hum hia jee

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Monday, February 1, 2010

जनसरोकारों से जुड़ी पत्रकारिता के खतरे से जूझता उत्तराखंड

उत्तराखंड में फिलवक्त पत्रकारिता के दो स्वरुप दिखाई दे रहे हैं। पहला जिसमें बड़े पूंजीपति समूह एक बड़े मार्केट प्लेयर के रुप में वहां अपनी जड़ें जमाने पर आमादा हैं। इस बीच इसी क्रम में हिन्दुस्तान और राष्ट्रीय सहारा जैसे बड़े ामूहों ने वहां अपना प्रसार किया है। इससे पहले उत्तर भारत के प्रमुख समाचार पत्रों दैनिक जागरण और अमर उजाला का बाजाार पर कब्जा था और सम्भवतह राष्टीय सहारा और हिन्दुस्तान उनके इस अधिपत्य पर नजर गड़ाये हुए हैं। ये समाचार पत्र दूरस्थ कस्बाई इलाकों में पहुंचने की भर्सक कोषिष में जुटे हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या ये समाचार पत्रा वहां की पत्रकारिता को सूुदृढ़ करने में मददगार हो रहे हैं? क्या आम जनता से जुड़ने के सरोकार दन समूहों को यहां खींच लाये हैं? या ये महज बाजार का दबाव और प्रतिस्पर्धा का परिणाम है। मौजुदा हालात देखते हुए दूसरा कारण ज्यादा प्रभावी दिखाई देता है। इन समाचार पत्रों ने यहां एक नई पत्रकारिता संस्कुति विकसित की है जिसका नारा है विज्ञापन जुटाओ और पत्राकर बन जाओ। आपकी पत्रकारिता की समझ के कोई मायने नहीं हैं, आप एक पत्रकार बन सकते हैं यदि आप दिया गया टार्गेट पूरा कर पाने में सक्षम हैं। इस नयी परम्परा ने पत्रकारिता को दलाी का एक बड़ा जरिया बनाकर रख दिया है। यहां पत्रकारिता के माध्यम से पनप रहे नेक्सेस को सपष्ठतौर पर देखा जा सकता है, यह नेक्सेस छोटे इलाकों में ज्यादा हावी हो रहा है। माने यह कि हाकर, विज्ञापन प्रबन्धक और पत्रकार तीनों एक ही हैं। इनकी समझ, सोच और कार्यपद्धति में कोई अन्तर नहीं है। हालाकि यह एक कस्बाई पत्रकार की मजबूरी भी है कि वह विज्ञापन जुटाए और कमीशन बचाकर अपनी रोजी रोटी का जुगाड़ करे। यहां एक पत्रकार को एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी से कम वेतन दिया जा रहा है। राष्टीय सहारा में काम कर रहे एक पत्रकार मित्र ने जब बताया कि उसे महज बारह सौ रुपये वेतन के रुप में मिल रहा है तो सिथति साफ हो गई। ऐसे में एक पत्रकार विज्ञापन के कमीषन पर निर्भर ना रहे तो और क्या करे?
लेकिन राहत की बात है कि पत्रकारिता का दूसरा स्वरुप अब भी उत्तराखं डमें सांसे ले रहा है। हांलाकि ऐसे अधिकांष पत्रों की हालत खस्ता हो चुकी है। पर तेवर अब भी नहीं बदले हैं। 