hum hia jee

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Thursday, February 11, 2010

।। दलित साहित्य के बहाने कुछ टीप ।।

इस समय जब मैं ‘दलित-साहित्य’ पर कुछ बोलने जा रहा हूँ तो सबसे बड़ी चिन्ता जो मुझे सताये जा रही है जानते हैं वह क्या है ? वह यह कि कहीं आप में से कोई यह न कह बैठे कि एक ब्राह्मण की दलित साहित्य पर टीका-टिप्पणी । जबकि सवर्ण के घर जन्म लेने या नहीं लेने पर मेरा कोई वश नहीं था । न ही दलित के घर जन्म लेने पर किसी अन्य का अधिकार । जबकि दलित साहित्य की पहली और खास शर्त है कि दलितों के द्वारा लिखा गया साहित्य । ऊपर से एक दूसरे की ओर भाले की नोक किये हुए साहित्यकार और उनका साहित्य । है न मेरी चिन्ता सही । क्योंकि यह समय बहुत ही विचित्रत्राओं और विरोधाभासों का समय जो है ।

चलिए, पहले अपने समय को देखते हैं । एक ओर इंसान वैश्विक ग्राम की कल्पना को साकार करने के उद्यम में है । वह सड़ी-गली, पुरानी रूढ़ियों को तिलांजलि देते हुए और आधुनिक प्रौद्योगिकी को अपनाते हुए ज्यादा से ज्यादा तर्कशील, नित्याधुनिक और विज्ञानसम्मत बनता जा रहा है वहीं ठीक दूसरी ओर समाज में जाति, गोत्र, वर्ग के आधार ही कुटिल दृष्टि विकसित की जा रही है । विडम्बना तो यह भी कि राजनीति, प्रशासन, सामाजिक इकाइयों के साथ-साथ साहित्य भी अब जाति और लिंग के आधार पर रचा जा रहा है । जिसके लिए कहा जाता है कि वह स्वयं में प्रकाश है । अपने समय का आइना है । परिवर्तन का जरिया है । मन का संवाद तो है ही । आज कुनबे की सदस्यता की शर्त पर रातों-रात महान कवि या कहानीकार घोषित किया जा रहे हैं । शिष्यत्व की शिनाख्तगी के बाद ही रचनाकार पर संपादक की ओर से स्नेह वर्षा हो रही है । निजी की कुठाओं से नित नयी साहित्यिक संस्थाओं का महल रचा जा रहा है । दण्डवत मुद्रा या जुगाड़ू दक्षताओं के परीक्षण के बाद ही चिन्ह-चिन्ह कर अलंकरण और पुरस्कारों के लिफाफे घर पहुँचाये जा रहे हैं । अधकचरे पाठ्यक्रमों में समादृत होकर अमर हो जाने की लालसा में सत्ताधीशों की जूतों की रखवाली की जा रही है । इशारों पर इतिहास की इतिक्षी की जा रही है । शासकीय अनुदानों, परियोजनाओं, आयोजनों की ठेकेदारी के लिए रचनाकारों में मारकाट की नौबत तक आने लगी है । साहित्य में नये तरह का चारण युग विकसित हो रहा है । भाटगिरी हर प्रकार की सत्ता की विरूदावली है चाहे वह व्यक्ति विशिष के लिए हो या फिर जाति या लिंग विशेष के लिए ।

इन प्रवृत्तियों की फसल किसी एक अंचल या भूभाग में नहीं, सर्वत्र लहलहाती नज़र आ रही है । इधर बाजार, मुद्राकेंद्रित पश्चिमोन्मुखी विचारों से साहित्य को भी रोजगार या व्यापार मानने की सीख दी जा रही है । मुश्किल से कलम पकड़ने जानने वाले भी बड़े से बड़े रचनाकार को नकारने पर आमादा है । बड़े भी ऐसे कि संभावनाशील नयी पीढ़ी को पहचान कर उसे तराशने अपने दड़बे से बाहर निकलने को तैयार नहीं । अधिकांशतः रचनाकार अपने बंद कमरों में टेबिल के इर्द-गिर्द ही एक खास किस्म की गंध को महसूसते हुए आत्ममुग्ध होकर कागज पर फैंटेसी गढ़ते जा रहे हैं । समाज की गति यानी पाठकों को लेकर रचनाकार की चिन्ता तो जैसे बीते युग की बात हो चुकी है । लेखन के लिए लेखन हो रहा है उसके अनुकरण से लेखक को कोई लेना-देना नहीं । लेखन व्यक्तिगत गालीगलौज या निजी कुंठाओं का खेल होते जा रहा है । उस पर भी तुर्रा कि साहित्यकार ऐसे साहित्य से उस समाज को बदलने का भ्रम पाले हुए हैं जो पहले से ही अक्षरों से नज़रें चुरा रहा है। कुल मिलाकर आज का साहित्य वाग्जालियों की क्रीडा बन चुका है । यानी कि साहित्य अपने सभी अनुशासनों से च्युत हो चुका है । यानी कि (फिर से) साहित्य की दुनिया में भी अंधेरे की वापसी ।

क्या मेरी चिन्ता गैरवाजिब है ? क्या मेरी चिन्ता के मूल में उन सिद्धांतो के विरूद्ध कह जाने का भय निहित नहीं है जिसमें यह डिंडोरा पीटा जा रहा है कि मात्र वही दलित साहित्य होगा जो दलितों द्वारा लिखा गया होगा ? यदि यह सिद्धांत एक सत्य भी है तो कदाचित् मैं उस सत्य के ख़िलाफ़ ही बोलने जा रहा हूँ । जबकि किसी के घर में बैठकर उसी की चुगली जरा मुश्किल होता है । इसके खतरे बडे होते है । खतरे के बावजूद वहाँ सत्य होता है । खतरे वहाँ नहीं होते जहाँ हम मुँहदेखी जुगाली करते हैं । पर वहाँ सत्य नहीं हुआ करता । हम जो भी कहते हैं वह दोनों में से एक ही तो होता है । मैं और आप जिस दुनिया में रहते हैं उसके पास-पड़ोस में तो फिलहाल यही होता है । कम से कम साहित्य की चौपालों में तो यही होते देखा जा रहा है ।

मैं जब भी चिकनी-चुपड़ी बातें करने का प्रयास करता हूँ तो मुझे एक भय सताने लगता है और वह मेरे लिए सबसे बड़ा भय भी होता है । आप भी जान सकते हैं कि वह मेरी आत्मा के धिक्कार से उत्पन्न भय हुआ करता है। और जिससे मेरे जैसा हिंदी का छोटा-मोटा साहित्य रसिक ही नहीं इंसान मात्र भी बचना चाहता है । जो अपने आप को नहीं बचाना चाहता वह कदाचित् 100 प्रतिशत इंसान भी नहीं हुआ करता । तो यह जो धिक्कार का भय है वह आत्मा का सत्य है । यही सत्य मनुष्य का शिवत्व भी । और यही मनुष्य होने का सौंदर्य भी है । एक सत्वशील और सत्यवान मनुष्य इसी सौंदर्य की तलाश में जीवन पर्यंत भटकता फिरता है । प्रकारांतर से ही सही । विश्व के सभी समुदायों से उभर कर आये दर्शनों में इसी सौंदर्य को देखने-समझने की पराकाष्ठा है । सारे समुदायों का साहित्य भी घुम-फिरकर इसी सत्य, शिव और सौंदर्य पर निष्ठा प्रकट करता है । कम से कम आज तक का, अब तक का ।

मैं इस पुस्तक पर कुछ भी कहने से पहले मेरी अपनी तथाकथित समझ को आपके साथ शेयर करना चाहूँगा । और वह यह कि साहित्य किसी व्यक्ति के प्रति श्रद्धा का नाम नहीं बल्कि वह उस प्रवृति का संकीर्तन है या फिर आलोचन है । संकीर्तन इसलिए क्योंकि वह मानवीय उदात्तता की मिसाल है । आलोचन इसलिए कि वह मानवीय मूल्यों का मिथ्यात्मक पहलू है ।

चलिए लोक की सुधि लेते हैं । वहाँ हमें किसी दलित, पतित, दमित जाति या समूह या संपदाय की प्रतिष्ठा या पुनर्वास के लिए सद्-प्रयास तो नज़र आता है किन्तु उसमें या उसके बहाने वैमनस्यता की रणभेरी बजाते लोग नज़र नहीं आते । सबसे बड़ी बात यह कि लोक की दुनिया में किसी की गर्दन भी काट दी जाती है और सामने वाले को इसका भान तक नहीं होता । यह लोक की विनम्रता और अनातिक्रमण का प्रमाण है । यह सही है कि लोक साहित्य के पृष्ठों में वर्षों से सताये गये लोगों की वेदना है । संताप है । आक्रोश भी है । पर वहाँ घृणा नहीं है । वहाँ वैमनस्य नहीं है । वहाँ-वहाँ सामाजिक ताने-बाने के भीतर ही प्रगतिशील चेष्ठा है । मैं आप भी जानते हैं कि हमारे लोक में यह किसने रचा ? जाहिर है किसी एक ने नहीं रचा । किसी व्यक्ति ने नहीं किया । उसे किया समग्र लोक ने । अर्थात् लोक का जो साहित्य है वह समग्र-वाणी है । उसमें भले ही किसी जाति, गोत्र, प्रवर, वर्ग, समुदाय, या धर्म की ओर इशारा हो, व्यंग्योक्ति भी हो पर वह इनमें से किसी एक का वैयक्तिगत अवधारणा नहीं है । शायद इसीलिए वह समाज का संवाद है । संवाद है इसलिए वह साहित्य भी माना जाता है ।

लोक की दुनिया में वाद-प्रतिवाद रहा होगा किन्तु उसके साहित्य में किसी तरह का वाद तो कम से कम नहीं है । हाँ, यह दीगर बात है कि किसी को इसमें विवाद भले ही दिखाई दे जाये । और लोक साहित्य वाद विहीन होने के कारण ही वह समग्र समाज का वेद भी था, आज भी है । लोक ने कहा यानी ब्रह्मा की लकीर । दरअसल वाद में विचार तो हो सकते हैं साहित्य कहना उसे जरा सी बेईमानी होगी । वाद की सबसे बडी बुराई होती है कि उसका राजनीति से प्रेरित होना है । वाद की सबसे बड़ी अच्छाई होती है कि उसे लेकर उसका प्रणेता कभी नहीं चाहता कि वह उसके नाम से चले । वह सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक व्यक्तित्व होता है कोई राजनीतिक विचारधारा का अगुआ नहीं । तो वाद के सहारे राजनीति हो सकती है साहित्य नहीं । क्योंकि साहित्य होगा तो वह सहित होगा । कोई भी अलग नजर नहीं आयेगा । साहित्य में कोई विचार हो सकता है किन्तु विचार मात्र को साहित्य नहीं होता । क्योकि वहाँ जीवन मूल्यों को लेकर कोई न कोई सामाजिक अन्तरद्वंद जबकि साहित्य होगा तो वह सहित होगा । वहाँ हित के साथ कोई भी बात होगी । उदाहरण भी लेते हैं एक -बाह्मन, बनिया, नाऊ । जात देख गुर्राउ । इस पर मात्र निचली, पिछड़ी या दलित जातियों का विश्वास नहीं बल्कि समाज के प्रभू वर्गों का भी उतना ही विश्वास है ।

आप कबीर साहब का क्या कहेंगें दलित लेखक या संत साहित्यकार जिन्होंने यह खुलकर कहा कि
जो तू बामन ब्राह्मणी जाया, आन बाट भै क्यों नहीं आया ।

