hum hia jee

hum hia jee

Friday, February 5, 2010

“इश्किया” का गीत किसका गुलजार या सर्वेश्वर का

इश्किया फिल्म में गुलजार के लिखे ‘इब्नबतूता’ गीत को लेकर छिड़ा विवाद दुखी करता है। कहा जा रहा है कि इसे मूलतः हिंदी के यशस्वी कवि एवं पत्रकार स्व. सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ने लिखा है। ऐसे मामलों में नाम जब गुलजार जैसे व्यक्ति का सामने आए तो दुख और बढ़ जाता है। वे देश के सम्मानित गीतकार और संवेदनशील रचनाकार हैं। ऐसे व्यक्ति जिन्हें साहित्य और उसकी संवेदना की समझ भी है। हाल में ही चेतन भगत और आमिर खान के बीच थ्री इटियट्स को लेकर छिड़ी बहस को जाने दें तो भी मायानगरी ऐसे आरोपों की जद में निरंतर आती रही है। सहित्य के महानायकों की रचनाएं लेना और उसे क्रेडिट भी न देना कहीं से उचित नहीं कहा जा सकता। यह सिर्फ गलती नहीं है एक ऐसा अपराध है जिसके लिए कोई क्षमा भी नहीं मांगता। दिल्ली-6 में छत्तीसगढ़ के गांव-गांव में गूंजनेवाला छत्तीसगढ़ी गीत “सास गारी देवे, देवर जी समझा लेवे“ का उपयोग किया गया। सब जानते हैं इसे रायपुर की जोशी बहनों ने गाया था। किंतु क्रेडिट के नाम पर फोक लिख दिया। फोक क्या हवा में पैदा होता है। छत्तीसगढ़ी फोक लिखकर उस राज्य की संस्कृति को मान्यता देने में हर्ज क्या था पर चोरियों से ज्यादा सीनाजोरियां मुंबई की मायानगरी का चलन बन गयी हैं।

सर्वेश्वर जी हिंदी के एक बहुत सम्मानित कवि और पत्रकार होने के साथ-साथ रंगमंच के क्षेत्र में भी खास पहचान रखते थे। वे बच्चों के लिए भी लिखते रहे और अपने समय की महत्वपूर्ण बालपत्रिका पराग के संपादक रहे। उन्होंने बतूता का जूता और महंगू की टाई नाम से बच्चों के लिए कविताओं की दो पुस्तकें भी लिखी हैं। जिसमें बतूता का जूता (1971) में यह कविता है जिसपर विवाद छिड़ा हुआ है। अपने समय की महत्वपूर्ण पत्रिका दिनमान से जुड़े रहे सर्वेश्वर जी को शायद भान भी नहीं होगा कि उनकी मृत्यु के बाद उनकी रचनाएं इस तरह उपयोग की जाएंगी और उनके नामोल्लेख से भी पीढ़ियां परहेज करेंगीं। पर ऐसा हो रहा है और हमसब इसे देखने को विवश हैं।

भाव का अपहरण क्षम्य है, शब्द का अपहरण भी क्षम्य है किंतु पूरी की पंक्ति निगल जाना और क्रेडिट न देना कैसे माफ किया जा सकता है। यह रोग जिस तरह पसर रहा है वह दुखद है। फिल्मी दुनिया में नित उठते यह विवाद साबित करते हैं कि इससे किसी ने सबक नहीं लिया है। सर्वेश्वर जी ने अपनी एक कविता में लिखा था-

“और आज छीनने आए हैं वे

हमसे हमारी भाषा

यानी हमसे हमारा रूप

जिसे हमारी भाषा ने गढ़ा है

और जो इस जंगल में

इतना विकृत हो चुका है

कि जल्दी पहचान में नहीं आता।”

सर्वेश्वर कहते हैं कि वस्तुतः हमसे हमारी भाषा का छिन जाना हमारे व्यक्तित्व और अस्तित्व का मिट जाना है। चंद मामूली से शब्दों के द्वारा ही (छीनने आए हैं वे… हमसे हमारा रूप) कवि ने यह अर्थ हमें सौंप दिया है कि भाषा का छिन जाना हमारी जातीय परंपरा, संस्कृति, इतिहास और दर्शन का छिन जाना है। सर्वेश्वर हमारी सांस्कृतिक चेतन पर आए इस संकट को पहचानते हैं। वस्तुतः भाषा के सवाल पर यह संजीदगी सर्वेश्वर को एक जिम्मेदार पत्रकार बनाती है। सर्वेश्वर का पत्रकार इसी प्रेरणा के चलते पाठक में एक चेतना और अर्थवत्ता भरता नजर आता है। सर्वेश्वर की लेखनी से गुजरता पाठक, उनकी लेखनी से निकले प्रत्येक शब्द को अपनी चेतना का अंग बना लेता है। ऐसा इसलिए क्योंकि सर्वेश्वर पूरी ईमानदारी और संवेदना के साथ पाठक की चेतना को सम्प्रेषित करते हैं। सर्वेश्वर ने इसीलिए ऐसी भाषा तलाशी है जो वर्तमान परिवेश में सांस लेने वाले हरेक इन्सान की हैं, हरेक की जानी पहचानी है और हरेक का उससे गहरा और करीबी रिश्ता है। किंतु सर्वेश्वर की यही भाषा और शब्द आज मायानगरी के बाजार में सुनाए तो जा रहे हैं पर किसी और के नाम से। हालांकि इस पूरे मामले पर अभी गीतकार गुलजार की प्रतिक्रिया आना शेष है किंतु प्रथमदृष्ट्या यह मामला माफी के काबिल तो नहीं दिखता। इस तरह के विवाद साहित्य की अस्मिता पर हमला हैं और कलमकारों के लिए अपमानजनक भी किंतु क्या इस विवाद से कोई सबक लेने को तैयार है, शायद नहीं।

No comments: