा कर दी है जिससे उनका ध्यान इस ओर आकर्षित हुआ है। किन्तु इसके साथ ही यह भी सच है कि स्वयं दलित साहित्य आंदोलन और दलित रचनाकारों को वैचारिक स्तर पर अनेक अन्तरनिहित अन्तर्विरोधों का सामना भी करना पड़ रहा है।

जाति से दलित ही दलित साहित्यकार है

इस प्रस्थापना के अनुसार किसी साहित्यकार को दलित साहित्यकार होने के लिए यह अनिवार्य है कि वह दलित जाति में पैदा हुआ हो। किन्तु अभी भी यह मसला काफी बहस की गुंजाईश रखता है कि आखिर दलित कौन है? दलित साहित्य की मुख्यधारा के चिंतकों का मानना है कि दलित साहित्यकार वही है जो जाति से दलित है। वे दलित साहित्य को व्यापक अर्थों में न देखकर दलित जाति के संदर्भ में ही देखते हैं किन्तु वहां भी ‘दलित’ शब्द की व्याख्या को लेकर अस्पष्टता है। वे दलितों में उभर रहे अभिजातीय व शोषक वर्ग के उभार को दरकिनार ही करते आ रहे हैं किन्तु दलित साहित्य के चिंतकों की दूसरी धारा दलित शब्द के व्यापक अर्थ लगाती है। उनका मानना है कि किसी भी जाति या धर्म से संबंध रखने वाला व्यक्ति अगर सामाजिक और आर्थिक रूप से शोषित है तो उसे भी दलितों की एक श्रेणी के रूप में ही रेखांकित किया जाना चाहिए। आज दलितों में, खासतौर से कस्बों, नगरों और महानगरों में एक ऐसा वर्ग पैदा हो गया है जिसने गुणात्मक रूप से अच्छी सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों में जन्म लेने के कारण जातीय उत्पीड़न को बिल्कुल नहीं झेला है। इस प्रकार का दलित अन्य अमीर तबकों की तरह न सिर्फ दलितों का दुश्मन साबित हो रहा है अपितु स्वयं दलितों में ही शोषकों की एक श्रेणी को संभव बना रहा है। वह वास्तव में सत्ता का दलाल है। ऐसा दलित अगर सभी दलितों की पीड़ा को जानने, समझने और महसूस करने का दावा करता है तो इसे दलित विमर्शकार ही तय करें कि यह कितना उचित है।

अगर इस अभिजातीय और शोषक दलित को दलित साहित्य का प्रणेता माना जा सकता है तो किसी अन्य जाति में पैदा हुआ दलितवादी जनवादी लेखक को क्यों नहीं? क्या उसे दलितों का समर्थक केवल इसलिए नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि उसने दलित जाति में जन्म नहीं लिया है। यही आधार गौतम बुद्ध के संदर्भ में भी इस्तेमाल किया जाना चाहिए। गौतम बुद्ध ने राजघराने में जन्म लिया और दलित जाति से उनका दूर-दूर तक नाता नहीं था। लेकिन अपने त्याग और दलितवादी चिंतन के आधार पर वे दलितों के मसीहा बने। गौतम बुद्ध ने सभी पीड़ितों को अपने दामन में पनाह दी और उनके विहारों में अन्य जातियों के गरीबों को भी बराबरी का दर्ज़ा मिला। इसके अतिरिक्त इन्हीं विहारों में राजा, सामंत और व्यापारी लोग भी आते रहे। दलितों के जीवन की विसंगतियों पर व्यापक चिंतन और सृजन करने वाले महान साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद को भी इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए किंतु उनके प्रति दलित विचारकों का नज़रिया काफी तंग है।

जाति के आधार के संदर्भ में उन दलितों का सवाल भी उठाया जा सकता है जो धर्मान्तरण करके अन्य धर्मों में जा चुके हैं। उन धर्मों में हिंदू धर्म के विपरीत वहां उन्हें सैद्धांतिक तौर पर जाति के आधार पर छुआछात या भेदभाव नहीं झेलना पड़ा है। जातीय उत्पीड़न से मुक्ति के दलितों ने अनेक मार्ग खोजे हैं जिनमें दूसरे धर्मों में धर्मातरण भी एक प्रचलित तरीका रहा है। बुद्ध धर्म के साम्यवादी स्वरूप ने पहले पहल दलितों को अपनी ओर आकर्षित किया और हजारों दलित बौद्ध बने। इसी प्रकार जैन, इस्लाम, ईसाई, सिख व आर्य समाज आदि धर्मों में दलित धर्मातरण करके जाते रहे हैं। ऐसे लोग जिस साहित्य का सृजन करेंगे उसे किस आधार पर दलित साहित्य माना जाएगा। क्योंकि न तो वहां मनुवादी वर्ण व्यवस्था है न जाति के आधार पर दलित उत्पीड़न।

इसके अतिरिक्त यहां एक सवाल और जरूरी लगता है भले ही उसकी संभावनाएं कम हों। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि हर प्रकार का साहित्य कर्म अपने बुनियादी रूप में शोषण विरोधी और व्यापक अर्थों में सत्ता विरोधी होता है। वह समाज में व्याप्त बुराइयों की आलोचना करता है और सुखद~ मानवीय परिस्थितियों वाले समाज के निर्माण के लिए लोगों में जागृति और चेतना का प्रसार करता है। इसे विपरीत समाज में जन विरोधी या प्रगतिशील मूल्य विरोधी और सत्तापक्षी साहित्य भी खूब रचा जाता है। मान लीजिए कोई दलित साहित्यकार सत्ता के समर्थन और दलितों के विरोध में रचना करे तब क्या ऐसे साहित्य को भी दलित साहित्य केवल इसलिए माना जाना चाहिए कि उसकी रचना एक दलित साहित्यकार ने की है।

इस संदर्भ में कहना यही है कि किसी दलित साहित्यकार के लिए दलित होने की शर्त तो ठीक है किंतु ऐसे मानदंडों का होना भी जरूरी है जिनसे यह तय किया जा सके कि उसकी कौन-सी रचना दलित साहित्य मानी जाएगी और कौन-सी नहीं?
दलितों द्वारा दलितों पर रचा गया साहित्य ही दलित साहित्य

एक पत्रिका ने अपने आगामी अंक में ‘दलित साहित्य’ विशेषांक निकालने की घोषणा की थी पिछले साल। मैंने उसमें अपनी एक कहानी भेज दी और जल्दी ही वह वापस भी आ गई क्योंकि न तो उस कहानी के पात्र दलित हैं और न उसकी विषय वस्तु दलित जीवन की विसंगतियों पर प्रकाश डालती है। अधिकांश दलित विमर्शकारों द्वारा यह बात उठाई जा रही है कि केवल दलितों द्वारा दलितों की जीवन परिस्थितियों पर लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य है। यह एक संकीर्ण और अन्तर्विरोधी प्रस्थापना है। दलितों द्वारा लिखे जाने की बात तो ठीक है मगर उनका केवल दलित जीवन पर लिखने की शर्त दलित साहित्य को केवल दलित समाज और दलित उत्पीड़न के चित्रण के दायरे में कैद करने की भूल है। इससे दलित साहित्य न सिर्फ वैचारिक न सृजनात्मक स्तर पर सीमित होगा बल्कि उसका विकास भी कुंद होगा।

इस संदर्भ में संत कबीर, नामदेव, पीपा, रैदास, ज्ञानदेव, तुकाराम और एकानाथ आदि का साहित्य देखा जा सकता है। उनके जमाने में सामंतवादी व्यवस्था काफी मजबूत थी और वर्ण व्यवस्था भी। ये लोग केवल इसलिए महान कवि नहीं माने जाएंगे कि उन्होंने दलित जीवन का अपने काव्य में व्यापक चित्रण किया बल्कि वे इसलिए बड़े और महान कवि हैं कि उन्होंने पूरे समाज में व्याप्त बुराइयों और शोषणकारी व्यवस्था के विरोध में जीवन भर सशक्त सृजनकर्म किया। दलित वर्ग में जन्म लेने के बावजूद कबीर साहित्य में इक्का-दुक्का प्रसंगों के अलावा न तो दलित पात्र आते हैं और न दलित जीवन की विडम्बनाओं का ज़िक्र आता है बल्कि पूरे समाज में व्याप्त धार्मिक कटटरता, अंधविश्वास व रुढ़ियां ही उन्हें ज्यादा परेशान करती हैं। अपने संपूर्ण काव्य में वे उन्हीं पर क्रांतिकारी ढंग से प्रहार करते नजर आते हैं। फिर उपरोक्त प्रस्थापना के आधार पर उन्हें दलित साहित्य की बुनियाद कैसे माना जा सकता है?

इसके विपरीत दलित वर्ग में जन्म न लेने के बावजूद प्रेमचंद ने अपने निजी अनुभव और मानवीय संवेदना के आधार पर अपने साहित्य में न सिर्फ दलित पीड़ा का गहन चित्रण किया है बल्कि उन पर सदियों से जुल्मों-सितम की बरसात करने वाली ब्राह्मणवादी-सामंतवादी शक्तियों का न सिर्फ भंडाफोड़ किया है बल्कि उन्हें जनविरोधी साबित करते हुए उन पर निर्ममता से प्रहार भी किए हैं। याद कीजिए उनके दलितवादी होने के कारण ही हिंदी साहित्य सम्मेलन ने उन पर तमाम आरोप लगाए थे। केवल ‘कफन’ कहानी (उसको भी संकीर्ण दृष्टिकोण से परखकर) को लेकर हो हल्ला मचाने वाले दलित आलोचकों को दलित पात्रों को लेकर रची गई उनकी अन्य रचनाएं भी पढ़नी चाहिए और उन पर यथार्थवादी ढंग से विचार करना चाहिए। यह कोई सार्वभौमिक सत्य नहीं है कि दलित की पीड़ा को दलित ही जानता है और वही इसकी सही अभिव्यक्ति कर सकता है। भले ही वह दलित साहित्य हो। किसी भी उत्कृष्ट रचना के लिए केवल अनुभव ही काफी नहीं होता उसके लिए अपने समय और समाज की परिपक्व समझ, व्यापक दृष्टि, गहन मानवीय संवेदना और विलक्षण रचना शक्ति की भी आवश्यकता होती है।

फिर सवाल ये उठता है कि दलित साहित्यकार अपने रचनाकर्म को केवल जातीय शोषण तक ही क्यों सीमित करे। आज समाज में जाति के अलावा भी ऐसी सैंकड़ों समस्याएं हैं जिनसे दलितों को भी दो-चार होना पड़ रहा है। क्यों गरीबी, भुखमरी, बेकारी, भ्रष्टाचार और मंहगाई किसी दलित रचनाकार के रचनाकर्म का विषय नहीं हो सकते। क्या इन समस्याओं के चलते दलित समाज के अन्य उत्पीड़ितों से नहीं जुड़ते? क्यों एक दलित साहित्यकार अन्य उपेक्षितों की पीड़ा का चित्रण अपनी रचनाओं में नहीं कर सकता? क्यों एक दलित साहित्यकार बिना जातिगत संदर्भ दिए जो लिखे वह दलित साहित्य नहीं माना जाना चाहिए? दलित साहित्यकार क्यों समूचे आकाश पर नहीं लिख सकता है? उसके लेखन और दृष्टि को केवल जाति की सीमाओं में कैद करने वाले क्या वास्तव में दलित साहित्य के आंदोलन को आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं।

दलितों द्वारा दलितों के जीवन पर दलितों के लिए रचा गया साहित्य

दलितों में साहित्य का व्यापक प्रचार-प्रसार होने से उनमें सांस्कृतिक रूझान पैदा होगा और चेतना बुद्धि का विकास होगा। किन्तु यह कहना जितना आसान है, इसे कार्यरूप देना उतना ही कठिन है। इस समस्या का सामना जनवादी सांस्कृतिक कर्मियों को भी करना पड़ रहा है। दलित भी इससे अछूते नहीं है। उन्हें सांस्कृतिक क्षेत्र में आई जड़ता को तोड़ने के लिए व्यापक पैमाने पर कदम उठाने पड़ेंगे। पहले तो इसके लिए उन्हें दलितों में शिक्षा के व्यापक प्रसार की दिशा में काम करना पड़ेगा। अपने लेखन के दलितों में शिक्षा के व्यापक प्रसार की दिशा में काम करना पड़ेगा। अपने लेखन के दलितों में प्रसार के लिए विभिन्न सृजनात्मक तरीके इस्तेमाल करते हुए लोगों के बीच जाना पड़ेगा। दलित विचार और साहित्य संबंधी पत्र-पत्रिकाएं व्यापक पैमाने पर निकालनी होंगी। मुख्यधारा से अलग दलित साहित्य प्रकाशन की अपनी व्यवस्थाएं कायम करनी होंगी।

बहरहाल, उपरोक्त प्रस्थापना में दलित साहित्य के प्रचार-प्रसार व पठन-पाठन को दलितों तक सीमित करने का अर्थ निकलता है। यह न तो दलित साहित्य के हित में है और न दलितों के। दलित वृहत्तर समाज का अंग है। सदियों से जातिगत अपमान व भेद-भाव की जो पीड़ा दलितों ने झेली है उससे समाज के अन्य वगो± को भी परिचित होना चाहिए। दलित वर्ग तो उससे एक हद तक वाकिफ है ही। ‘केवल दलितों के लिए’ की चेपी लगाकर भी किसी दलित रचना को अन्य वगो± द्वारा पढ़े जाने से नहीं रोका जा सकता है बल्कि दलित साहित्य के व्यापक आधार के निर्माण के लिए यह जरूरी भी है कि वह समाज के अन्य वगो± तक भी पहुंचे। इससे दलित आंदोलन को दूसरे वगो± में अपने सहानुभूतिक और समर्थक मिलेंगे। दूसरे तबकों में दलित साहित्य के प्रचार-प्रसार से उसकी विवेकशीलता व गzहणशीलता बढ़ेगी व समाज के अन्य उत्पीड़ित वगो± से एकता का रास्ता खुलेगा।

दोस्त और दुश्मन की पहचान

अब इस सवाल को और नहीं टाला जा सकता है। इस सवाल पर उथले-पुथले ढंग से बहसबाजी करने के बजाए ज्यादा गहराई और व्यापकता के साथ चिंतन मनन करने की जरूरत है। अभी तक हिंदी के दलित साहित्यकार दलितों के शत्रु के रूप में ब्राह्मणवादी-सामंतवादी शक्तियों के रूप में चिन्हित कर रहे हैं। दलित विमर्श और चिंतन का यह काफी कमजोर पहलू है। इस तरफ दलित विमर्शकारों की तरफ से न तो कोई खास चिंतन हुआ है और न उनकी तरफ से सशक्त अनुसंधान ही सामने आए हैं। अधिकतर भारतीय इतिहासकारों और अर्थवेत्ताओं की इस सवाल पर अब सहमति दिखाई देती है कि भारत में न तो ब्राह्मणवादी शक्तियां मजबूत रह गई हैं और न सामंतवादी शक्तियां। इसके विपरीत भारतीय शासक वर्ग और शासन व्यवस्था पूंजीवादी शक्तियों द्वारा संचालित है। जो पिछले पचास सालों में देश को पूंजीवादी विकास के रास्ते पर काफी आगे ले आई हैं और समाज में इसका व्यापक प्रभाव दिखाई पड़ रहा है।

इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि जाति भारतीय समाज की एक कटु सच्चाई रही है और वह अब भी भले सामंतवादी विकृत मानसिकता के रूप में समाज में उपस्थित है। इसमें भी संदेह नहीं है कि वर्णव्यवस्था के कारण ही सामाजिक-आर्थिक दासता दलितों को विरासत के रूप में मिली है। जिसे वे सदियों से झेलते आ रहे हैं और आज भी किसी न किसी रूप में झेल रहे हैं। दलितों को सामाजिक सम्मान और बराबरी की बजाय जितनी घृणा और जिल्लत मिली है उससे कोई इंकार नहीं कर सकता है। किंतु आज भारतीय समाज विकास के जिस मुकाम पर खड़ा है वहां सामंतवादी शक्तियों और दलित शोषण के उनके हथियार काफी कमजोर पड़ रहे हैं। दलित विमर्शकारों को अपने दोस्तों और दुश्मनों की पहचान इसी संदर्भ में करनी चाहिए।

आजाद भारत की बागडोर बहुमत से पूंजीवादी ताकतों के हाथ में आई। सामंतवादी शक्तियां पूंजीवादी विकास के रास्ते में रुकावट थीं क्योंकि बिना उनको कमजोर किए देश को पूंजीवादी विकास के रास्ते पर नहीं ले जाया जा सकता था। अत: पूंजीवादी शासक वर्ग ने भूमि सुधार आदि कार्यक्रमों के जरिए उन पर आक्रमण किए किन्तु उनका जड़मूल से विनाश ना करके उसे अपना सहयोगी बना लिया। अत: यदाकदा सामंतवादी शक्तियों द्वारा दलितों पर अमानवीय हमलों की जो घटनाएं सामने आती हैं वह इन्हीं सामंतवादी अवशेषों द्वारा की जाती हैं जिन्हें वो समाज में अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए सरंजाम देते हैं।

पूंजीवादी विकास की दिशा में देश को ले जाने वाले शासकों ने विभिन्न कानूनों और संस्थाओं के जरिए दलितों और पिछड़ों के अधिकारों को कायम करने और उन्हें सुरक्षित रखने के प्रयास किए हैं। भारत के जनवादी आंदोलन व मजबूत दलित आंदोलन के दबावों के चलते वे ऐसा करने के लिए मजबूर हुए हैं। दलित आंदोलन के बढ़ते प्रभाव के परिणामस्वरूप संविधान में दलितों के लिए शिक्षा, रोजगार आदि मुहैया कराने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई जिससे दलितों को सामाजिक और आर्थिक स्थिति में काफी सुधार आया है हालांकि यह अभी भी कई मायनों में नाकाफी है। चाहे जो हो, आजाद भारत में दलितों की स्थिति काफी सुधरी है।
इसमें संदेह नहीं कि वर्णव्यवस्था पर चोट करके सामाजिक सम्मान हासिल करने की ओर बढ़ा जा सकता है परन्तु इसे ही आर्थिक विषमता का निदान समझना भयानक मूर्खता है। डाW. अम्बेडकर का भी मत था कि दलितों के सामाजिक सम्मान के लिए वर्णव्यवस्था का खात्मा लाज़मी है किन्तु इसमें लड़ाई अधूरी ही रहेगी अगर दलितों में उपस्थित आर्थिक निम्नता और अभाव को समाप्त नहीं किया जाता है। इसको खत्म किए बिना न तो दलितों को सामाजिक सम्मान मिल सकता है और न सच्चे लोकतंत्र की स्थापना की जा सकती है।

आज का अधिकांश दलित जातिगत विपन्नता और आर्थिक विषमता का शिकार है। दलितों में आर्थिक अभाव इतना ज्यादा है कि कुछ सेर गेहूं या कुछ रुपयों के लालच में वे अपना स्वाभिमान तक बेच डालते हैं और जनतंत्र की स्थापना में अपनी निर्णायक भूमिका को धनिकों को सौंप देते हैं। देश में पूंजीवादी शासकवर्ग ने नित नई जनविरोधी नीतियां बनाकर दलितों, पिछड़ों और पिछड़ों की हालत बद से बदतर कर दी है। आज समाज में गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी बड़े पैमाने पर फैल रही है। सरकारें, चाहे किसी भी पार्टी की हों, वे जन स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाओं से लगातार कटौती कर रही हैं! महंगाई ने गरीबों की कमर तोड़ डाली है। चारों तरफ निजीकरण का बोलबाला है। सरकारी नौकरियां इतनी कम की जा रही हैं कि उनमें आरक्षण का कोई मतलब ही नहीं रह गया है। गरीबों को विकास के नाम पर हर जगह ठोकर मारी जा रही है। शहरों की ओर ढकेलता है जहां वे अमानवीय परिस्थितियों में जीवन गुजारने को विवश होते हैं। शहरों में नित नई तकनीकें मजदूरों को कारखानों में मिलने वाले रोजगार से बाहर कर देती हैं।