या भारतेंदू जी को जो दहाड़ते हुए अबेडेकर से पहले ही कहते है-
देखी तुमरी कासी, लोगों, देखी तुमरी कासी ।
जहाँ बिराजैं विश्वनाथ विश्वेश्वर जी अविनासी ।

आधी कासी भांट-भंडेरिया बाह्मन और सन्यासी
आधी कासी रण्डी मुण्डी रांड खानगी खासी ।

लोग निकम्मे भंगी गंजड़ लुच्चे बे-बिसवासी
महा आलसी झूठे शुहदें बे-फिकरें बदमाशी ।
और उधर जब महावीर प्रसाद द्विवेदी विचार भी देते हैं उससे सुधार और सद्भाव संबंधी मानवीय रसों को ही जगाने की कवितायी करते रहते है-

हाय हमने भी कुलीनों की तरह
जन्म पाया प्यार से पाले गए ।
जो बचे फूले-फले तो क्या हुआ
कीट से भी तुच्छतर माने गए
जो दयानिधि को तनिक आवे दया
तो अछूतों की उमड़ती आह का
यह असर होवे कि हिन्दुस्तान में
पाँव जम पावे परस्पर चाह का ।

प्रेमचंद की कहानियों में दलितों को जगाने के क्या कम प्रयास हुए हैं । जबकि वे तो दलित नहीं थे । यह दीगर बात है कि कुछ दलित साहित्यकारों ने भी उन्हें दलित विरोधी करार देने की नाकाम कोशिश करते देखे जाते हैं । साहित्यकार सच्चा होगा तो वह जाति के आधार पर नहीं बंटना चाहेगा । अक्सर प्रगतिशील यह भूल जाते हैं कि स्वयं प्रेमचंद ने प्रगतिशीलता के आधार पर साहित्य को बांटने का विरोध किया था । उनके लेख उसकी गवाही देते हैं । भारतीय साहित्य में जाति को तबज्जो लगभग नहीं दी गई है ।

हाल ही मैं कुछ सवर्ण साहित्यकार दलित साहित्य के विविध विषयों पर जो एकाग्र संपादित कर रहे हैं वे चौकातें है । खासकर इसलिए जब हमारे विश्वविद्यालय साहित्य के कब्रिस्तान बनते चले जा रहे हैं । वहाँ साहित्य पर शोध, सोच, सर्जना के अलावा सब हो रहा है । इन कृतियों को न केवल हमारे जैसे पाठक बल्कि हिंदी के प्राध्यापक, रचनाकार और शोधार्थी भी जरूर बार-बार पढना चाहेंगे । इन कृतियों में दलित विमर्श पर अब तक की सबसे बड़ी यानी कि 824 सुनहरे पृष्टों की एक किताब है - अम्बेडेकरवादी सौन्दर्य-शास्त्र और दलित आदिवासी-जनजातीय-विमर्श, जिसके संपादक हैं डॉ. विनय पाठक, जिसमें दलित साहित्य को लेकर शायद ही कोई कोण बचा हो जिसका गंभीर और बैलोस अनुशीलन और सत्यान्वेषण नहीं किया गया है । दलित साहित्य के सौंदर्य पर यह एक प्रामाणिक ग्रंथ बन चुका है । यह सिद्ध करता है कि विनय पाठक जैसे मेहनती और निष्कलुश लोग हिंदी पट्टी में रहेंगे साहित्य का गंभीर अनुशीलन होता रहेगा ।

वैसे बहुत सारे ऐसे कवियों की दलित चेतना से संपूरित कविताओं का जिक्र पाठक जी ने स्वयं इस कृति में किया है । मुझे तो कम से कम आत्मतोष है कि उन्होंने इन्हें अम्बेडेकरवाद का ही प्रभाव नहीं माना है । भले ही दलित आलोचक इनसे सहमत न हो कि वे तो दलित जाति के थे ही नहीं । यह दीगर बात है कि पृष्ठ 401 में समकालीन महत्वपूर्ण दलित कवियों की सूची में उन्होंने मात्र 22 कवियों को रखा है । इसमें वे समकालीन कवियों की उपस्थिति जरूरी जान पड़ती है जिनमें दलितों की पीड़ा का कारुणिक बयान है । वैसे पाठक जी की हिम्मत और दृष्टि को मैं दाद देना चाहूंगा कि उन्होंने तटस्थ भाव से इस महाग्रंथ में उन्हें भी समादृत किया है जो जाति से दलित नहीं है । यह चुनौती भी है और दिशा भी कि भाई मेरे जाति के आधार पर साहित्य के पंडे न बनो ।

