hum hia jee

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Monday, October 5, 2009

gandhi

दर्शन की तुलना में विवेक सदैव लाभ की स्थिति में रहता है। इसकी बड़ी आसान वजह है। दर्शन मानव मस्तिष्क से इतना त्रस्त रहता है कि उसका विचार भटकाव का शिकार बन जाता है। हम इस भटकाव की जटिलताओं और भंवरजाल से मोहित होकर भूल जाते हैं कि एक समय हमारा भी कोई गंतव्य था। विवेक सीधी रेखा में चलता है। सवाल-जवाब के बीच यह सबसे कम दूरी पर होता है। ये विचार बेंगलुरू स्थित भारतीय प्रबंध संस्थान में कार्यरत मेरे एक मित्र द्वारा भेजे गए ई-मेल से प्रेरित थे जिसमें उन्होंने महाभारत से एक श्लोक उद्धृत किया था -‘धर्मम यो बधते धर्मो ना सा धर्म: कुधर्मक:अविरोधात्तु यो धर्म:, सा धर्म: सत्यविक्रम:।’इस श्लोक का अर्थ है -‘कोई भी धर्म (चाहे वह जीवन जीने का तरीका हो या फिर धर्म) जो अन्य धर्म का अतिक्रमण करता हो, सच्च धर्म नहीं है। वह कुधर्म है। जो धर्म दूसरों के हितों को नुकसान पहुंचाए बगैर फलता-फूलता है, वही वास्तव में सच्च धर्म है, ओ सत्यविक्रम!’वे संगठन महाभारत के इस आधारभूत सिद्धांत की अवहेलना क्यों कर रहे हैं जो हिंदुत्व के नाम पर राष्ट्र के गठन के लिए राजनीतिक दर्शन का सहारा लेते हैं? यह संभव है कि राजनेता अपनी राजनीति मंे इतने व्यस्त हों कि वे उसी विश्वास की उपेक्षा कर देते हों जिसमें वे विश्वास करते हैं। लेकिन यह बहुत ही उदार व्याख्या होगी।
अधिकांश राजनेता नैतिकता की इसलिए उपेक्षा करते हैं क्योंकि छिद्रान्वेष उन्हें नैतिकता-अनैतिकता से तटस्थ कर देता है।छह सौ हिस्सों में बंटे औपनिवेशिक भारत जो अंतत: एक विभाजन के साथ आजाद हुआ, की स्मृतियों के उन शांत किनारों से भी नए सवाल उठने लगे हैं। एक पुराना सवाल भी फिर से सतह पर लौट आया है। महात्मा गांधी की स्वतंत्रता की अवधारणा रामराज्य के सपने के इर्द-गिर्द बुनी गई थी। लेकिन भगवान राम में विश्वास नहीं करने वाले मुस्लिम भला रामराज्य के साथ कैसे जुड़ सकते थे? तो क्या गांधीजी साम्प्रदायिक थे? गांधीजी धर्मविहीन राजनीति को अनैतिक मानते थे। उनका मानना था कि जनसेवा के मार्ग से गुजरने वाले लोगों के लिए धर्म नैतिक दिशा-सूचक का काम करता है। लेकिन धर्म के प्रति गांधीजी की प्रतिबद्धता का मतलब किसी एक धर्म के प्रति प्रतिबद्धता से नहीं था। उनके रामराज्य में प्रत्येक आस्था के लिए संपूर्ण स्वतंत्रता और बराबरी निहित थी। उनकी प्रार्थना सभाओं में केवल गीता के लिए ही नहीं, पवित्र कुरान, बाइबल और गुरु गं्रथ साहेब के लिए भी जगह थी। जब लोगों ने गांधीजी को गलत तरीके से पेश किया, उनके आदर्शवाद का मजाक उड़ाया और उनके शांतिवाद को छिपी हुई हिंसा के जरिए चुनौती दी तो उन्हें काफी दुख पहुंचा। महाभारत ही वह प्रमुख ग्रंथ था, जिससे उन्होंने धर्म का सही अर्थ समझा। गांधीजी का रामराज्य सद्भावना का क्षेत्र था, न कि लगातार संघर्ष का मैदान। गांधी के बाद कांग्रेस ने कम से कम तीन कारणों से ‘रामराज्य’ का त्याग कर दिया। एक, इससे मुस्लिम विरोध का एहसास होता था। दो, नेहरू धार्मिक मुहावरे के साथ असहज महसूस करते थे और तीसरा, गांधीजी के ‘रामराज्य’ के लक्ष्य को हासिल करने के लिए नैतिक रूप से पर्याप्त दक्ष बनने की जरूरत होती। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा जो ‘हिंदू भारत’ चाहते थे, क्यों गांधीजी के फॉमरूले से दूर हट गए?
क्योंकि उनके आदर्श गांधीजी के आदर्श से भिन्न थे। दरअसल, हिंदुत्ववादी’ ताकतें पाकिस्तान की तर्ज पर हिंदुस्तान चाहती थीं। वे भारतीय मुस्लिमों और ईसाइयों के साथ ठीक उसी तरह से बर्ताव करना चाहती थीं जैसा कि पाकिस्तान ने हिंदुओं और ईसाइयों के साथ किया। इस प्रकार की नीति से वोट मिल सकते हैं या नहीं, यह अलग मसला है। मुद्दे की बात यह है कि इस प्रकार की सोच भारत के आधुनिक लोकतंत्र होने के विचार की विरोधी है। धर्म के आधार पर भेदभाव एक धार्मिक राज्य मंे हो सकता है, लोकतांत्रिक देश में नहीं। आत्मघाती तरीकों से अपने किसी पड़ोसी को भयभीत करना मूर्खता से ज्यादा कुछ नहीं होगा। भारत पारस्परिक संघर्षो के साथ नहीं, उनका समाधान करके ही समृद्ध हो सकता है। इस बारे में अधेड़ या बुजुर्गो की तुलना में युवाओं की नजर कहीं साफ है। युवा अपने पूर्वजों की गलतियों से सबक सीख चुके हैं। इस समय भाजपा की बागडोर संघ द्वारा थामने को लेकर चर्चा का स्वांग रचा जा रहा है। सच तो यह है कि दोनों कभी भी एक-दूसरे से अलग नहीं थे। मुद्दा यह नहीं है कि क्या भाजपा संघ में मिलन के विचार की तरफ मुड़ेगी, बल्कि असली मसला तो यह है कि क्या संघ ऐसा करेगा? वे महाभारत से बेहतर प्रस्थान बिंदु की उम्मीद नहीं कर सकते।

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