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Wednesday, September 1, 2010

मीडियाकर्मी बनाने की दुकान !

इंटरनेट पर भारत के मीडिया संस्थानों की सूची तलाश करने पर 18 लाख से ज्यादा नतीजे दिखाई देते हैं। इनमें सरकारी संस्थान कम और निजी ज्यादा दिखाई देते हैं। यह भीड़ कुछ ऐसी है कि लगता है जैसे पत्रकार बनाने वाली फैक्टरियों की भीड़ ही जमा हो गई हो। वहीं एमबीए इंस्टीट्यूट की तलाश करने पर छह लाख के करीब नतीजे दिखते हैं। मतलब यह कि मीडिया संस्थानों की पहुंच, पूछ और पहचान बढ़ रही है।

इसी साल देश के सर्वोच्चतम माने जाने वाले मीडिया इंस्टीट्यूट भारतीय जनसंचार संस्थान को डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा दे दिया गया। इसी तरह दिल्ली के पांच कॉलेजों- लेडी श्रीराम, कमला नेहरू, अग्रसेन, दिल्ली कॉलेज ऑफ आर्ट्स एंड कॉमर्स, कालिंदी कॉलेज में अंग्रेजी में पत्रकारिता को स्नातक स्तर पर पढ़ाया जा रहा है और हिंदी में चार कॉलेजों अदिति महाविद्यालय, भीमराव आंबेडकर कालेज, राम लाल आनंद, गुरुनानक देव खालसा कॉलेज में पत्रकारिता के स्नातक स्तर की पढ़ाई हो रही है।

यानी दिल्ली में मीडिया के अध्ययन का भरपूर माहौल तैयार हो चुका है और सरकारी कोशिशें भी काफी हद तक संतोषजनक ही रही हैं। इसके बावजूद दिल्ली में निजी संस्थानों भी एक के बाद एक खुलते गए हैं। दिल्ली से सटे एनसीआर क्षेत्र में पत्रकारिता की कई दुकानें खुली हैं और उनमें से ज्यादातर ने कहीं न कहीं दिल्ली विश्वविद्यालय के पत्रकारिता के पाठ्यक्रम से ही बड़े सबक उठाए हैं। सरकारी कॉलेजों की तुलना में इनमें से कुछ भले ही दर्शनीय और आकर्षक ज्यादा हों, लेकिन गुणवत्ता के मामले में ये खुद को साबित नहीं कर पाए हैं।

दरअसल, भारत में मीडिया शिक्षण मोटे तौर पर छह स्तरों पर होता है- सरकारी विश्वविद्यालयों या कॉलेजों में विश्वविद्यालयों से संबद्ध संस्थानों में, भारत सरकार के स्वायत्तता प्राप्त संस्थानों में पूरी तरह से निजी संस्थानों में, डीम्ड विश्वविद्यालयों में और किसी निजी चैनल या समाचारपत्र के खोले गए अपने मीडिया संस्थान में।

इनमें सबसे कम दावे सरकारी संस्थान करते हैं और दावों की होड़ में जीतते हैं निजी संस्थान। लेकिन विश्वसनीयता के मामले में बात एकदम उल्टी है। अब भारत में 125 डीम्ड विश्वविद्यालय खुल गए हैं। इनमें से 102 निजी स्वामित्व वाले संस्थान हैं। यहां भी शिक्षण संबंधी मूलभूत नियमों की अनदेखी की शिकायतें आती रही हैं। यही वजह है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय का कार्यभार संभालते ही कपिल सिब्बल ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा हासिल कर चुके सभी शिक्षण संस्थानों के कामकाज की समीक्षा के आदेश दे दिए।

उधर निजी चैनलों के कुछ संस्थान पहले तो चयन ही ऐसे छात्रों का करते हैं जो उनके चैनल के लिए पूरी तरह से उपयुक्त दिखते हों। इनमें ऊंची पहुंच वालों के बच्चों को तरजीह मिलती है। इनमें से कई संस्थान जो सर्टिफिकेट देते हैं, वह चैनल में तो चलता है लेकिन कहीं और नहीं। यहां किसी विश्वविद्यालय से संबद्ध डिग्री देने का प्रावधान नहीं होता है।

मसला यह भी है कि इन संस्थानों में पढ़ाता कौन है (क्या पढ़ाया जाता है, यह एक अलग मसला है)। सरकारी संस्थानों में इस साल से यूजीसी के निर्देशों का पालन अनिवार्य कर दिया गया है, यानी इन संस्थानों में अब वही शिक्षक नौकरी पा सकेंगे जो गुणवत्ता के स्तर पर कहीं से भी कम नहीं होंगे, क्योंकि नेट की परीक्षा को पार करना आसान नहीं।

ऐसे में अक्सर गेस्ट फैकल्टी को बुलाने की कोशिश होती है। ज्यादातर सरकारी कॉलेजों में आज भी अतिथि वक्ता को एक घंटे के लेक्चर के लिए 500 से 750 रुपए ही दिए जाते हैं। ऐसे में या तो लोग आते नहीं और अगर आ भी जाते हैं तो शिक्षण में अनुभवहीनता और अरुचि के चलते अपनी सफलता के किस्से सुनाकर चलते बनते हैं।

निजी संस्थानों में अब भी नेट अनिवार्य नहीं दिखती। नतीजा यह हुआ है कि या तो उनके पास वही शिक्षक रह जाते हैं जिनकी जानकारी अस्सी के दशक से आगे नहीं बढ़ी है अथवा वे जो मीडिया में हैं लेकिन पढ़ाने की कला नहीं जानते। ऐसे लोग कक्षाओं में किस्सागोई तो कर लेते हैं, लेकिन छात्रों के ज्ञान को विस्तार नहीं दे पाते।

ऐसे में मीडिया शिक्षा सिर खुजलाती दिखती है। युवा पत्रकार बनना चाहते हैं, वह भी जल्दी में। ऐसे में पत्रकारिता करना मैगी नूडल्स बनाने जैसा काम हो गई है। बाद में पता चलता है कि जल्दी में जिस फसल को रातोंरात बड़ा किया गया था, वह कीटनाशकों के अभाव में खराब निकली। क्या कुछ समय के लिए फोकस मीडिया के बढ़ते बाजार के बजाय योग्य शिक्षकों की खोज और उनके प्रशिक्षण पर किया जा सकता है? यह एक अलग बात है कि गूगल पर मीडिया शिक्षकों की तलाश करने पर नौ करोड़ से ज्यादा नतीजे मिलते हंै।

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