लेखन जब पूर्व प्रेरित विषयों के प्रेमिंग में लिखने के लिए होता है तो उसमें साहित्य मानने लायक कम सत्व मिलता है पाठकों के लिए । ऐसे लेखन सामयिक तो होता है उसमें प्राणवायु इतनी नहीं होती कि वह कालजयी हो सके । उसकी सामयिकता सदैव बनी रहे । शायद इसलिए ऐसा लेखन एक निश्चित समय के बाद का सत्य भी नहीं रह जाता । यानी कि वह अपने समय का मिरर या सच तो हो सकता है किन्तु उसकी प्रांसगिकता स्थायी नहीं हुआ करती । हजारों लाखों कहानी लिखे जाने के बाद भी आज हम उसने कहा था, पुस की रात, पंच परमेश्वर या गुण्डा आदि को क्यों नही भूल पाये । शायद वह तयशुदा विषय पर लेखन नहीं था । उसमें और उनकी जैसी सैकड़ो कहानियों में किसी जाति विशेष के प्रति आक्रोश नहीं था । जबकि दलित साहित्य के मूल में सवर्णों के प्रति आक्रोश है । बदले की भावना है । और यह उसे साहित्य ने नहीं दिया । राजनीतिज्ञों ने दिया है । चेतना ने दी है । शिक्षा ने दी है । वैज्ञानिकता ने दी है । जातिगत संगठनवाद ने दिया है । साहित्य या लेखन तो इससे कहीं आगे की और शुद्धतम वस्तु है । वह इनमें व्याप्त कुंठाओं का भी निदान है । साहित्य भी यदि वही काम करे जो राजनीतिक लोग करते हैं तो फिर उस समरसता का क्या होगा जिसे सभी महान साहित्यकारों ने बचाने की कोशिश की है ।

लेखन यानी अंतःबाह्य के सत्य का एकीकरण और साध्य का गुरुत्वाकर्षण । लेखन यानी अप्राकृतिक, अमर्यादित, अपरूप, अपचेष्टा के पर्यावरण के बावजूद उनके समानांतर ही शिव-सत्ता का अवगाहन । लेखन यानी समग्र सौदर्य का प्रकाशन । लेखन का मतलब रचना है । स्वयं को रचना । युग को रचना । समय को रचना । काल को रचना । भूत और वर्तमान की पुनर्ररचना और भविष्य की संरचना । दृष्ट को रचना, अदृश्ट की भी रचना । लेखन समानांतर संसार की सर्जना है । लेखन ईश्वर के बाद सर्वोच्च सत्ता को साधने वाली कला है । लेखन वही जिसके प्रत्येक शब्द में सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की ज्योत्सना झरती हो । वहाँ डूब-डूब जाने के लिए मन बरबस खींचा चला आता रहे । लेखन सच्चा होगा तो वह क्षीणकाय न होगा, दीर्घायु होगा । वहाँ वाद न होगा, विवाद न होगा, अजस्त्र संवाद होगा । फलतः उसमें मनुष्य जाति के लिए अकूत रोशनी होगी । एक ऐसा पनघट होगा जहाँ हर कोई अपनी प्यास बुझा सके । एक सघन-सुगंधित तरूबर होगा जहाँ हर कोई श्रांत श्लथ श्रमजल जूड़ा सकेगा । एक ऐसा निर्मल दरपन होगा जहाँ वह अपने चेहरे के हर रंग को भाँप सकेगा । एक ईमानदार लेखन सामयिकता के जाल में उलझना नहीं चाहता । सामयिकता तत्क्षण का अल्प सत्य है । वह शाश्वत नहीं हुआ करती । ईमानदार लेखन सदैव शाश्वत की ओर उन्मुख होना चाहता है । इसलिए वह व्यक्ति, जाति, धर्म, देश, काल, परिवेश को लांघने के सामर्थ्य से परिपूर्ण होता है । वह अपनी वास्तविकता में व्यक्ति नहीं अपितु व्यक्तित्व की लघुता से प्रभुता की ओर संकेत है । लेखन तटस्थ-वृत्ति है । ऐसी तटस्थता जहाँ मंगलकामना का अनवरत् राग गूँजता रहता है- सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे भवन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राण पश्यंतु, मां कश्चित् दुख भाग्भवेत् ।