इन हालातों का सबसे ज्यादा शिकार दलित वर्ग ही है। दलितों के सामने आज जाति के अलावा गरीबी, अशिक्षा, भूमिहीनता, महंगाई और बेरोजगारी जैसी समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं जिनका भौतिक आधार इस व्यवस्था में निहित है। सो, केवल ब्राह्मणवादी शक्तियों को अपना शत्रु बताना दलितों के लिए काफी नहीं है। पूंजीवादी-नव साम्राज्यवादी व्यवस्था ताकतवर दुश्मन के रूप में उनके सामने मुंह बाये खड़ी है जिसका आकलन दलित आंदोलन के लिए एकदम अनिवार्य है। पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजी और श्रम के स्थायी अन्तविरोध के कारण उनका दोस्ताना संबंध सर्वहारा संघर्ष से बनना दलित आंदोलन को व्यापक बनाएगा। सम्पूर्ण समाज की मुक्ति के आंदोलन में ही दलित आंदोलन की सार्थकता होगी उससे अलग होकर नहीं।


विचारधारा का सवाल

विचारधारा के सवाल पर अधिकतर दलित चिंतक ये बयान देते हैं कि उनका जुड़ाव केवल अम्बेडकरवादी विचारधारा से ही हो सकता है किसी अन्य विचारधारा से नहीं। ऐसा करते वक्त वे अम्बेडकरवादी विचारधारा की सीमाओं की चर्चा नहीं करते हैं। डा. अम्बेडकर ने अपने अथक प्रयासों से दलितों में सामाजिक सम्मान का आंदोलन खड़ा किया किन्तु 1951 तक आते-आते उन्हें इस बात का अहसास हो चला था कि केवल जाति अवस्था के खात्मे से दलितों का खात्मा नहीं होगा बल्कि आर्थिक विषमता के दुर्ग को भी तोड़ना होगा। इसलिए उन्होंने आर्थिक समाजवाद का सपना देखना शुरू किया। इस दिशा में वे चिंतन मनन कर ही रहे थे कि उनकी मृत्यु हो गई। रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया की स्थापना को इसी अर्थ में देखा जाना चाहिए। किंतु बाद में आर. पी. आई उनके आर्थिक समाजवाद को साकार करने के रास्ते पर नहीं बढ़ी। बसपा आदि दलितवादी पार्टियों के अजंडे पर भी आर्थिक समाजवाद लाने का सपना नहीं है। बसपा भी आज सत्ता के जिस खेल में शामिल हो चुकी है वहां उसके लिए अम्बेडकरवादी विचारधारा केवल दिखावा है।
आजाद भारत में अम्बेडकर न सिर्फ कांग्रेसी नीतियों की आलोचना करते रहे बल्कि तत्कालीन कम्युनिस्ट पार्टी और उसके व्यवहार को दलित आंदोलन की मजबूती का आधार नहीं माना। इससे यह सिद्ध नहीं होता कि वे वामपंथी विचारों के विरोधी थे बल्कि उनकी चर्चित पुस्तक ‘स्टेट एंड माइनोरिटि’ पर वामपंथी विचारों की छाप मिलती है।