8 साल पुराने एक पाक्षिक समाचार पत्र नैनीताल समाचार ने सिर्फ उनकी नजरों के लिए जिन्हें नैनीताल समाचार की परवाह है शीर्षक से अपनी बदहाली का रोना अपने पाठकों के सामन रोया। इस लम्बे पत्र में पाठकों से अपील की गई थी कि यदि शीघ्र ही पाठकों ने 2000 रुपये तक की आर्थिक मदद न की तो पत्र का निकलना मुष्किल हो जायेगा। नैनीताल समाचार राजीव लोचन साह के सम्पपादकत्व में लम्बे समय से उत्तराखंड की पत्रकारिता में अपनी धाक जमाये हुए है। बिना विज्ञापन के निकलने वाले इस पत्र में असल उत्तराखंड की झलक देखी जा सकती है। दूसरी ओर युगवाणी उत्तरान्चल पत्रिका जैसी कुछ पत्रिकाएं भी पहाड़ के जनसरोकार से जुड़ी पत्रकारिता को अब तक जिन्दा रखे हुए हैं। ये चंद ऐसे प्रयास हैं जिनका जिन्दा रहना उत्तराखंड की असल पत्रकारिता को जिलाये रखने के लिए जरुरी है। ये पत्र पत्रिकाएं तंग आर्थिक संसाधनों के चलते कितने समय तक अपना अस्तित्व बनाये रख पाएंगी कहना मुश्किल है।
इस दौर में पूरा उत्तराखंड आन्दोलनों और हड़तालों के साये में जी रहा है। अइस्पतालों से चिकित्सक, विद्यालयों से शिक्षक और नलकों से पानी नदारद होने ज्ैासी वजहें पहाड़ी वादियों के लोगों को सड़कों पर उतर लामबंद होने का मजबूर कर रही हैं। सरकारी योजनाओं का पैसा भ्रष्ट अफसरशाही तंत्र के चलते अधिकारियों और ठेकेदारों की जेबों में जा रहा है। ऐसे में इस पूरे तंत्र के खिलाफ आवाज उठाने वाली पत्रकारिता संस्कुति वहां एक बड़ी जरुरत बनकर उभर रही है। लेकिन बड़े पतकारिता समूह इस जरुरत को पूरा करने का माददा नहीं कदिखा रहे। इसका छोटा सा उदाहरण इस बार देखने को मिला। पिथौरागढ़ जिले के गंगोलीहाट कस्बे शराब विरोधी आन्दोलन के बाद दबाव में बन्द की गई षराब की दुकान को क्षेत्रीय उपजिलाधिकारी के नेतुत्व में कुछ लोग फिर से खोलने पर आमादा हैं। स्थानीय पत्रकारों ने बताया िकइस आशय के लिए बुलाई गई एक मीटिंग में पत्रकारों को आने से रोक दिया गया। और उनसे बदसलूकी की गई। इसका विरोध करती हुई एक खबर अमर उजाला के एक पत्रकार ने भेजी लेकिन यह खबर तो नहीं ही छपी उल्टे उस पत्रकार को डेस्क में बैठै लोगों की खरी खोटी सुननी पड़ी। स्पष्ठ है उनपर कोई दबाव था। ऐसे में बड़े संस्थानों से उम्मीद करना बेमानी ही है। देखना यह है कि पूंजी जुटाने के इतर जनसरोकारों से जुड़ी पत्रकारिता कर रही पत्र पत्रिकाएं कब तक संघर्श कर पाएंगी। यह पत्रकारिता के लिए बड़ी हार होगी कि आर्थिक संसाधनों की कमी के चलते इन पत्र पत्रिकाओं को दम तोड़ना पड़े। सरकारी मदद की उम्मीद तो नहीं की जा सकती क्योंकि जो पत्र पत्रिकाएं सरकार की अनियमितताओं के खिलाफ लिख रहे हैं सरकार क्योंकर उन्हें मदद करेगी। उत्तराखंड में रामनगर से पिछले 11 सालों से निकल रहे एक पाक्षिक पत्र नागरिक के पाठकों को खूफिया पुलिस के दुव्र्यवहार का सामना करना पड़ा। पुलिस ने घर घर जाकर इस पत्र के पाठकों के साथ दुव्र्यवहार किया और पत्र जब्त किये। ऐसे हालात में जनता को ही ये समझना होगा कि उनकी मदद ही इस तरह की पत्रकारिता को जीवित रख सकती है।

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