चलिए पल भर के लिए यह मान लेते हैं कि दलित साहित्य साहित्य की दुनिया में स्वयं को प्रतिष्ठित करने का कुछ लोगों का जरिया नहीं है । यह भी ठीक है कि दलित चेतना सवर्ण मानसिकता और दलित विरोधी गतिविधियों के प्रतिरोध का साहित्य है । और इन प्रतिरोधों से सरोकार का हक भी दलितों को बाकायदा है । और यह भी सच है कि हर दलित लेखक आक्रोश के लिए नहीं रच रहा है । मैं ओमप्रकाश वाल्मीकि के जूठन नामक आत्मकथात्मक उपन्यास का जिक्र करना चाहूँगा जिसे पढकर कोई भी सवर्ण रोये बिना नहीं बच सकता । जानते हैं मूलतः वह चमारों के प्रति करुणा से ओतप्रोत कर देने वाला हिंदी के श्रेष्ठतम उपन्यासों में से एक है । इस उपन्यास में लेखक कहीं भी सीधे सवर्णों को गाली गलौच करता हुआ खड़ा नहीं दिखाई देता परन्तु एक संवेदनशील सवर्ण पाठक भी उसे पढ़कर सवर्ण मानसिकता की कमजोरियों के प्रति आक्रोश से भर बिना नहीं रहता । उसमें दलितों के प्रति रागात्मक अनुराग उत्पन्न होने लगता है । उसे अपने पूर्वजों पर कदाचित् क्षोभ भी होता है । और यही साहित्य का उद्देश्य है । साहित्य कोई फतवा नहीं है कि फलाने को कूट दो । अमूक को समूल नष्ट कर दो । किसी से बदला लो । किसी को भगा दो ।