1952 के आम चुनावों में अच्छी जीत हासिल करके कम्युनिस्ट पार्टी संसदीय रास्ते से समाज बदलाव की हामी बनती गई। डा. अम्बेडकर ने उसके इस रुख को अच्छी तरह से चिन्हित किया था। उनको लगता था कि वामपंथी दलित समस्या को समाज की कोई समस्या न मानकर उससे न सिर्फ आंख मींचे है बल्कि वामपंथी दृष्टिकोण से दलित समस्या का समाधान खोजने में असमर्थ साबित हो रहे हैं।

आज ऐसे दलित चिंतकों की कमी नहीं है जो अम्बेडकर को लगातार वामपंथी विचारधारा के विरोध में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं। इसमें कुछ योगदान उन तथाकथित वामपंथियों का भी है जो न मार्क्सवाद को भारतीय संदर्भ में ढाल पाते हैं और न उसे व्यवहार में उतार पाते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि अब तक वामपंथ उन ऊंची जात वालों का खिलौना बनता रहा है जो न मार्क्सवाद को ठीक से जीवन में उतार पाए और न अपनी जातीय स्थिति का त्याग कर पाए। यह उन्हीं की दोहरी भूमिका का नतीजा है कि वामपंथ आज छ्दम वामपंथ बन गया है। लेकिन खाली छदम वामपंथ का विरोध करने भर से काम नहीं चलने वाला है। दलितों को चाहिए कि वे न सिर्फ वामपंथी विचारधारा बल्कि अन्य वैज्ञानिक विचारधाराओं का भी गहन अध्ययन करें और उसे अंबेडकरवादी विचारधारा के विकास का माध्यम बनाएं। इससे उन्हें न सिर्फ छद~म वामपंथ से मुक्ति मिलेगी बल्कि वैचारिक स्तर पर दलित आंदोलन की व्यापकता बढ़ेगी।
दलितों का उत्पीड़न समाज के अन्य शोषितों के उत्पीड़न से भिन्न अवश्य हो सकता है किंतु उससे अलग नहीं हो सकता है। जाति के अलावा उनके सामने अनेक समस्याएं हैं जिन पर संघर्ष लाजमी बनता है। इस आधार पर दलितों का संघर्ष अन्य शोषितों के संघर्ष से जुड़ता है। अस्तु, दलित साहित्य आंदोलन का संबंध जनवादी साहित्य आंदोलन से बनता है।

दलितों की पीड़ा को एक वास्तविक दलित ही समझ सकता है किंतु मानवीय संवेदना और जनवादी समझ के आधार पर अन्य वर्गों के साहित्यकार भी इसे समझ और व्यक्त कर सकते हैं। अत: दलितों द्वारा रचित साहित्य को तो दलित साहित्य माना ही जाना चाहिए किंतु जनवादी लेखकों द्वारा दलित जीवन पर रचित साहित्य को भी दलित साहित्य का एक हिस्सा माना जाना चाहिए।

दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्रा अभी निर्माण की प्रक्रिया में है लेकिन उसको परखने के आधार भी वही होने चाहिए जो दुनिया के किसी भी उत्पीड़ितों के साहित्य को समझने के होंगे। इसे केवल जातीय उत्पीड़न और दलितों तक ही सीमित नहीं करना चाहिए बल्कि समाज में व्याप्त अन्य जनसमस्याओं पर भी दलितों को सोचना और रचना चाहिए। दलित साहित्य इस प्रकार वृहत~ समाज के उत्पीड़ितों के बीच भी उपयोगी हो सकता है इसलिए उनके बीच भी इसका प्रसार होना चाहिए।

अंत में, सिर्फ इतना ही कहना है कि भारतीय संदर्भों में दलित साहित्य न केवल छदमवामपंथ, जातीय उत्पीड़न, आर्थिक उत्पीड़न से मुक्ति का वैचारिक स्रोत है बल्कि जनवादी व प्रगतिशील साहित्य के फलक की व्यापकता का आधार भी है। दलित साहित्य मुक्तिकामी साहित्य है और ये समस्त वर्गों के उत्पीड़ितों के साहित्य का हिस्सा होकर ही अपनी क्रांतिकारी भूमिका को सरंजाम दे सकता है।

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