इस सबके बाद भी मै अपने मंतव्य में इन निहितार्थों को तलाशने की छूट नहीं दे सकता कि पददलित, शूद्र और अस्पृश्य जातियों के प्रति सवर्णों ने सदियों पहले अत्याचार नहीं किया । पर उस पीढ़ी के सम्मुख अपने मन में छिपी बर्बरता और विद्रोहात्मक बयान कहाँ तक उचित है जो आज इन दकियानुसी मानसिकता से निकलता जा रहा है । साहित्य के केंद्र में न केवल देवता, राजा-महाराजा, सामन्त या शोषक वर्ग को च्युत किया जाना चाहिए बल्कि तथाकथित पददलित व शोषित-पीड़ित किसी वर्ग को भी स्थापित किये जाने का मनुवादी संस्कार प्रसारित होना चाहिए । साहित्य के केन्द्र में सिर्फ और सिर्फ मनुष्य होना चाहिए । मनुष्य का मन होना चाहिए । मनुष्य को किसी भी कोण स वर्गीकृत करना प्रकारांतर से समाज को विभाजित करना भी होगा । जैसा कि अक्सर दलित विमर्श में कहा जाता रहा है कि दलित लेखन दलित-आदिवासी अस्मिता की स्वतंत्र पहचान के लिए है, साहित्य में अनुमति नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि यह भारत की संस्कृति की शाश्वत समन्वयात्मक चरित्र और उदारता के विरूद्ध भी है जिसका परित्याग भारतीय मन शायद ही कभी कर सके । भारत में किसी व्यक्ति या जाति की पहचान निहायत स्वतंत्र नहीं होती । वह समूचे परिवेश, समग्र जन और समूचे भूगोल में ही होती रही है । और जिसे नकारना ठीक वैसा होगा जैसा हम संयुक्त परिवार को नकार कर नितांत एकाकी, असहाय और नीरस होते जा रहे हैं । दलित साहित्य के उद्देश्यों में यह बड़ी बारीकी से पढ़ाया जाता रहा है कि यह बहुजनों के सुख की प्रतिबद्धता का औजार है । बहुजन सुनहरे अर्थों वाला भारतीय शब्द है पर यहाँ बहुजन शब्द में जब आप बहुसंख्यक लोगों का मायने देखेंगे तो कदाचित् आपको निराशा होगी । क्योंकि दलित समीक्षकों के यहाँ बहुजन का मतलब मात्र अस्पृश्य जातियों के लोग होता है । इसी तरह सुख शब्द भी है । सुख भौतिकता की ओर इंगित करता शब्द है । और भौतिकता को सदैव हिदी साहित्य में नकारा जाता रहा है । इसे ऐसा नहीं माना जा सकता है कि हिंदी साहित्य सरोकार मुक्त रहा है । उसे मनुष्य के भौतिक प्रगति से चिढ़ रही है किन्तु वहाँ सुख से कहीं ज्यादा हार्दिक समृद्धि को तवज्जो दिया जाता रहा है । लगभग हर वाद या काल में ।

यह भी कहना चाहूँगा कि आर्थिक आधार या भारतीय जातीय संरचना में निम्नतम प्रस्थिति में विवश समूह से अभिव्यक्ति की अधिक संभावनायें रहनी चाहिए । वहाँ कृष्ण पक्ष से मुक्ति के लिए जद्दोजहद ज्यादा है और तड़फ भी । उस भूगोल की स्थायी विद्रपताओं, विपदाओं के साथ-साथ कुँठाओ, तृष्णाओं और मनोविकारों को भी पर्दाफाश किया जाना प्रजातांत्रिक कदम है और समय की माँग भी । पर वहाँ से उठने वाली आवाज़ या साहित्य का स्वर कहीं अमानवीय न बन जाय इसका भी ख़याल रखना लाजिमी होगा । सच तो यह है कि वहाँ से मानवीय गरिमा को बचा ले जाने की समस्त संभावित प्रसंगों और कहानियों की अभिव्यक्ति होना अभी शेष है । जो साहित्य के लिए अपरिहार्य भी है । इसके बिना भारतीय साहित्य एकतरफा भी बना रहेगा । मेरी चिंता के परिप्रेक्ष्यों में यह भी सम्मिलित है कि अभिव्यक्ति के अधिकार से किसी को मात्र इसलिए खारिज नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि वह पहले से ही कोई ‘वादी’ है । अभिव्यक्ति का अधिकार सार्वजनिक है परन्तु उस शर्त पर जहाँ वह विभाजित करने वाले आधारों पर नहीं बल्कि “रचनाकार” के रूप में अपनी पहचान बनाये रखने का आग्रही हो।

बातें तो बहुत सारी हैं । दलित-विमर्श पर कही जाय तो घटों कही जा सकती है । सहमति के मोह या या असहमति के भ्रम से सर्वथा स्वयं को मुक्त रखते हुए यह भी कहना चाहता हूँ कि दलित-दंश की स्थायी पीड़ा को लेकर गैर दलित जाति के लेखक भी इधर सामने आने लगे हैं । चाहें तो इसे आत्ममुग्ध होकर दलित साहित्य की महत्ता या सत्ता का चमत्कार भी कह सकते हैं चाहें तो साहित्य को जातिवाद से मुक्ति दिलाने का उद्यम या फिर संवेदना जैसे पवित्रतम चीज़ की वापसी भी । अब सोचना आपको है, मुझे जो कहना था कह दिया।

शिवेन्दु राय

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